मध्य प्रदेश सरकार राज्य में विधान परिषद बनाना चाहती है, जिसके लिए उसका तर्क है कि इससे चुनावी राजनीति से दूर रहने वाले विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों को प्रतिनिधित्व मिलेगा. वहीं विपक्षी भाजपा सहित एक तबका इसे जनता के पैसे की फ़िज़ूलख़र्ची और पार्टी के असंतुष्ट नेताओं को स्थापित करने का हथकंडा बता रहा है.
‘प्रदेश में विधान परिषद का गठन किया जाएगा. विधान परिषद के गठन उपरांत ऐसे वर्ग जिनका प्रतिनिधित्व विधानसभा में नहीं है, उनको विधान परिषद में अवसर दिया जाएगा.’
उक्त पंक्तियां मध्य प्रदेश में कांग्रेस द्वारा विधानसभा चुनावों से पहले जारी किए गए वचन-पत्र (चुनावी घोषणा-पत्र) के 38.1 बिंदु में दर्ज हैं. इन पंक्तियों का अर्थ है कि देश की संसदीय व्यवस्था की तर्ज पर मध्य प्रदेश में भी द्विसदनीय व्यवस्था का निर्माण.
जिस तरह केंद्रीय व्यवस्था में लोकसभा निचले और राज्यसभा उच्च सदन के तौर पर काम करती है, मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार भी विधान परिषद के तौर पर उच्च सदन के निर्माण की इच्छुक है. सरकार बनने के करीब साल भर बाद कमलनाथ सरकार ने इस वचन को पूरा करने की ओर कदम बढ़ाए हैं.
इसी सिलसिले में पिछले दिनों राज्य के संसदीय कार्य विभाग ने राज्य के मुख्य सचिव सुधिरंजन मोहंती की अध्यक्षता में सभी विभागों के आला अफसरों की बैठक बुलाई थी, जहां विधान परिषद के गठन की रूप रेखा तय करने, व्यय का अनुमान लगाने, गठन की संवैधानिक प्रकिया और उसमें आने वाली अड़चनों पर चर्चा हुई.
परिषद के गठन का प्रस्ताव आगे की प्रक्रिया के लिए 17 दिसंबर से शुरू हो रहे विधानसभा के शीतकालीन सत्र में रखा जा सकता है. जहां संविधान के अनुच्छेद 169 (1) के तहत इसे विधानसभा से बहुमत में या फिर उपस्थित सदस्य संख्या के एक तिहाई मत से पास कराना अनिवार्य होगा. इसके बाद इसे आगे की कार्रवाई के लिए केंद्र को भेजा जाएगा.
हालांकि, जब कांग्रेस द्वारा वचन-पत्र जारी किया गया था, तब किसी ने इस बिंदु पर चर्चा नहीं की थी. लेकिन अब इसके पक्ष-विपक्ष में तर्कों का बाजार गर्म है. राज्य में विपक्षी भाजपा सहित एक तबका इसे जनता के पैसे की फिजूलखर्ची और लूप लाइन में पड़े पार्टी के असंतुष्ट नेताओं को स्थापित करने का हथकंडा करार दे रहा है.
जबकि कांग्रेस का तर्क है कि इससे समाज के विभिन्न तबकों में मौजूद ऐसे विषय विशेषज्ञों को सरकार में प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलेगा जो कि चुनावी राजनीति से दूर रहते हैं. साथ ही, जनता से जुड़े मुद्दों पर अच्छी बहस हो सकेगी.
भाजपा की प्रदेश इकाई के प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल कहते हैं, ‘सरकार कहती है कि सरकारी खजाना खाली है. इसलिए किसानों के कर्ज माफ करने और बाढ़ पीड़ित किसानों को मुआवजा देने के लिए पैसा नहीं है, बेरोजगारी भत्ता देने के लिए पैसा नही है, कन्यादान की राशि देने के लिए पैसा नहीं है. मुख्यमंत्री कहते हैं कि प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए राज्य का अंशदान देने में सक्षम नहीं हैं. जब बेघर को, गरीब और संकट में खड़े किसान को संबल देने के लिए पैसा नहीं है, फिर विधान परिषद के गठन के लिए पैसा कैसे निकल आया? ऐसी कौन-सी जरूरत आन पड़ी कि इस पर सालाना करोड़ों रुपये खर्च करने जा रहे हैं?’
इसके बचाव में प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना कहते हैं, ‘खजाना खाली होने की बात करना ठीक नहीं होगा. यह एक रचनात्मक कार्य (Constructive Work) है. इसके लिए अलग से कोई इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा नहीं करना पड़ेगा. पहले से ही विधानसभा अच्छी है, सिटिंग अरेंजमेंट हैं, हॉल हैं, दूसरी चीजें हैं, कार्यालय हैं, इसलिए सिवाय वेतन वगैरह के बहुत ज्यादा खर्च नहीं आएगा.’
बता दें कि राज्य सरकार वर्तमान में करीब दो लाख करोड़ रुपये कर्ज़ के बोझ तले दबी है. सरकार गठन के 11 महीनों में वह बाजार से अब तक 13,600 करोड़ रुपये कर्ज़ के तौर पर उठा चुकी है.
मुख्यमंत्री कमलनाथ विभिन्न मंचों से बार-बार सरकारी खजाना खाली होने की बात कहते आए हैं. यही कारण है कि जनता से जुड़ी विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए पैसे का बंदोबस्त करने से भी सरकार हाथ खड़े करती नजर आ रही है. पेट्रोल-डीजल जैसी जरूरत की चीजों पर टैक्स बढ़ा रही है.
आलम यह है कि जिस किसान कर्ज़ माफी के वादे पर कांग्रेस ने 15 सालों बाद सत्ता में वापसी की थी, सरकार गठन के दस दिनों में होने वाली कर्ज़ माफी का वही वादा सरकार साल भर बाद भी पूरा नहीं कर पाई है.
इसलिए अगर विधान परिषद पर होने वाले खर्च की बात करें तो संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार एक राज्य की विधान परिषद में सदस्यों की संख्या न्यूनतम 40, तो अधिकतम राज्य की विधानसभा के एक-तिहाई सदस्य संख्या जितनी हो सकती है.
यानी मध्य प्रदेश की विधानसभा 230 सदस्यीय है. इस लिहाज से विधान परिषद के सदस्यों की संख्या अधिकतम 76 हो सकती है. खबरों के मुताबिक, कमलनाथ सरकार 76 सदस्यीय विधान परिषद बनाने की ही इच्छुक है.
वर्तमान में विधानसभा के 230 सदस्यों और अधिकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्तों, यात्रा व्यय और कार्यालयीन व्ययों पर सालाना कुल 40.20 करोड़ रुपये की राशि खर्च होती है. इसलिए 76 सदस्यों का खर्च करीब 13 करोड़ रुपये बैठने का अनुमान है.
लेकिन यह कई गुना बढ़ जाएगा क्योंकि इसके अतिरिक्त परिषद में तैनात किए जाने वाले सैकड़ों अधिकारी-कर्मचारियों के वेतन-भत्ते, यात्रा व्यय, कार्यालयीन व्यय और पूंजीगत व्ययों (जैसे- फर्नीचर, कम्प्यूटर, फोन, वाहन आदि) पर भी राशि खर्च होना है.
इसके अतिरिक्त उपरोक्त सभी के लिए सरकारी आवास की व्यवस्था भी करनी होगी. परिषद का अलग से सचिवालय भी बनेगा, वहां भी स्टाफ की नियुक्ति होगी.
भोपाल में रहने वाले प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘इंफ्रास्ट्रक्चर पर बहुत ज्यादा खर्च नहीं होगा. जो प्रदेश की विधानसभा है, वहां विधान परिषद लगाने के लिए भी पर्याप्त जगह है. लेकिन, जो रिकरिंग (बारम्बार होने वाला) खर्च है वो करीब 60-70 करोड़ रुपये होगा, जो गैर जरूरी है.’
प्रथम दृष्टया 60-70 करोड़ रुपये सालाना की राशि छोटी लग सकती है. लेकिन अगर इसे इस लिहाज से देखें कि दो लाख रुपये तक की किसान कर्ज़ माफी करने का वादा करने वाली कांग्रेस अब तक केवल उन किसानों का कर्ज़ माफ कर पाई है, जिन पर 50 हजार रुपये तक का कर्ज़ था.
इसके ऊपर की राशि वालों की कर्ज़ माफी की प्रक्रिया खाली-खजाने का हवाला देकर फिलहाल रोक दी गई है. इस 60-70 करोड़ की राशि में 60-70 हजार रुपये कर्ज़ वाले दस हजार किसानों का कर्ज़ माफ किया जा सकता है.
विधान परिषद की जरूरत वाली बात पर रवि सक्सेना कहते हैं, ‘समाज के ऐसे लोग जो बुद्धिजीवी वर्ग से आते हैं, क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञ हैं और उसमें उपलब्धियां हासिल किए हुए हैं, पर वो चुनाव की राजनीति में भाग लेकर विधानसभा में नहीं पहुंच सकते हैं. हमें जनता के लिए रीति-नीतियां बनाने और प्रदेश के विकास की दशा और दिशा तय करने के लिए उनकी विशेषज्ञता, उनके सुझावों और मार्गदर्शन की जरूरत होती है. ऐसा विधान परिषद के जरिए संभव है. इसलिए तो संविधान में भी इसका प्रावधान किया गया था.’
साथ ही वे कहते हैं, ‘प्रदेश अब तक कामचलाऊ तरीके से चला है. वह हमेशा देश में 15वें-20वें स्थान के आसपास रहा है. टॉप 5 राज्यों में कभी नहीं आया जबकि यहां काफी संसाधन हैं. कारण बस यही है कि इस तरह के सही प्रयास नहीं हुए.’
हालांकि रजनीश मानते हैं, ‘यह केवल सरकार को बचाए रखने के लिए अपने असंतुष्ट और चुनाव हारे हुए नेताओं को विधान परिषद में एडजस्ट करके संतुष्ट करने का तरीका है.’
इस बात से राकेश भी इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ‘कमलनाथ सरकार को इसकी जरूरत इसलिए लग रही है क्योंकि एक तरीके से बहुत ही कमजोर बहुमत के हालात हैं. जिन असंतुष्ट लोगों को एडजस्ट करना हैं, उन्हें यहां रखा जा सकता है. लेकिन वास्तविकता तो यह है कि विधायी व्यवस्था में विधान परिषद की बहुत सीमित जरूरत और भूमिका है. इसलिए इसकी कोई खास जरूरत नहीं है.’
साथ ही वे कहते हैं, ‘समाज के विभिन्न तबकों, विशेषज्ञों और तकनीकज्ञों की सेवा अभी भी ले सकते हैं, जरूरी नहीं कि इसके लिए विधान परिषद ही हो. आप कोई कमेटी बना दो, उन्हें उसका चेयरमैन बना दो, उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा दे दो. लेकिन आपकी ऐसी मंशा है ही नहीं.’
इसलिए प्रश्न उठता है कि क्या वाकई राज्य सरकार विधान परिषद के माध्यम से राज्य के नीति निर्धारण में समाज के विभिन्न तबकों और विभिन्न क्षेत्र के विशेषज्ञों को शामिल करना चाहती है? इन्हें कुछ उदाहरणों से समझते हैं.
आरटीआई एक्टिविस्ट अजय दुबे दो दशक से वाइल्ड लाइफ पर काम कर रहे हैं, साथ ही सरकारी नीतियों की कमियां उजागर करते रहे हैं. पिछले दिनों प्रदेश सरकार ने वाइल्ड लाइफ बोर्ड का गठन किया था.
खास बात यह थी कि विधान परिषद के जरिए समाज के विभिन्न तबकों और विशेषज्ञों को सरकार में शामिल करने की वकालत करने वाली कांग्रेस ने उसमें नियमानुसार दो गैर सरकारी आदिवासियों तक को नियुक्ति नहीं दी.
यहां तक कि अजय दुबे ने बोर्ड गठन को अवैधानिक ठहराते हुए मुख्यमंत्री को पत्र भी लिखा था जिसमें यह तक सामने आया कि सरकार ने नियमानुसार वन्य प्राणी संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं तक को नियुक्त नहीं दी. बल्कि राजनीतिक नियुक्तियां कर दी गईं. यहां तक कि अधिकांश सदस्यों के प्रदेश के बाहर का होने की बात भी सामने आई.
इसी तरह पिछले दिनों भोपाल में दो दिवसीय ‘राइट टू हेल्थ कॉन्क्लेव’ का आयोजन किया था. सरकार का दावा था कि विशेषज्ञों के साथ बैठकर वह प्रदेश को ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ देना चाहती है. लेकिन इस पर भी विवाद रहा, क्योंकि सरकार ने प्रदेश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों तक को उस चर्चा में शामिल नहीं किया.
भोपाल के सचिन जैन सामाजिक कार्यकर्ता हैं और करीब दो दशक से बाल स्वास्थ्य, बाल अधिकार, महिला स्वास्थ्य, जन स्वास्थ्य और ग्रामीण जीवन के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं.
वे कहते हैं, ‘सवाल ही नहीं उठता कि वे विधान परिषद मे विशेषज्ञों की बात सुनना चाहते हैं. उदाहरण के लिए बाल अधिकार आयोग को लेकर कानून कहता है कि उसमें बाल अधिकार विशेषज्ञों को रखना है जिनका बच्चों के अधिकारों पर काम हो. लेकिन नियुक्तियां होती हैं राजनीतिक. यही आदिवासी आयोग और महिला आयोग के मामले में होता है. आप कहते तो विभिन्न तबकों और विषय विशेषज्ञों को सरकारी प्रक्रिया में शामिल करने की बात हैं, लेकिन सच यह है कि इन आयोगों या समितियों में ही विशेषज्ञों को नहीं लेते. केवल राजनीतिक पहचान वाले लोगों को सैटल करते हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘बाल अधिकार आयोग की जो नियुक्तियां देखेंगे तो बाल अधिकार पर काम करने वाले ही वहां नहीं दिखेंगे. जब मौजूदा संवैधानिक संस्थाओं में आप ठीक से लोग नहीं रख रहे, तो विधान परिषद में क्या रखेंगे?’
इस संबंध में एक और माकूल उदाहरण कम्प्यूटर बाबा का है. राज्य सरकार ने उन्हें नदी न्यास समिति का अध्यक्ष बनाकर राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया है. उन्हें नर्मदा संरक्षण और अवैध खनन रोकथाम की जिम्मेदारी सौंप दी है. जबकि वे इनमें से किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञता नहीं रखते हैं.
शुद्ध तौर पर उनकी नियुक्ति राजनीतिक रही थी. जबकि इस पद पर किसी जानकार को रखा जा सकता था. गौरतलब है कि प्रदेश कांग्रेस में ऐसे कई बड़े नामों की भरमार है जो राज्य में सरकार आने के बावजूद बिना किसी पद के निष्क्रिय बैठे हैं.
वे या तो पिछले चुनावों में हार गये थे या उन्हें टिकट नहीं मिला था या फिर कांग्रेस के लिए पर्दे के पीछे से काम तो किया लेकिन उसका इनाम अब तक नहीं मिला है. इनमें पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव और सुरेश पचौरी, प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत और सुरेंद्र चौधरी, मीनाक्षी नटराजन जैसे अनेक ऐसे बड़े नाम हैं, जो विधानसभा और लोकसभा चुनावों में हार गए.
वहीं, कांग्रेस के उप नेता प्रतिपक्ष रहे चौधरी राकेश सिंह भी पिछले दिनों भाजपा छोड़कर कांग्रेस में वापस आ गए हैं. इसी तरह विधानसभा चुनावों में झाबुआ सीट पर बगावत करने वाले पार्टी के पूर्व विधायक जेवियर मेढ़ा भी वापस लौट आए हैं.
पार्टी ने वादानुसार उन्हें झाबुआ उपचुनाव में टिकट नहीं दिया, फिर भी उन्होंने पार्टी उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया का साथ दिया, इसलिए उन्हें भी स्थापित किया जाना बाकी है. व्यापमं व्हिसल ब्लोअर पूर्व विधायक पारस सकलेचा (जो कांग्रेस के सदस्य हैं) और आनंद राय भी कांग्रेस से असंतुष्ट चल रहे हैं.
दोनों ही विधानसभा चुनावों में टिकट चाहते थे, लेकिन पार्टी वादा करके अंत समय में मुकर गई. इसलिए वे लगातार पार्टी के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं. ऐसे ही और भी कई नाम हैं जिनकी नाराजगी दूर करने के लिए पार्टी उन्हें स्थापित करना चाहती है.
इसके साथ ही मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए मंत्रिमंडल विस्तार के भी और विकल्प मिल जाएंगे. अभी कमलनाथ सरकार में 29 मंत्री हैं, जबकि स्वीकृत संख्या कुल सदस्यों का अधिकतम 15 प्रतिशत यानी 34 है. विधान परिषद गठन के बाद कमलनाथ सरकार 45 मंत्री बना सकेगी.
राजनेताओं के पुनर्वास की बात पर रवि कहते हैं, ‘मैं इसके विरोध में हूं कि हारे हुए नेताओं का परिषद में पुनर्वास हो. यहां वही लोग आएं जो कि क्षेत्र विशेष के जानकार हों. वहीं, जो किसी पार्टी में भी हैं और उस पार्टी के थिंक टैंक हैं लेकिन चुनावी राजनीति नहीं कर सकते, ऐसे लोगों को उसमें अवसर मिलेगा.’
राजनीतिक विशेषज्ञ गिरिजा शंकर की राय है कि परिषद का गठन हो. वे कहते हैं, ‘आर्थिक आधार पर देखें तो विधान परिषद की जरूरत नहीं है. लेकिन लोकतांत्रिक आधार पर यह जरूरी है. लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया अपने आप में खर्चीले हैं तो क्या इस आधार पर संस्थाओं को खत्म कर देना चाहिए? कई बार सवाल उठता है कि राज्यपाल का पद केवल शोभा बढ़ाता है, उस पर इतना खर्च होता है. लेकिन यह सब लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंग हैं. लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग किसी संस्थान को केवल इसलिए नहीं नकारा जा सकता क्योंकि वह खर्चीला है या उसकी आवश्यकता नहीं है. इस तरह तो राज्यपाल या सरकारों की भी आवश्यकता नहीं है. कोशिश यह होनी चाहिए कि सरकार चलाने का खर्च कम किया जाए, संस्थाओं को न नकारा जाए.’
वे आगे कहते हैं, ‘बात सही है कि विधान परिषद और राज्यसभा लूप लाइन में पड़े नेताओं को एडजस्ट करने का जरिया बन गई हैं. हमें इस व्यवस्था को सुधारना चाहिए. राज्यपाल राजनीतिक लोगों को न बनाकर संवैधानिक लोगों को बनाएं. विधान परिषद में राजनीतिक पुनर्वास न हो, योग्य लोग आएं. लेकिन यह तो नेगेटिव अप्रोच होगी कि संस्थाएं ही मत बनाओ.’
बहरहाल, प्रदेश में विधान परिषद के गठन का यह कोई पहला प्रयास नहीं है. वर्ष राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 की धारा 33 (1) और सातवें संविधान संशोधन की धारा 8 (2) में मध्य प्रदेश के लिए विधान परिषद की व्यवस्था की गई थी, जिसके बाद विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराना आवश्यक नहीं रहा था.
इसी कड़ी में 1966 में प्रदेश की तत्कालीन डीपी मिश्रा सरकार की कैबिनेट ने विधान परिषद के गठन का फैसला केंद्र सरकार को भेजा. 15 अगस्त 1967 से विधान परिषद बनने थी लेकिन 11 अगस्त को ही राज्य सरकार ने अपनी कमजोर वित्तीय हालातों का हवाला देकर कदम पीछे खींच लिए थे.
दूसरा प्रयास नब्बे के दशक में दिग्विजय सिंह सरकार ने किया और इसे पार्टी के घोषणा-पत्र में जगह भी दी, लेकिन प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका. इस बार भी विधान परिषद का गठन कमलनाथ सरकार के लिए आसान नहीं है.
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप बताते हैं, ‘विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके केंद्र को भेजा जाएगा. विधानसभा के अनुरोध पर केंद्र सरकार को विचार करना होगा और विधेयक संसद में लाना होगा. क्योंकि यहां संविधान संशोधन की जरूरत पड़ेगी और यह सिर्फ उचित सदन में ही किया जा सकता है. अब अगर केंद्र नहीं चाहता कि परिषद का गठन हो, तो प्रस्ताव को पेंडिंग में डाल सकता है, वह सीधा मना नहीं करेगा. पहले भी ऐसे उदाहरण हुए हैं जहां कि राज्य विधानसभा ने सिफारिश की, लेकिन केंद्र ने उस पर गौर नहीं किया क्योंकि केंद्र पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वह राज्य विधानसभा की सिफारिश माने ही.’
विधान परिषद के गठन और उस पर होने वाले व्यय की संपूर्ण जानकारी के लिए राज्य के ससंदीय कार्य मंत्री डॉ. गोविंद सिंह से संपर्क किया गया, लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)