जेएनयू और डीयू के कुलपति अपने विश्वविद्यालयों की जड़ खोदने में क्यों लगे हैं?

देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय को कुछ हद तक स्वायत्तता प्राप्त है. स्वायत्तता के नाम पर यहां के कुलपतियों को असीमित अधिकार मिल जाते हैं. इन अधिकारों का उपयोग कर वे विश्वविद्यालय को बेहतर बनाने के बजाय उसे बर्बाद करने में लगे रहते हैं.

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New Delhi: JNU students during their march from the University campus to Rashtrapati Bhavan to 'save public education', in New Delhi, Monday, Dec. 9, 2019. (PTI Photo/Kamal Singh) (PTI12_9_2019_000282B)

देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय को कुछ हद तक स्वायत्तता प्राप्त है. स्वायत्तता के नाम पर यहां के कुलपतियों को असीमित अधिकार मिल जाते हैं. इन अधिकारों का उपयोग कर वे विश्वविद्यालय को बेहतर बनाने के बजाय उसे बर्बाद करने में लगे रहते हैं.

New Delhi: All India Students Association (AISA) members protest against JNU fee hike, in New Delhi, Friday, Nov. 29, 2019. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_29_2019_000121B)
जेएनयू में फीस वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन करते ऑफ इंडिया स्टूडेट्स यूनियन (आइसा) के सदस्य. (फोटो: पीटीआई)

राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में स्थित देश के दो सबसे बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय लगभग एक महीने से आंदोलन का मैदान बने हुए हैं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र अप्रत्याशित फीस वृद्धि के खिलाफ इस तरह से आंदोलित हैं कि पूरी शैक्षणिक गतिविधियां ठप हैं.

दूसरी तरफ दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के शिक्षक भी विभिन्न मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों की हड़ताल के कारण कॉलेजों में परीक्षक का कार्य गैर शिक्षक कर्मचारी कर रहे हैं.

कहा भी जाता है कि जेएनयू के छात्र और डीयू के शिक्षक आंदोलनधर्मी होते हैं. फिलहाल दोनों सड़क पर हैं और पुलिस की लाठियों का सामना ‘हम लड़ेंगे हम जीतेंगे’ के नारों से कर रहे हैं.

विडंबना यह है कि दोनों विश्वविद्यालयों के छात्र और शिक्षक अपने-अपने कुलपतियों के खिलाफ सड़क पर हैं और उससे भी अधिक विडंबना यह है कि इन कुलपतियों ने संवाद के द्वारा आंदोलन को समाप्त करने की दिशा में कोई पहल नहीं की.

वे पुलिस के माध्यम से आंदोलन को दबाने का प्रयास कर रहे हैं. दोनों विश्वविद्यालयों में आंदोलन के मूल कारणों पर भी चर्चा कम हो रही है. दरअसल शिक्षा और समाज की समस्याओं को अलग-अलग कर देखने की प्रवृत्ति रही है इसलिए भी जब छात्र-शिक्षक आंदोलन करते हैं तब उन्हें समाज का साथ नहीं मिलता.

पहले जेएनयू में चल रहे छात्रों के आंदोलन के कारणों पर बात करते हैं. जेएनयू के कुलपति एम. जगदीश कुमार ने अचानक अप्रत्याशित ढंग से छात्रावास की फीस कई गुना बढ़ा दी.

जेएनयू में बड़े पैमाने पर भारत के पिछड़े इलाके से गरीब छात्र पढ़ने आते हैं. जेएनयू उन सभी छात्रों को छात्रावास की सुविधा उपलब्ध कराता है जो दिल्ली से बाहर के हैं.

यहां की नामांकन प्रक्रिया में पिछड़े इलाके और गरीब परिवार से आने वाले विद्यार्थियों को अलग से कुछ अंक दिए जाते हैं जिनके कारण पिछड़े इलाके के गरीब विद्यार्थियों को नामांकन में कुछ लाभ मिल जाता है.


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ये विद्यार्थी तभी शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे जब उन्हें बहुत ही कम फीस पर रहने और खाने की सुविधा मिले. बहुत विद्यार्थी तो ऐसे भी हैं जो उस ‘कम फीस’ को भी वहन करने में सक्षम नहीं होते.

ये विद्यार्थी ट्यूशन पढ़ाकर या अन्य काम करके अपनी शिक्षा पूरी करते हैं. यदि फीस बढ़ा दी जाए तो इन विद्यार्थियों को अपने घर लौटने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं होगा.

दूसरी बात यह है कि जेएनयू की अध्ययन की अपनी एक संस्कृति है जो इसके ढाबों, चाय की दुकानों और छात्रावासों में पाई जाती है. जेएनयू के विद्यार्थी अपनी कक्षाओं से अधिक इन जगहों पर हुए बहसों और संवादों से सीखते हैं.

मौजूदा कुलपति अपने आगमन के समय से इन जगहों को भी बर्बाद करने पर तुले हैं. 11 बजे रात के बाद छात्रावास से न निकलने, ढाबों पर न जाने आदि कई फरमान उन्होंने जारी किए हैं.

इन फरमानों के कारण जेएनयू की मूल संस्कृति को खतरा उत्पन्न हो गया है. ऐसा नहीं है कि ये फरमान सरकार की तरफ से जारी किए गए हैं, बल्कि ये कुलपति ने अपने स्तर पर जारी किए हैं. ऐसा भी नहीं है कि जेएनयू को बजट की कोई कमी है जिसे कुलपति गरीब छात्रों से वसूलना चाहते हैं.

जेएनयू को ‘नैक’ मूल्यांकन के तहत 4 में से 3.91 ग्रेड मिले हैं, इसलिए उसे बजट की भी कमी नहीं है. इसके बावजूद कुलपति अपनी जिद पर अड़े हैं.

अब बात करते हैं दिल्ली विश्वविद्यालय की जहां आठ हजार से अधिक शिक्षक हड़ताल पर हैं. इन आठ हजार शिक्षकों में से लगभग पांच हजार शिक्षक एडहॉक हैं.

एडहॉक का अर्थ तात्कालिक व्यवस्था होती है जो दिल्ली विश्वविद्यालय की अलग विशेषता है. विशेषता इसलिए कि देश में केवल डीयू ही एक ऐसा विश्वविद्यालय है जहां एडहॉक शिक्षकों को वेतन दिए जाते हैं. बाकी विश्वविद्यालयों में क्लास के हिसाब से पैसे दे दिए जाते हैं.

New Delhi: Members of Delhi University Teachers' Association (DUTA) protest outside VC's office demanding withdrawal of the circular mandating appointment of guest teachers, in New Delhi, Thursday, Dec. 5, 2019. (PTI Photo) (PTI12_5_2019_000136B)
बीते पांच दिसंबर को दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के सदस्यों ने कुलपति कार्यालय के बाहर प्रदर्शन किया. (फोटो: पीटीआई)

डीयू में जिस दिन कोई शिक्षक रिटायर्ड होता है या लंबे समय के लिए छुट्टी पर जाता है उसी दिन उसकी जगह पर एडहॉक शिक्षक की नियुक्ति कर ली जाती है. अगले दिन से ही एडहॉक शिक्षक अध्यापन कार्य शुरू कर देता है.

इस तरह एक क्लास भी बिना शिक्षक के नहीं रहती. पूरे देश में डीयू ही एक ऐसा विश्वविद्यालय है जहां प्रत्येक कक्षा के लिए शिक्षक मौजूद हैं. यह सुविधा जेएनयू को भी नहीं है. कुलपति के 28 अगस्त के पत्र से डीयू की यह विशेष व्यवस्था भी समाप्त हो जाएगी. उसके बाद शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति की प्रक्रिया अलग से चलती रहती है.

प्रोफेसर योगेश त्यागी को डीयू कुलपति की कुर्सी पर बैठे चार साल हो गए हैं और उनके कार्यकाल में एक भी स्थायी शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई है. यदि स्थायी शिक्षक की नियुक्ति पर सरकार की तरफ से रोक होती तो जामिया, बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय सहित अधिकांश केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति भी न होती.

उक्त विश्वविद्यालयों में लगातार नियुक्ति प्रक्रिया चल रही है. डीयू कुलपति ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए एक तरह से अघोषित रूप से स्थायी नियुक्ति प्रक्रिया पर रोक लगा रखी है.


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बावजूद इसके 28 अगस्त को कुलपति ने कॉलेजों को एक पत्र के माध्यम से यह फरमान जारी किया कि सभी ‘एडहॉक’ शिक्षकों को ‘अतिथि शिक्षक’ के रूप में बदल दिया जाए और आगे से भी एडहॉक शिक्षकों की बहाली पर पूर्णतः रोक लगा दी.

यह ऐसा पत्र था जो वर्षों से काम कर रहे एडहॉक शिक्षकों के साथ-साथ विश्वविद्यालय के शैक्षणिक माहौल को भी बर्बाद कर देता. इस पत्र के प्रति शिक्षकों का गुस्सा इतना अधिक बढ़ गया कि जब चार दिसंबर को वे अपने संगठन ‘डूटा’ के बैनर तले प्रदर्शन करने निकले तो गेट तोड़कर कुलपति कार्यालय के अंदर घुस गए.

उन्होंने दीवारों पर ‘समायोजन’, ‘कुलपति वापस जाओ’ आदि नारे लिख दिए. ठंड के दिन में भी हजारों शिक्षक कुलपति कार्यालय के बाहर अपनी मांगों के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन कुलपति की तरफ से बातचीत का कोई भी प्रयास नहीं हुआ है.

दोनों विश्वविद्यालयों के आंदोलनकारियों का गुस्सा अपने-अपने कुलपतियों के प्रति है. दोनों विश्वविद्यालय पुलिस छावनी में तब्दील हो गए हैं. इन विश्वविद्यालयों को कुछ हद तक स्वायत्तता प्राप्त है.

स्वायत्तता के नाम पर कुलपतियों को असीमित अधिकार मिल जाते हैं. इन अधिकारों का उपयोग वे विश्वविद्यालयों का निर्माण की बजाए विध्वंस के लिए करते हैं. विश्वविद्यालयों को बजट उपलब्ध कराने वाली संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने उक्त विश्वविद्यालयों के लिए आवंटित बजट में किसी भी प्रकार की कमी नहीं की है.

New Delhi: JNU students during their march from the University campus to Rashtrapati Bhavan to 'save public education', in New Delhi, Monday, Dec. 9, 2019. (PTI Photo/Kamal Singh) (PTI12_9_2019_000282B)
शिक्षा को बचाने और फीस वृद्धि के खिलाफ बीते नौ दिसंबर को जेएनयू से राष्ट्रपति भवन तक छात्र-छात्राओं ने रैली निकाली. (फोटो: पीटीआई)

इसके बावजूद कुलपति बजट की कमी का रोना रो रहे हैं और उस कमी को छात्रों की फीस बढ़ाकर और शिक्षकों के वेतन में कटौती कर पूरा करना चाहते हैं.

ये कुलपति पहले तो शिक्षा विरोधी नियम लागू करते हैं और जब छात्र-शिक्षक उसके विरोध में आंदोलन करते हैं तो वे सुरक्षा के नाम पर हजारों पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों को तैनात कर देते हैं.

आंदोलनों से सरकारें भले ही डरती हों, कुलपतियों को कोई फर्क नहीं पड़ता. ज़िम्मेदारी और जवाबदेही जैसे शब्द तो सरकारों के लिए बने हैं कुलपतियों के लिए नहीं.

दोनों विश्वविद्यालयों में चल रहे आंदोलन के कारण सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा लेकिन स्वायत्तता के नाम पर सरकार के हस्तक्षेप की भी सीमा है. सरकार ने जेएनयू के कुलपति को आदेश दिया कि यूजीसी उसके बजट को पूरा करेगी.

डीयू के कुलपति को सरकार ने आदेश दिया कि 28 अगस्त की चिट्ठी को वापस ले, वर्षों से लंबित प्रमोशन को शीघ्र शुरू करे और एडहॉक’ शिक्षकों की बहाली पूर्व की भांति चलती रहे. सरकर के आदेश के बावजूद दोनों कुलपतियों ने अपने आदेशों को वापस नहीं लिया है.


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स्वायत्तता के नाम पर कुलपतियों के पास सरकार के आदेशों को न मानने का भी अधिकार है. 28 अगस्त की चिट्ठी से डीयू के 5 हजार से अधिक ‘एडहॉक’ शिक्षक इस कदर डर गए हैं कि वे ‘समायोजन’ की मांग को लेकर हड़ताल पर हैं.

शिक्षा मंत्रालय लगातार आंदोलनकारियों के संपर्क में है लेकिन कुलपतियों ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे आंदोलन को समाप्त कराया जा सके.

यह सही है कि निजीकरण की प्रक्रिया के तहत सरकारी शिक्षण संस्थान अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं. सरकारी स्कूल तो पहले ही लगभग खत्म हो चुके हैं और सरकारी कॉलेज और विश्वविद्यालय धीरे-धीरे उसी तरफ बढ़ रहे हैं.

देश की राजधानी में स्थित होने और एक शानदार इतिहास के कारण जेएनयू व डीयू कुछ वर्षों तक निजीकरण का सामना करते लेकिन ऐसा लगता है कि ये कुलपति निजीकरण की तरफ से इन विश्वविद्यालयों के खिलाफ युद्ध कर रहे हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)