चुनावी सरगर्मी के दौरान लगातार मुज़फ़्फ़रनगर दंगों की बात होती रही पर क्यों किसी भी राजनीतिक दल ने दंगों में बलात्कार की शिकार इन महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए आवाज़ नहीं उठाई?

फोटो: एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
चुनावी वादों में फ्री घी से लेकर लैपटॉप और डाटा देने के वादे लगातार किए गए पर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कोई बात नहीं हुई. आलम यह है कि 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर दंगों की 6 बलात्कार पीड़ित महिलाएं अब भी न्याय के इंतज़ार में हैं.
सितंबर 2013 में जाट समुदाय की एक महापंचायत के बाद झड़प के रूप में शुरू हुई हिंसा बड़े सांप्रदायिक दंगे में बदल गई. 60 से ज्यादा लोग मारे गए, हज़ारों बेघर होकर शरणार्थी कैम्पों में पहुंचे.
हालात काबू में आने के बाद इस हिंसा के शिकार हुए लोगों की आपबीती सामने आई.
आखिरकार काफी हिम्मत जुटाने के बाद 7 महिलाएं सामने आईं, जिन्होंने स्वीकार किया कि इन दंगों के दौरान उनके साथ लोगों ने बलात्कार किया था. राज्य सरकार ने मामले की जांच के लिए आनन-फानन ने एक विशेष टीम का गठन किया और न्याय दिलाने का भरोसा दिलाया. पर आज इस घटना के साढ़े तीन साल बाद भी महिलाएं न्याय की आस में भटक रही हैं. सात में से एक पीड़िता की प्रसव के दौरान मौत हो चुकी है.
देश में सांप्रदायिक दंगों के दौरान लिंग आधारित हिंसा का एक बड़ा इतिहास रहा है और हमेशा ही यह देखा गया है कि दोषियों को सजा दिलाने में हमारी व्यवस्था नाकाम साबित हुई है. किसी भी सांप्रदायिक दंगे में बलात्कार या यौन हिंसा को दूसरे पक्ष पर हावी होने के आसान हथियार के रूप में देखा जाता है.
मानवाधिकार मामलों के लिए वर्षों से काम कर रही वकील वृंदा ग्रोवर बताती हैं, ‘महिलाओं को (ऐसी हिंसा का) लक्ष्य बनाने के पीछे वृहद स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय को अपमानित करने और उन पर अत्याचार करने की भावना होती है.’
गौरतलब है कि मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में बलात्कार का शिकार हुई ये सातों महिलाएं मुस्लिम समुदाय से हैं .
प्रदेश सरकार ने महिलाओं को न्याय की जांच का भरोसा तो दिलाया था पर वो इसमें पूरी तरह से असफल रही है. पहले प्राथमिकी और चार्जशीट दर्ज करने में देरी हुई, फिर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में. धमकियों से डरकर महिलाओं ने अपने बयान बदल लिए. अपराध होने बाद भी वे आज तक उस अपराध का दंश झेल रही हैं. इन महिलाओं को यकीन नहीं है कि उन्हें कभी इंसाफ मिल पाएगा.
मानवाधिकारों के लिए काम कर रही संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने एक शोध के अंतर्गत जुलाई 2016 और जनवरी 2017 में इन पीड़ित महिलाओं से मुलाकात की. हैरानी वाली बात यह थी कि इनमें से कईयों को यह पता ही नहीं था कि उनके केस की मौजूदा स्थिति क्या है. कईयों की गवाही दर्ज नहीं हुई है, कहीं सुनवाई अभी जारी है तो एक मामले में तो आरोपी को दोषमुक्त करार दे दिया गया. भारत में कानूनी सुनवाई में देर होना आम बात हो चुकी है पर 2013 में कई कानूनों में संशोधन के बाद न्याय की उम्मीद बनी थी.
सितंबर 2013 में 42 वर्षीय फातिमा के साथ फुगाना स्थित उनके घर में 4 लोगों ने बलात्कार किया था. अगस्त 2014 में पुलिस के चार्जशीट फाइल करने के बाद आरोपियों ने दूसरे गांववालों के ज़रिये संदेश भिजवाया कि अगर उसने अभियोग वापस नहीं लिया तो वे उसके परिवार को मार डालेंगे.
जनवरी में फातिमा ने बताया कि उन्हें और उनके परिवार को धमकियां मिल रही हैं क्योंकि आरोपी खुलेआम घूम रहे हैं. फातिमा कहती हैं, ‘दूसरे लोगों को भेजते हैं वो हमारे पास, कहते हैं पैसा लेकर समझौता कर लो. हम उनकी बात नहीं मानते.’

फोटो: एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
फातिमा के साथ उनके घर में बलात्कार किया गया था. बलात्कारियों में से एक के गन्ने के खेत में उनकी सास काम किया करती थीं, उनमें से एक उनके घर दूध देने आया करता था. इन सब के बीच सबसे दर्दनाक यह है कि जब उनके साथ यह सब हुआ तब उनके बेटी वहां मौजूद थी. आज उनकी बेटी सात साल की है.
फातिमा बताती हैं, ‘उसे आज भी सब अच्छी तरह से याद है,’ फातिमा अब कंबल सिलकर घर चलाने में मदद करती हैं.
एक और पीड़िता गज़ाला को भी डरा-धमकाकर मुकदमा वापस लेने का दबाव बनाया. गज़ाला के साथ भी सितंबर 2013 में सामूहिक बलात्कार किया गया था. उनके घर को लूट लिया गया, जिसके बाद उनका परिवार राहत शिविर में रहने लगा. मामले की एफआईआर फरवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट में मामला उठाए जाने के बाद दर्ज की गई. अक्टूबर में पुलिस द्वारा चार्जशीट फाइल की गई. गज़ाला ने लगातार शिकायत की कि उनके परिवार पर दबंग समुदाय द्वारा मुकदमा वापस लेने का दबाव बनाया जा रहा है. उन्होंने अपने केस को मुज़फ़्फ़रनगर से ट्रांसफर करवाने की भी अर्ज़ी दी थी.
अर्ज़ी में उन्होंने कहा था, ‘मैं मुज़फ़्फ़रनगर जिला अदालत में आने से अत्यंत भयभीत हूं, आरोपी और उसके घर वाले दबंग समुदाय से आते हैं, उनका इस क्षेत्र में दबदबा है. मुझे डर है कि मैं अदालत में गई तो मुझे और मेरे परिवार को नुकसान पहुंचाया जाएगा.’
पीड़िताओं की सुरक्षा के मामले पर मुज़फ़्फ़रनगर की सामाजिक कार्यकर्ता रेहाना अदीब ने बताया कि पीड़िताओं के लिए व्यक्तिगत सुरक्षा सबसे बड़ी चुनौती है. वे बताती हैं, ‘इन महिलाओं की सुरक्षा, उनके बयान, उनका कोर्ट जाना, उनके पतियों की सुरक्षा- सब कुछ एक चुनौती है. साथ ही जिन परिस्थितियों में वे रहती हैं, वह भी. भले ही उन्हें दूसरे गांव में जगह दी गई हो लेकिन वे अब भी उस ही समाज में हैं, पुलिस भी वही है, वही राजनेता.’
50 साल की बानो ने तो आरोपियों के डर से अपना बयान ही बदल लिया था. बानो के साथ भी सितंबर 2013 में सामूहिक बलात्कार किया गया था. उन्हें आरोपी ने खुलेआम धमकाते हुए कहा था कि जिसने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया है वह उसे नहीं छोड़ेगा. उसके डर से दिसंबर 2013 में बानो ने अपना बयान बदल लिया. हालांकि बाद में उन्होंने फिर से मामला दर्ज करवाया पर आरोप तय नहीं हुए हैं.
वे बताती हैं, ‘मैं डरी हुई थी इसलिए मैंने अपना बयान बदल दिया और कहा कुछ नहीं हुआ, किसी को कुछ नहीं कहा पर जब मेरे पति और दूसरों को पता चला तो उन्होंने मुझे सच्चाई के साथ खड़े रहने का हौंसला दिया.’
यह पूछने पर कि क्या अब भी धमकियां मिल रही हैं, उन्होंने कहा, ‘मेरे मामले की तो सुनवाई ही अब तक शुरू नहीं हुई है. अब किस वजह से वे मुझे धमकी देंगे. तीन साल से ज्यादा बीत चुके हैं, वे खुलेआम घूम रहे हैं.’
दिलनाज़ की कहानी भी कुछ ऐसी है. उसने धमकियां मिलने के बाद बयान बदल लिया और 4 आरोपियों को मामले से बरी कर दिया गया. उस समय इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए उसके पति ने कहा था, ‘फुगाना और बुढ़ाना पुलिस थानों में कई बार शिकायत दर्ज कराने के बावजूद कोई हमारी मदद करने नहीं आया. आरोपियों की ओर से लोग हम तक पहुंचे और बुरे नतीजे भुगतने की धमकी दी. हम गरीब परिवार से हैं, यदि मुझे कुछ हो जाता तो कोई मेरे परिवार की देखभाल करने वाला नहीं है. हमने वही किया जो हमें सही लगा.’
एमनेस्टी के लोग जब दिलनाज़ से मिले तो उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. जनवरी में उनसे मिलने गए शोधकर्ताओं को बताया कि उनके पति को पैसों का लालच भी दिया गया था पर उन्होंने कोई पैसे नहीं लिए.
एक पीड़िता ईशा की अगस्त महीने में प्रसव के दौरान मौत हो गई. तब तक उसकी गवाही भी दर्ज नहीं हुई थी. जुलाई 2016 में एमनेस्टी इंटरनेशनल से बात करते हुए उन्होंने कहा था, ‘अगर इसके लिए जो ज़िम्मेदार हैं उन्हें सज़ा मिल जाए हमारे मन को खुशी मिलेगी.’
धमकियों के चलते चमन ने भी अपना बयान बदला था. 50 साल की चमन लोगों के कपडे़ सिलकर अपना घर चलाया करती थीं. बलात्कार का मामला दर्ज करवाने के बाद उनके परिवार को भी धमकियां मिलने लगीं और उन्होंने भी अपना बयान बदला. बार-बार शिकायत करने के बाद सुरक्षा के लिए उन्हें एक कांस्टेबल मुहैया करवाया गया पर उसके खाने-रहने आदि की ज़िम्मेदारी उनके परिवार को ही उठानी पड़ती है.

मुज़फ़्फ़रनगर स्थित शरणार्थी कैंप. फोटो: आसिफ खान
आरज़ू का भी क़िस्सा ऐसा ही है. मामले में उनकी गवाही अब तक नहीं दर्ज़ हुई है. आरज़ू बेवा हैं और काफी गरीब परिवार से आती हैं. दंगों के बाद उन्हें फुगाना में अपना घर औने-पौने दामों पर बेचकर दूसरी जगह बसना पड़ा. मवेशी भी खो गए, अब बड़ी मुश्किल से छोटे-मोटे काम करके वो घर चलाती हैं.
वे कहती हैं, ‘सरकार को हमारी थोड़ी मदद करनी चाहिए. अगर मेरे पास पैसे ही नहीं हैं तो मैं कोर्ट कैसे जाउंगी.’
वृंदा ग्रोवर इन पीड़िताओं को संबल देने के बारे में बताते हुए कहती हैं,‘हम कह रहे हैं कि हां, तुम्हें अदालत में सुनवाई के दौरान खड़े होना है, साक्ष्य देने होंगे. तुम्हारी गरिमा निश्चय ही दोषमुक्त होगी लेकिन उसके लिए उसे क्या करना चाहिए. क्या उसे अपने परिवार, अपने बच्चे की जान खतरे में डाल देनी चाहिए… राजकीय तंत्र में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन घातक तरीकों से भुक्तभोगी को सुरक्षा दिलाए, जिसमें एक महिला अदालत विरोधी बन जाती हैं.’
अब जबकि चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है तब भी इन महिलाओं की त्रासदी पर किसी का ध्यान नहीं है. न सत्ता पक्ष को इनकी फ़िक्र है न किसी अन्य पार्टी को. ऐसे में केवल ये उम्मीद ही की जा सकती है कि शायद ध्रुवीकरण के शोर और वोटों की बंदरबांट के बीच इन पर किसी का ध्यान जाएगा.
(सभी पीड़िताओं के नाम बदल दिए गए हैं)
(एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की रिसर्च के इनपुट के आधार पर)
Categories: राजनीति