शौकत कैफ़ी: फ़क़त बहार नहीं हासिल-ए-बहार

बेपनाह प्रेम के एहसास में हर तरह के अभाव से लड़ते हुए जीवन की जद्दोजहद से कभी हौसला न हारने वाली शौकत कैफ़ी की पूरी ज़िंदगी एक इंक़लाबी किताब है. असीमित उड़ान के सपने देखने वालों के लिए वे ख़ुद एक संस्मरण हैं.

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शौकत कैफ़ी. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

बेपनाह प्रेम के एहसास में हर तरह के अभाव से लड़ते हुए जीवन की जद्दोजहद से कभी हौसला न हारने वाली शौकत कैफ़ी की पूरी ज़िंदगी एक इंक़लाबी किताब है. असीमित उड़ान के सपने देखने वालों के लिए वे ख़ुद एक संस्मरण हैं.

शौकत कैफ़ी. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)
शौकत कैफ़ी. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

हर ज़िंदगी एक किताब होती है… ये शब्द हैं उर्दू की चर्चित कथाकार सलमा सिद्दीक़ी के, हालांकि बहुत से लोगों के लिए सलमा का परिचय महज़ ये है कि वो एशिया के सबसे बड़े कहानीकार कृश्न चंदर की हमसफ़र थीं तो कुछ लोगों के लिए वो रशीद अहमद सिद्दीक़ी जैसे बड़े साहित्यकार की बेटी.

ख़ैर यहां मैंने उनका ये जुमला क्यों नक़ल किया और उनके परिचय को दो मर्दों के साथ जोड़ने की गुस्ताख़ी क्यों की, तो इसका सीधा सा जवाब ये है कि औरत कितनी भी आलिम-फ़ाज़िल हो जाए, उसका अपना परिचय कैसे हो सकता है?

पिछले दिनों भी वही हुआ कि जब शौकत कैफ़ी के निधन की ख़बर आई तो उनका परिचय शबाना आज़मी की मां से शुरू होकर कैफ़ी आज़मी की हमसफ़र पर ख़त्म हो गया, कुछ लोगों ने बाबा आज़मी का ज़िक्र भी कर दिया.

कुल मिलाकर शौकत कैफ़ी कितनी रचनात्मकता से गद्य लिखती थीं, मंच की दुनिया में उनका क्या रुतबा था, फिल्मों में उनकी अदाकारी के मायने क्या हैं, कोरस में गाने की पहल क्यों की, डबिंग से लेकर कॉस्टयूम डिज़ाइनिंग तक में उनका योगदान क्या रहा, एनाउंसर और ड्रामा के बीच में रेडियो पर उनकी वजह से क्या कुछ बदला, समाजिक सरोकार क्या थे…

बेहद साधारण लड़की के इश्क में असाधारण बगावत और बेपनाह प्रेम के एहसास में हर तरह के अभाव से लड़ते हुए जीवन की जद्दोजहद से कभी हौसला न हारने वाली शौकत की पूरी ज़िंदगी दरअसल एक इंक़लाबी किताब है- और शौकत की ज़िंदगी के ये वो पहलू हैं, जो उनको दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत मां और पत्नी होने के साथ-साथ या शायद उससे भी पहले एक ऐसी स्त्री का दर्जा देते हैं जिनके पास उनकी अपनी निधि है और असीमित उड़ान के सपने देखने वालों के लिए वो खुद एक संस्मरण हैं.

संयोग देखिए, ज़िंदगी और किताब से जुड़ा ये जुमला सलमा सिद्दीक़ी ने शौकत की जीवनी ‘याद की रहगुज़र’ को उर्दू की अच्छी, प्रमाणिक, बेशक़ीमती और सच्ची किताब क़रार देने के क्रम में लिखा था.

शौकत पर बात करते हुए यहां उनकी अपनी पहचान और परिचय की बात इसलिए ज़्यादा ज़रूरी है कि पहली बार कैफ़ी आज़मी की नज़्म ‘औरत’ को सुनकर ही शौकत ने फैसला किया था कि औरत के बारे में इस तरह सोचने वाला शख़्स ही मेरा शौहर हो सकता है.

पुराने ख़याल के किसी आदमी के साथ मेरा गुज़र नहीं हो सकता. नज़्म का एक बंद मुलाहिज़ा कीजिए-

ज़िंदगी जेहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं

उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं

उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे

जी, शौकत ये बात उस समाज में सोच रही थीं जब लड़कियों की तालीम को बुरा समझा जाता था, खुद उनके घर में सिर्फ उनके अब्बा वाहिद इंसान थे जिनकी वजह से वो पढ़ने-लिखने की कोशिश कर पा रही थीं.

ये बात भी दोहराए जाने के लायक़ है कि शौकत के अब्बा अपने भाई और पिता की मर्ज़ी के खिलाफ बेटियों को एक ऐसे मिशन स्कूल में पढ़ा रहे थे जहां लड़के भी पढ़ते थे और पर्दे को लेकर उनका हौसला ये था कि अपनी शादी के बाद सहारनपुर से हैदराबाद लौटते हुए दिल्ली में उन्होंने अपनी बीवी का नक़ाब उतरवा दिया था.

अब्बा की खुली सोच लेकिन हर तरह की पाबंदियों से जकड़े हुए समाज में शौकत स्कूल के ड्रामों में हिस्सा ले रही थीं. ‘अद्ल-ए-जहांगीर’ जैसे ड्रामे में जहांगीर की भूमिका निभा रही थीं और अपने दुपट्टों में रंग भर रही थीं.

यूं कहें कि वो जहां अपने अंदर के इंसान और आर्टिस्ट को एक दकियानूसी समाज में उस औरत के रूप तैयार कर रही थीं जिसकी अपनी निधि हो, अपना जीता-जागता वजूद हो, वहीं अपने पूरे अस्तित्व को तलाश करने वाली शौकत एक ऐसे आदमी से इश्क करने का जुर्म कर रही थीं, और बाद में उसको मिसाल बना देने की राह में कदम उठा रही थीं- जो उनकी आस्था का आदमी था ही नहीं.

ब्रिटिश इंडिया में पैदा होने वाली शौकत की अपनी सच्चाइयां हैं, लेकिन क्या ये सच नहीं कि आज भी शिया और सुन्नी का प्रेम आसान नहीं होता, जी, प्रेम कभी भी आसान नहीं होता.

मगर शौकत उस सड़ी-गली व्यवस्था में ये सब कर रही थीं जहां लड़कियों की मर्ज़ी नहीं पूछी जाती और फिर उस समाज की एक भयावह सच्चाई ये भी थी कि लड़कियां तो एक तरफ ख़ूबसूरत लड़के भी अय्याशी के लिए हरम में बिठा लिए जाते थे, देह-सत्ता का यही अनुशासन था.

अब बस अंदाज़ा लगा सकते हैं कि शौकत किस गंदगी से निकल कर ज़िंदगी के साथ हंसते-रोते कितनी दूर चल कर आईं और कहां किस मुक़ाम पर खड़ी होकर उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा. क्या उनकी बुलंदी में भी मिट्टी का अपना रंग और उसकी महक सलामत नहीं है?

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कैफ़ी आज़मी के साथ शौकत कैफ़ी. (फोटो साभार: azmikaifi.in)

जी, शौकत ने ज़िंदगी के हर रंग को जिया लेकिन उनका अपना मानना था कि उनके जीवन का सबसे गहरा रंग कैफ़ी थे. शायद ये बात सच भी है कि खुद कैफ़ी ने पढ़ने के दिनों में धर्म की तालीम से इनकार कर दिया था और तमाम उम्र एक ऐसे समाज के लिए लिखते-पढ़ते रहे और आंदोलन करते रहे जिसमें इंसान की बराबरी सबसे ऊपर थी.

बात रंग की ही हो रही है तो ये प्रसंग भी कि अपने लहू से शौकत को ख़त लिखने वाले कैफ़ी ने इश्क की शुरुआत में जुदाई के मिले-जुले एहसास के साथ उनके लिए एक नज़्म पढ़ी थी ‘तुम’, जिसमें उन्होंने कहा था;

फ़क़त बहार नहीं हासिल-ए-बहार हो तुम

इस हासिल-ए-बहार को कैफ़ी ने अपनी महबूबा और हमसफ़र के तौर पर देखा और उनके साथ अपनी अंतस पीड़ा के वो तराने लिखे जो आज भी बदलाव की हर मुहिम में गाए जाते हैं. यूं देखें तो कैफ़ी और शौकत एक दूसरे का वो रंग थे जिसको समाज की बंदिश, गरीब और भूख ने भी हल्का नहीं होने दिया.

वो इस तरह कि एक तरफ जहां शौकत के जुनून की क़दर करते हुए खुद उनके अब्बा उनको लेकर बॉम्बे गए और कैफ़ी से उनकी शादी करवा दी, वहीं शौकत ने कैफ़ी की दयनीय हालत और तंगी को देखते हुए भी अपने घर वालों से कभी मदद नहीं मांगी और वो सब कुछ किया जो एक घर को खुशहाल बनाने के लिए कोई खुद्दार आदमी कर सकता था.

और इसकी वजह से ये भी हुआ कि मंच की दुनिया से फिल्मों तक के सफ़र में शौकत ने अपनी एक अहम पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की.

ये सब होने से पहले शौकत ने अपने अब्बा से ये भी कहा था कि कैफ़ी अगर मज़दूर भी होते तब भी मैं उन्हीं से शादी करती और टोकरी सिर पर उठाकर मिट्टी ढोती. ये था उनका अटल फ़ैसला जिसको उन्होंने थिएटर, रेडियो और फिल्मों में काम करते हुए न सिर्फ साबित किया बल्कि एक ग्रामीण बहू, मां और बीवी के तौर पर भी आदर्श बना दिया.

इन सब की शुरुआत भी यूं हुई कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पीसी जोशी (पूरन चंद जोशी) ने एक बार शौकत से कहा कि कामरेड की बीवी ऐसे नहीं बैठ सकती उसको काम करना चाहिए और जब बच्चे हों, तो उनको अच्छा शहरी बनाना चाहिए.

जोशी की इन बातों ने उनको हौसला दिया और पहली बार उन्होंने कैफ़ी को बताया कि वो स्कूल के ड्रामों में हिस्सा लेती थीं, उनकी आवाज भी अच्छी है और फिर उसके बाद वही होना था कि कैफ़ी खुद उनको लेकर रेडियो स्टेशन गए जहां उनका ऑडिशन कामयाब रहा और एक नए सफ़र की शुरुआत हुई.

उसी ज़माने में शौकत ने मशहूर गीतकार प्रेम धवन से कोरस में गाने की ख्वाहिश ज़ाहिर की तो उन्होंने उन्हें एसडी बर्मन से मिलवाया और बर्मन दा ने उनकी आवाज को पास कर दिया. वो गाने लगीं और इस तरह उनको डबिंग के काम भी मिलने लगे. अब हर कदम एक नई दुनिया उनके इंतज़ार में थी.

शौकत कैफ़ी ने इप्टा के लिए भी काम किया. इप्टा में उनकी शुरुआत ऐसे हुई कि ख़्वाजा अहमद अब्बास की बीवी के कहने पर उन्होंने इस्मत चुग़ताई के ड्रामा ‘धानी बांकें’ में रोल अदा किया, जो हिंदू मुस्लिम दंगे पर आधारित था.

ये देश के विभाजन का समय था, हर तरफ दंगे का माहौल था. यूं शौकत सिर्फ अपने लिए काम नहीं कर रही थीं बल्कि उस मुल्क के भी काम कर रही थीं जहां इंसानों का लहू सस्ता हो गया था.

दिलचस्प बात ये है कि खुद भीष्म साहनी चाहते थे कि शौकत इस नाटक में रोल करे. बाद में उनके रोल को देखकर भीष्म साहनी इतने खुश हुए कि उन्होंने एक दूसरे नाटक ‘भूत गाड़ी’ में शौकत को मुख्य भूमिका दे दी. इस ड्रामे को शौकत ने पहली बार अहमदाबाद में 12 हजार लोगों के सामने पेश किया था. सालों बाद भी लोग इस नाटक को भुला नहीं पाए.

इप्टा के लिए ही विश्वा मित्र आदिल के ड्रामे ‘अफ्रीका जवान परेशान’ से इनको बेपनाह शोहरत मिली और  इप्टा के नाटकों में इनको तमाम मुख्य भूमिका दी जाने लगी. शायद ये कहने की जरूरत नहीं कि उस समय इप्टा में काम करने का मतलब जन सरोकारों की बात करना था.

यूं कहें कि उस समय के तमाम बड़े लिखने वालों और सामाजिक कार्यकताओं के साथ शौकत भी उस आंदोलन का हिस्सा थीं जो सबके भविष्य के भारत का सपना साकार करना चाहते थे. संघर्षों से भरी उनकी ज़िंदगी का एक पहलू ये भी है कि जब शबाना आज़मी बहुत छोटी थीं तब वे उनको अपनी पीठ पर लादकर पृथ्वी थिएटर में काम करने जाती थीं.

शौकत ने 1951 में पृथ्वी थिएटर इस तरह जॉइन किया था कि ज़ोहरा सहगल ने उनको इस थिएटर का एक ड्रामा ‘पठान’ दिखाया दिया. शौकत बहुत प्रभावित हुईं और फिर ज़ोहरा सहगल ने ही उनको पृथ्वीराज कपूर से मिलवाया.

हालांकि इस थिएटर में उनका कोई ओरिजनल रोल नहीं होता था लेकिन वो अंडर-स्टडी के तहत सारे रोल कर चुकी थी. उन्हीं के बकौल अंडर-स्टडी ऐसे रोल को कहा जाता है कि नाटक में वो किसी और का रोल है लेकिन अचानक जरूरत पड़ने पर किसी और से करवाया जाए.

उसी ज़माने में घर चलाने में मदद के लिए थिएटर से लौटकर वे एक लड़के को ट्यूशन भी पढ़ाती थीं, जिससे पैंतालीस रुपये मिलते थे. जी, शौकत ने उस कमरे में भी ज़िंदगी गुज़ारी जहां रहना और सांस लेना मुश्किल था. वो समय भी उनकी ज़िंदगी में आया जब हुकूमत की नज़रों से बचने के लिए कैफ़ी आज़मी को अंडरग्राउंड होना पड़ा था. लेकिन शौकत ने कहीं भी हार नहीं मानी.

ये शौकत के जीवन का वो ज़माना था जब कैफ़ी बस्तियों में जाकर काम किया करते थे, उसी ज़माने की एक मशहूर नज़्म है ‘मकान’ जिसको बाद में शाहिद लतीफ़ ने अपनी फिल्म ‘सोने की चिड़िया’ में इस्तेमाल किया था. नज़्म का एक हिस्सा मुलाहिज़ा कीजिए;

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी

सब उठो, मैं भी उठूं तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी

शौकत ने अमीन सियानी के निर्देशन में फिल्म गांधी में जिन्ना का रोल निभाने वाले रंगकर्मी और विज्ञापन के पितामह एलेक पद्मसी के ग्रुप के लिए ‘नौकरानी की तलाश’ जैसे नाटक में भी मुख्य भूमिका निभाई. एलेक पद्मसी शौकत के अभिनय के ऐसे कायल थे कि उनके बिना अपना ड्रामा तक बंद कर देते थे.

एक बार हुआ ये कि पद्मसी को अपने तीन नाटक चंडीगढ़ में करने थे और शौकत को अपने भाई-बहनों से मिलने पाकिस्तान जाना था. इसलिए उनको समझाया गया कि अभी तीन महीने हैं शौकत के रोल में किसी और को ले लेते हैं लेकिन वो नहीं माने और उन्होंने उसके बाद उर्दू-हिंदी ड्रामा खेलना ही बंद कर दिया.

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फिल्म गरम हवा के सेट पर शौकत कैफ़ी. (फोटो साभार: ट्विटर/शबाना आज़मी)

शौकत ने रेडियो में एनाउंसर के तौर पर भी काम किया. दिलचस्प बात ये है कि विविध भारती का पहला प्रोग्राम ‘मनचाहे गीत’ उन्हीं की आवाज में ब्रॉडकास्ट हुआ था. उस वक्त तक रेडियो पर गीतकार और म्यूजिक डायरेक्टर का नाम लेने का चलन नहीं था, शौकत के कहने पर ही इसकी शुरुआत हुई.

उनकी इस पहल से साहिर बहुत खुश हुए थे. कहने वाली बात ये है कि एक ऐसे ज़माने में जब पैसे की जरूरत सबसे ज़्यादा थी वो अपने काम में न सिर्फ ईमानदार थीं बल्कि अपनी रचनात्मकता से काम को बेहतर बनाने की कोशिश भी कर रही थीं.

रही बात फिल्मों की तो उन्होंने गिनती की मगर बहुत अहम फिल्में कीं, हक़ीक़त, हीर-रांझा, नैना, गर्म हवा, लोफर, धूप-छांव, आंगन की कली, रास्ते प्यार के, लोरी, बाज़ार, अंजुमन, सलाम बॉम्बे और उमराव जान जैसी फिल्में उनके नाम पर दर्ज है.

एक दिलचस्प क़िस्सा ये है कि उमराव जान में आज जिस किरदार के लिए उनको याद किया जाता है, पहले पहल शौकत उस किरदार के बजाय उमराव की मां का रोल करना चाहती थीं लेकिन सुभाषिनी अली के ये समझाने पर कि वो एक कमज़ोर और मज़लूम मां का रोल है, जो इनको सूट नहीं करता इसलिए आपको ख़ानम का रोल करना चाहिए. फिर उन्होंने ऐसा यादगार काम किया कि उसको आज तक भुलाया नहीं जा सका.

‘गर्म हवा’ देखकर ऑस्कर नामित फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ के लिए मीरा नायर खुद उनके घर चलकर आई थीं, हालांकि शुरू में उन्होंने ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. लेकिन मीरा के एक्सप्लेन करने और शबाना आज़मी के कहने पर उन्होंने न सिर्फ ये फिल्म की बल्कि अपने रोल के लिए बाक़ायदा तैयारी की.

यहां तक कि कमाठीपुरा के माहौल को जानने के लिए ऐसी कोशिश की कि शूटिंग के दौरान ही उनको ये सुनने को मिला कि, कौन कहता है कि ये शबाना की मां है. ये तो सचमुच की घर वाली (Brothel owner)है. कैसे बड़ी-बड़ी आंख करके हमें देखती है.

शौकत को उनके कई रोल के लिए याद किया जाता है लेकिन उनको अपनी कमर्शियल फिल्मों में ‘हीर-रांझा’ सबसे ज़्यादा पसंद थी. इस फिल्म की एक ख़ास बात ये भी है कि इसका कॉस्ट्यूम शौकत कैफ़ी ने खुद तैयार किया था.

दरअसल वो जहां बचपन से ही कपड़ों के अलग-अलग टुकड़ों को जोड़ती रहती थीं, दुपट्टों को नए-नए रंग से रौशन करती थीं, वहीं बॉम्बे में अपने घर की नंगी दीवारों को उन्होंने पत्थरों के टुकड़े से इस तरह सजाया था कि लोग उसकी सजावट देख कर हैरान होते थे.

क़िस्सा वही है कि शौकत ने ज़िंदगी को जीते हुए सब कुछ सीख लिया था इसलिए उनकी पैबंद लगी ज़िंदगी का भी एक ख़ास रंग हुआ करता था. थिएटर से अलग फिल्मों में उनके होने का मतलब होता था किसी किरदार के इर्दगिर्द की दुनिया का होना, उसके इतिहास का होना और सामाजिक सरोकार का होना, फिल्मों में यही उनकी निधि थी.

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शबाना आज़मी और जावेद अख्तर के साथ शौकत कैफ़ी. (फोटो साभार: इप्टा)

इस क़दर हौसले वाली मां और इंक़लाबी शायर की बेटी शबाना आज़मी उस वक्त पीसी जोशी के कहे कि ताबीर लगती हैं जब वो दिल्ली में सफ़दर हाशमी की दर्दनाक हत्या के बाद इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में स्टेज से ये कह देती हैं कि, एक तरफ तो ये सरकार फिल्म फेस्टिवल करती है और दूसरी तरफ हमारे कल्चरल एक्टिविस्ट सफ़दर हाशमी को जब सत्ताधारी पार्टी के गुंडे जान से मार देते हैं तो उसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेती.

ये और बात है कि सज़ा के तौर पर सरकारी रेडियो और टीवी पर उनका प्रोग्राम बंद कर दिया गया जिसको बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर हटाया गया.

एक ऐसी मां और आर्टिस्ट को याद करते हुए मैं कैफ़ी आज़मी की किताब ‘आख़िर-ए-शब’ के वो शब्द यहां दर्ज करना चाहता हूं जो इनको इस तरह समर्पित की गई थी कि ‘शीन के नाम… मैं तन्हा अपने फ़न को आख़िर-ए-शब तक ला चुका हूं, तुम आ जाओ तो फिर सहर हो जाए.’

और शौकत कैफ़ी का वो जुमला कि ‘अगर ज़िंदगी के इस तवील सफ़र में तुम मेरे हमसफ़र हो जाओ तो ये ज़िंदगी इस तरह गुज़र जाए जैसे फूलों पर से नसीम-ए-सहर का लतीफ़ झोंका.’

हां, ये और बात है कि यहां ज़िंदगी वो गुज़ारी गई जो किसी से गुज़ारी न जा सके…