जेएनयू एक सामूहिक उपलब्धि है

जेएनयू कोई द्वीप नहीं है, वहां हमारे ही समाज से लोग पढ़ने जाते हैं. जो बात उसे विशिष्ट बनाती है, वो है उसके लोकतांत्रिक मूल्य. इनका निर्माण किसी एक व्यक्ति, पार्टी या संगठन ने नहीं, बल्कि भिन्न प्रकृति और विचारधारा के लोगों ने किया है. यदि ऐसा नहीं होता, तब किसी भी सरकार के लिए इसे ख़त्म करना बहुत आसान होता.

/
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो: शोम बसु)

जेएनयू कोई द्वीप नहीं है, वहां हमारे ही समाज से लोग पढ़ने जाते हैं. जो बात उसे विशिष्ट बनाती है, वो है उसके लोकतांत्रिक मूल्य. इनका निर्माण किसी एक व्यक्ति, पार्टी या संगठन ने नहीं, बल्कि भिन्न प्रकृति और विचारधारा के लोगों ने किया है. यदि ऐसा नहीं होता, तब किसी भी सरकार के लिए इसे ख़त्म करना बहुत आसान होता.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो: शोम बसु)
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो: शोम बसु)

बीते दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के विद्यार्थियों पर बहुत ही कायराना और बर्बर तरीके से लाठीचार्ज किया गया. संसद की कार्यवाही के पहले दिन वे संसद मार्ग तक अपनी यह बात पहुंचाना चाहते थे कि जेएनयू की फीस की दरों में कोई बदलाव न किया जाए. नया हॉस्टल मैन्युअल हटाया जाए.

इसके साथ ही वे पूरे देश में शिक्षा के बाजारीकरण के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे. बस यही गुनाह था उनका. उनके खिलाफ़ सीआरपीएफ को उतार दिया गया. बैरिकेड से घेर दिया गया उन्हें. गिरफ्तार करके थानों में रखा गया.

मैंने वहां छह सालों तक पढ़ाई की है… एमए, एमफिल और फिर पीएचडी किया. छात्र राजनीति में सक्रिय कार्यकर्ता रहा. जेएनयू छात्रसंघ का निर्वाचित उपाध्यक्ष रहा. आज कहने के लिए जेहन में हजारों बातें हैं, जिसमें से कुछ साझा कर रहा हूं.

जेएनयू एक सामूहिक उपलब्धि है

सबसे पहले तो यह जान लीजिए कि जेएनयू कोई आइलैंड या द्वीप नहीं है. हमारे ही समाज से लोग वहां पढ़ने जाते हैं. एक निष्पक्ष प्रवेश परीक्षा होती है. यह भारत सरकार और यूजीसी के नियमों के तहत ही चलता है और जैसे इस देश की अन्य जगहें हैं, वैसे ही जेएनयू भी है.

जो बात उसे विशिष्ट बनाती है, वे हैं उसके लोकतांत्रिक मूल्य. और इन लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्माण किसी एक आदमी, पार्टी या संगठन ने नहीं किया है. इस लोकतांत्रिक माहौल और मूल्यों का निर्माण लंबे समय में भिन्न-भिन्न प्रकृति, स्वभाव और विचारधारा के लोगों ने किया है.

यदि इसका निर्माण किसी एक व्यक्ति या पार्टी ने किया होता, तो इसको ख़त्म करना किसी भी सरकार के लिए बहुत आसान होता. लेकिन चूंकि यह एक सामूहिक उपलब्धि है, इसलिए इसको मिटाना उन सभी लोकतांत्रिक मूल्यों को मिटाना है जिनका यह विश्वविद्यालय वहन करता है.

झूठा प्रचार

आज ऐसा लग रहा है जैसे भारत और जेएनयू दो पड़ोसी मुल्क हो गए हों. मीडिया और संघ-भाजपा के समर्थकों ने जेएनयू के विरुद्ध एक सामूहिक मोर्चा खोल दिया है. पूरे मुल्क में इस विश्वविद्यालय के खिलाफ़ झूठे प्रचार जोर-शोर से किए जा रहे हैं. इस प्रोपगंडा की पहली बात यह है कि

1. जेएनयू में लोग बुढ़ापे तक पढ़ते हैं. यह टैक्सपेयर के पैसे का दुरुपयोग है.

जवाब: इस देश में टैक्स केवल मिडिल क्लास के लोग नहीं देते हैं. देश का हर आदमी टैक्सपेयर है और इन्हीं टैक्स देने वाले लोगों के मेधावी बच्चे जेएनयू में पढ़ रहे हैं.

जेएनयू देश के उन विश्वविद्यालयों में से है, जहां परीक्षाएं समय पर होती हैं. सेमेस्टर समय से चलते हैं. पीएचडी और एमफिल की थीसिस समय पर जमा होती है. कोई भी विद्यार्थी यूजीसी के नियमों के बाहर नहीं जा सकता. सबसे ज्यादा समयबद्ध शोध जेएनयू में ही होते हैं.

एक बात और, जेएनयू में कुछ विद्यार्थी ऐसे भी आते हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी नौकरी की, टैक्स दिया और रिटायर होने के बाद पढ़ने आए. भारतीय समाज में कहा जाता है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती लेकिन इन दिनों जेएनयू के नाम पर पूरे मुल्क पर जैसे एक पागलपन छाया हुआ है.

2. जेएनयू की फीस क्यों नहीं बढ़नी चाहिए? यहां 1980 का फीस स्ट्रक्चर चल रहा है.

जवाब: जेएनयू या किसी भी संस्थान की फीस क्यों बढ़नी चाहिए? शिक्षा और स्वास्थ्य तो जनता का मूलभूत अधिकार है. यहां सवाल यह होना चाहिए कि प्राइवेट संस्थानों की फीस इतनी ज्यादा क्यों है? या सरकारी संस्थानों की फीस इतनी क्यों बढ़ाई जा रही है?

3. 10 रुपये में दिल्ली के इतने पॉश इलाके में रहने को क्यों मिले?

जवाब: यह सुधीर चौधरी जैसे पत्रकारों द्वारा पैदा किया गया सवाल है. जेएनयू में कोई रहने नहीं आता, एक प्रवेश परीक्षा पास कर यूजीसी के नियमों के तहत पढ़ने आता है. विश्वविद्यालय कोई रेंट हाउस, धर्मशाला या होटल नहीं हैं जहां हर साल किराये में बदलाव होना न्यायसम्मत हो.

विश्वविद्यालय का उद्देश्य किराया वसूलना नहीं है. विश्वविद्यालय एक बड़ी दृष्टि (विज़न) के साथ खोले जाते हैं, जिनका उद्देश्य समाज को शिक्षित करना और वैज्ञानिक सोच का विस्तार होता है.

सरकार ये विश्वविद्यालय खोलती है ताकि वह अपने समाज को सही दिशा में ले जा सके. एक बेहतर और लोकतांत्रिक समाज बन सके. और जेएनयू ने कभी इस विज़न के खिलाफ़ कोई काम नहीं किया है.

New Delhi: Jawaharlal Nehru University students during a protest march towards Parliament, on the first day of the Winter Session, in New Delhi, Monday, Nov. 18, 2019. The students have been protesting for nearly three weeks against the draft hostel manual, which has provisions for a hostel fee hike, a dress code and curfew timings. (PTI Photo/Ravi Choudhary)(PTI11_18_2019_000264B)(PTI11_18_2019_000283B)
फीस बढ़ोतरी के खिलाफ जेएनयू के छात्रों का प्रदर्शन. (फोटो: पीटीआई)

भिन्न आर्थिक-सामाजिक स्थिति पर एक धरातल- जेएनयू

जेएनयू केवल शिक्षा नहीं जीने के तौर-तरीके की भी शिक्षा देता है. कुछ मूल्य जो यहीं बने रह पाते हैं. एक साथी का किस्सा सुनाता हूं. वे बड़े खुद्दार आदमी थे और घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रहती थी.

जेएनयू द्वारा दिए जाने वाले मेरिट कम मीन्स स्कॉलरशिप (एमसीएम- एक न्यूनतम फेलोशिप, जो उन विद्यार्थियों को मिलती थी जिनके अभिभावक की सालाना आय ढाई लाख या इससे कम हो) से ही उनका काम चलता था.

बहुत नपे-तुले तरीके से रहते थे. बहुत कम संसाधन थे, लेकिन उन्होंने कभी इसका रोना नहीं रोया. हमेशा हंसकर मिलते थे. एक दिन मिले तो गुस्से में थे, पूछने पर बोले, ‘6 महीना हो गया, अभी तक एमसीएम नहीं मिला.’

मुझे इसकी जानकारी थी. कई बार ऐसा हो जाता था. कभी फंड की बात, तो कभी प्रशासन की बदमाशी. वे मुझे अपने कमरे पर ले गए और बताया कि उनका मेस बिल नहीं जमा है और बाकी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए बिल्कुल पैसा नहीं रह गया है. एक चाय की भी मुश्किल हो रही है.

वे अमूमन ऐसा नहीं कहते थे. मैं एमसीएम का महत्व समझता था पर एक विद्यार्थी इस कदर उस एमसीएम पर निर्भर है, यह सोचकर मेरा गला भर आया. मैं अपने गांव जाने वाला था, सो मैंने 500 रुपये उन्हें दे दिए. उन्होंने कहा कि इसे चुका दूंगा. मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं, मैं एक बार जाकर प्रशासन में पता करता हूं कि ऐसा क्यों हो रहा है और हम कोशिश करेंगे कि एमसीएम का पैसा जल्दी ही मिल जाए.’

बात आई गई हो गई. कुछ दिन बाद घर से लौटा और किसी काम से उनके हॉस्टल के पास खड़ा था. कहीं से मुझे देखकर वे आए और बोले ‘भाई, थोड़ा, रुकिए, मैं अभी आता हूं.’ लौटकर आए और मेरी शर्ट की जेब में एक तह किया हुआ कागज रख दिया. एक हाथ से मेरी बाइक का हैंडल पकड़ा और दूसरे से मेरा हाथ दबाते हुए लरजती आवाज में कुछ बोले और चल दिए.

मैंने बाद में उस तह किए हुए कागज को खोला तो उसमें 500 रुपये का एक नोट था और लिखा था ‘शुक्रिया, मेरे भाई’. उस लिखावट का एक-एक शब्द जैसे बार-बार मुझसे कुछ कह रहा था. मैं बता नहीं सकता अपनी हालत. आज यह लिखते हुए भी गला भर आया.

इसीलिए यहां बात सिर्फ फीस या पैसे की ही नहीं है, ऐसे संबंध की भी है, जिसने दो भिन्न आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति के लोगों को एक धरातल पर खड़ा कर दिया था. जेएनयू की कम फीस ने उस आदमी की खुद्दारी को बचाए रखा. यदि फीस ज्यादा होती तो या तो वह पढ़ ही न पाता या फिर छोटे-छोटे कर्ज उसकी खुद्दारी को धीरे-धीरे मिटा देते.

जेएनयू समानता सिखाता है

आपको याद होगा कि जब अर्जुन सिंह मानव संसाधन विकास मंत्री थे, तब वे उच्च शिक्षा में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण और उसके साथ 54 प्रतिशत सीट बढ़ोतरी का प्रस्ताव लाए थे.

तब रातों-रात एक संगठन बन गया जिसका नाम था ‘यूथ फॉर इक्वॉलिटी’ जिसने जगह-जगह इसका विरोध करना शुरू कर दिया. इस संगठन के सदस्य असल में समाज से असमानता को ख़त्म नहीं होने देना चाहते थे.

तब जेएनयू के कुलपति बीबी भट्टाचार्य थे, जो कांग्रेसी थे. उन्होंने वह सारा पैसा, जो हॉस्टल बनाने और छात्रों की सुविधाओं पर खर्च करने के लिए आया था, उसे गमला लगवाने, बागबानी करवाने, रिफ्लेक्टर लगवाने और बस स्टॉप पर यह लिखवाने में खर्च कर दिया कि ‘यह बस स्टॉप है.’

(फोटो: ट्विटर/@UmarKhalidJNU)
(फोटो साभार: ट्विटर/@UmarKhalidJNU)

उन दिनों जेएनयू छात्रसंघ ने एक बड़ा आंदोलन चलाया था. हमारे आंदोलन का यह नारा खूब लोकप्रिय हुआ था कि ‘जब गमले लगवाता है, वीसी पैसा खाता है.’ कोर्ट-कचहरी के बाद जब यह तय हुआ कि यह आरक्षण और सीट बढ़ोतरी हर संस्थान में लागू होगी, तो भट्टाचार्य जी ने इसे लागू करने की प्रक्रिया के निर्माण के लिए एक ‘ऐतिहासिक आरक्षण विरोधी’ कमेटी बनाई.

एक ऐसी नीति बनाई गयी, जिससे ज्यादा अंक पाने वाला ओबीसी विद्यार्थी जेएनयू में प्रवेश नहीं पाता, जबकि उससे कम अंक पाने वाले सामान्य वर्ग के विद्यार्थी को प्रवेश मिल जाता था. हमने धरना किया, विरोध-प्रदर्शन किए, सेमिनार और पब्लिक मीटिंग की. आरटीआई के तहत जेएनयू प्रशासन से हजारों पेज निकाले और उनका विश्लेषण किया गया.

जब लगा कि यह वीसी और प्रशासन नहीं मानेगा तो मुकदमा किया, लड़े और जीते. यह सितंबर 2010 था. इस आंदोलन में कई अध्यापकों ने हमारी खूब मदद की. उनमें से अधिकांश वंचित समुदायों से आते थे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो सवर्ण थे. विश्लेषण से लेकर चंदे तक, सब जगह उन्होंने मदद की. तो ऐसा है जेएनयू और समानता की भावना.

‘वसुधैव कुटुंबकम’ के वारिस भी और जातिवाद के ‘पालक’ भी

भारतीय समाज की तथाकथित मुख्यधारा अपनी मूल संरचना में कृतघ्न और दोमुंही है. अब इसने धीरे-धीरे पूरे समाज को ही अपनी गिरफ्त में ले लिया है. हम खुद को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का वारिस भी मानते हैं और जातिवाद का ‘पालन’ भी पूरी कड़ाई से करते हैं.

हम दयालु भी बनते हैं और अपने फायदे के लिए दूसरे का गला काट देने को भी उद्धत रहते हैं. ऐसे ही हम जेएनयू का विरोध भी करते हैं, उसे गालियां भी देते हैं और अपने बच्चों, पोते-पोतियों का जेएनयू में एडमिशन हो जाने पर सीना चौड़ा करके गान भी गाते फिरते हैं.

हम मूलभूत रूप से ऐसे ही हैं और नए संवैधानिक भारत में इसे बदलने की लगातार जरूरत है. हमें ‘एक पानी पर रहना’ सीखना होगा.

(लेखक अरुणाचल प्रदेश के राजीव गांधी विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं.)