राज्य सरकारों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि लोगों को बाहर जाकर रोजी क्यों तलाशनी पड़ती है? लोग अपने परिवार के साथ अपने इलाके में गरिमामय जीवन और शांति का माहौल चाहते हैं. राज्य सरकारें उनके राज्यों में रहने-जीने की सही व्यवस्था और अपराधमुक्त माहौल क्यों नहीं मुहैया करा पातीं?
आदिवासी इलाकों के लिए धर्म कभी संघर्ष का मुद्दा नहीं रहा है. इन इलाकों ने लंबे समय से अपनी भाषा-संस्कृति और अपनी तरह जीने की आज़ादी के लिए संघर्ष किया है. यह संघर्ष वे ब्रिटिश काल में भी कर रहे थे.
इस संघर्ष के दौरान अंग्रेज़ो ने भी उनकी व्यवस्था को समझा इसलिए उनके इलाकों को एकस्क्लूडेड और पार्शियली एकस्क्लूडेड एरिया के अंतर्गत रखा. आज़ादी के बाद जब संविधान बना तो उस रूप को स्वीकारते हुए आदिवासी इलाकों को पांचवीं और छठवीं अनुसूची के तहत रखा गया.
जहां कोई भी सामान्य कानून लागू नहीं हो सकता है, जब तक कि वह राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा अनुमोदित न हो. इन अनुसूचियों के होने का मतलब है कि इसके तहत आदिवासी भाषा, संस्कृति, जीवनशैली और अधिकार को राज्यपालों की देख-रेख में संवैधानिक संरक्षण दिया गया है.
इन क्षेत्रों में बाहरी आबादी के निबार्ध प्रवेश को प्रतिबंधित भी किया गया है, हालांकि इसका जबर्दस्त तरीके से उल्लंघन हुआ है. इसे देखने की जिम्मेदारी राज्यपालों पर रही है लेकिन उन्होंने भी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह सही तरीके से नहीं किया.
पांचवी अनुसूची 244 (1) के तहत दस और छठी अनुसूची 244 (2) के तहत चार राज्य हैं. पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र को अनुसूचित व छठी अनुसूची के क्षेत्र को जनजातीय क्षेत्र कहा जाता है.
इन क्षेत्रों में संसद या विधानसभा द्वारा बनाया गया कोई भी सामान्य कानून सीधे लागू नहीं होता. जो भी कानून लागू किया जाता है वह अपवादों व उपांतरणों के साथ ही विस्तारित होता है. पांचवी अनुसूची के तहत घोषित अनुसूचित क्षेत्रों में शांति व स्वच्छ प्रशासन और जनजाति कल्याण सुनिश्चित करने के लिए राज्यपाल को विनियम बनाना है.
विनियम बनाने से पहले उन्हें जनजातीय परमर्शदाता परिषद से अनुशंसा कराकर राष्ट्रपति की लिखित सहमति लेना होता है. राष्ट्रपति से सहमति मिलने के बाद ही वह विनियम अनुसूचित क्षेत्रों में लागू हो सकता है.
वहीं छठी अनुसूची क्षेत्रों में राज्यपाल यह सीधे तय कर सकते हैं कि संसद या विधानसभा द्वारा कोई भी कानून वहां लागू हो या नहीं, लेकिन इन प्रावधानों की चर्चा मीडिया भी नहीं कर रही. देश में राज्य सरकारों ने भी इन नियमों का उल्लंघन किया है. क्या वे अपनी गलतियों में सुधार करने को तैयार हैं?
आज राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) व नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) के मामले में पूर्वोत्तर धार्मिक कारणों से नहीं, अपनी भाषा-संस्कृति के हाशिए में धकेल दिए जाने की संभावनाओं के ख़िलाफ़ लड़ रहा है. वह भविष्य में संविधान द्वारा प्रदत्त छठवीं अनुसूची के हितों के प्रभावित होने को लेकर अधिक चिंतित है.
सरकार असम एनआरसी लेकर आई. आरोप है कि वह इसके जरिए मुस्लिम समाज को घुसपैठिया साबित करना चाहती थी. लेकिन देखा कि एनआरसी से बाहर 19 लाख लोगों में 14 लाख हिंदू हैं, तो तुरंत सीएबी लेकर आ गई. यह दुहाई देते हुए कि दूसरे देशों में धार्मिक प्रताड़ना झेल रहे लोगों की उन्हें बेहद चिंता है.
लेकिन इतनी चिंतित सरकार को यह भी नहीं पता कि कितने लोग धार्मिक प्रताड़ना के शिकार हैं? अभी इसका पुख्ता आंकड़ा भी नहीं मालूम है. इस मसले को लेकर दूसरे देशों से कोई बातचीत भी उसने कभी की नहीं है. लेकिन सीएबी से इतना जरूर होगा कि एनआरसी से जो 14 लाख हिंदू बाहर हैं, वे अपने आप ही सही हो जाएंगे.
असम के कुछ राज्यों में घुसपैठियों को रोकने के लिए इनर लाइन परमिट (आईएलपी) की व्यवस्था है. सरकार कह रही है कि चूंकि आईएलपी है, इसलिए उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए. लेकिन अगर वह इतना ही कारगर होता तो लाखों लोगों का असम में अवैध प्रवेश कैसे होता?
1979 में ही इस अवैध प्रवेश पर रोक लगाने के लिए छह साल तक असम छात्र संगठनों ने लंबी और हिंसक लड़ाई लड़ी है और 1985 में सरकार के असम समझौते में हस्ताक्षर के बाद ही प्रतिरोध शांत हुआ है. लेकिन आज असम फिर से उसी तरह के प्रतिरोध में जल रहा है.
सरकार दूसरे देश में धर्म के नाम पर प्रताड़ित लोगों को भारत लाए. धर्म के नाम पर प्रताड़ित लोग जरूर आएं, पर वे उन्हें उन विकसित इलाकों में ले जाएं, जिनका मॉडल वे देश को दिखाना चाहते थे.
आदिवासी इलाकों में पहले से ही रोजगार, भाषा-संस्कृति और हक-अधिकार दूसरे राज्यों के लोगों के गैरकानूनी तरीके से बेहिसाब बस जाने के कारण हाशिए पर चला गया है. ऐसे में क्या वहां के लोग शरणार्थियों को सहजता से बर्दाश्त करेंगे?
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि संविधान के नियमों को ताक पर रखकर पांचवीं व छठवीं अनुसूची के आदिवासी इलाकों में भारी तादाद में लोग गैरकानूनी तरीके से जमीनों पर कब्जा कर बसते चले गए हैं और वहां के आदिवासियों- मूल निवासियों की भाषा-संस्कृति पूरी तरह हाशिए पर चली गई है.
रोजी-रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में आदिवासी-मूलनिवासी पुरुष बड़े शहरों में मजदूर और स्त्रियां घरेलू कामगार के रूप में पलायन करने को विवश हैं. विकास के नाम पर आदिवासी इलाकों को लगातार उजाड़ा गया है. जंगल, पहाड़, नदी बर्बाद हो रहे हैं. वे जंगल से बाहर किए जा रहे हैं. उनके खेत, खनन में जा रहे हैं.
आदिवासी, लाखों की संख्या में विस्थापन के शिकार हैं. भला कौन चाहता है बाहर जाना? कोई भी नहीं. लेकिन अपने इलाके में ही उनकी रोजी-रोटी की व्यवस्था नहीं है.
राज्य की सरकारें आदिवासियों के विकास के नाम पर केंद्र से करोड़ों रुपये लेती है. पर वे पैसे कहां डायवर्ट हो जाते है? सरकार अपने ही देश में अपनी ही व्यवस्था से प्रताड़ित लोगों की समस्याओं का समाधान करने में विफल क्यों है?
पांचवीं-छठवीं अनुसूची क्षेत्रों के आदिवासियों का जाति प्रमाणपत्र उनकी ज़मीन के कागजात के आधार पर बनते हैं. अगर वे अपने इलाकों से बाहर दूसरे राज्यों में जाते हैं तो वहां उनके लिए कोई एसटी सर्टिफिकेट नहीं बनता. वहां वे अनुसूचित जनजाति न कहलाते हैं, न माने जाते हैं.
दूसरे राज्यों में उन्हें नीचा दिखाया जाता है. उनकी भाषा और उनके रंग-रूप का मजाक उड़ाया जाता है. अपने अलग दिखने के कारण वे कई बार मारे-पीटे भी जाते हैं. लेकिन राष्ट्रहित के नाम पर आदिवासियों और उनके क्षेत्र की विशिष्टता को गौण कर दिया जाता है.
आदिवासी-मूलनिवासी लंबे समय से यह झेल रहे है. वे महसूस करते हैं कि दूसरे राज्यों के लोग जब अपनी संस्कृति लेकर आदिवासी इलाकों में घुसते है, तो वे उन पर अपनी संस्कृति के साथ- साथ अपना धर्म और भगवान भी थोपने की कोशिश करते हैं.
आदिवासी इलाकों में सांस्कृतिक अतिक्रमण से लूट, भ्रष्टाचार , बलात्कार की घटनाएं बढ़ती हैं. टिड्डियों के झुंड की तरह आदिवासी इलाकों में आने वाले, रोजी-रोटी तो कमाते हैं मगर देखते ही देखते वहां के पेड़-पौधे, नदियां-जंगल-पहाड़, भाषा-संस्कृति, रोजी-रोजगार और उनके हक चट कर जाते हैं.
संविधान ने देश के किसी भी नागरिक को कहीं भी रहने, आने-जाने, नौकरी करने की आज़ादी दी है लेकिन किसी का हक मारने, संसाधनों को लूटने, भ्रष्टाचार, बलात्कार बढ़ाने और वहां की भाषा-संस्कृति को विकृत और नष्ट करने की स्वतंत्रता नहीं दी है.
पांचवी और छठवीं अनुसूची के तहत ही आज़ाद भारत में आदिवासियों की भागीदारी भी सुनिश्चित की गई है. इन्हीं प्रावधानों के तहत इन इलाकों में बाहरियों के निर्बाध प्रवेश को प्रतिबंधित भी किया गया है जिसका उल्लंघन लगातार हो रहा है.
इसी बहाने राज्य सरकारों से भी यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि लोगों को बाहर जाकर रोजी-रोजगार क्यों तलाशनी पड़ती है? लोग अपने परिवार के साथ रहना और अपने इलाके में रोजगार चाहते हैं. एक गरिमामय जीवन और शांति का माहौल चाहते हैं. राज्य सरकार उनके लिए अपने ही राज्यों में रहने और जीने-खाने की सही व्यवस्था, अपराधमुक्त माहौल क्यों नहीं मुहैया करा पाती?
शिक्षा का स्तर क्यों नीचे गिरा रहता है? क्यों एक राज्य का सारा संसाधन लूट कर दूसरे देशों को बेचा जाता है? पूर्वोत्तर ने अपनी भाषा-संस्कृति के साथ अपनी तरह जीने की आज़ादी के लिए अपने ही देश में एक लंबा संघर्ष किया है.
मैदानी इलाकों के आदिवासी भी इन्हीं मुद्दों को लेकर देश की आज़ादी के पहले से संघर्ष कर रहे हैं. उनका यह संघर्ष आज भी जारी है. आख़िर यह संघर्ष क्यों जारी है?
झारखंड की लड़ाई ऐसी ही मांगों का परिणाम था, जिसे लेकर 72 साल (1928- 2000) लोगों ने संघर्ष किया. आज झारखंड और झारखंड की राजनीति में बैठकर किसने इसके झारखंडीपन को, यहां की भाषा-संस्कृति को, यहां के संसाधनों का यहीं के लोगों की समृद्धि में उपयोग की संभावनाओं को हाशिए में धकेल दिया है?
ओडिशा, छत्तीसगढ़ और ऐसे राज्य भी जहां आदिवासी काफी संख्या में हैं, लोग लगातार ऐसा ही संघर्ष करते क्यों नजर आते हैं? आज पूर्वोत्तर जल रहा है पर हर आदिवासी इलाका लंबे समय से सुलग रहा है.
अपने देश की व्यवस्था के भीतर जो लोग लंबे समय से प्रताड़ित महसूस करते हैं और लगातार संघर्ष कर रहे हैं, क्या उनकी समस्याओं का समाधान नहीं किया जाना चाहिए?
पांचवीं और छठवीं अनुसूची संविधान में शासन के विकेंद्रीकरण के विचार से जुड़े हैं. क्या इन प्रावधानों का उल्लंघन बंद नहीं होना चाहिए? क्या आज इन सभी पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी नहीं है?
(जसिंता केरकेट्टा स्वतंत्र पत्रकार हैं.)