भारतीय रेलवे में ‘खराब उपनिवेशवाद’ और ‘अच्छे राष्ट्रवाद’ के बंधे-बंधाए झगड़े के परे कई साधारण कहानियों, कल्पनाओं और अतिशयोक्तियों का अस्तित्व है.
1910 के दशक के आखिरी सालों में एक व्यंग्य स्केचबुक का प्रकाशन गुमनाम तरीके से हुआ था. इसमें लेखक, प्रकाशक का नाम-पता दर्ज नहीं था. इस स्केचबुक का शीर्षक था- ‘कूचपरवानयपुर स्वदेशी रेलवे’.
प्रथम विश्वयुद्ध और स्वदेशी प्रेरित उपनिवेशवाद विरोधी विचारों को ध्यान में रखकर तैयार की गई इस स्केचबुक के गुमनाम लेखक ने दावा किया कि ‘यह किताब भारत के रेलकर्मियों और आमजन को रोमांचित कर सकती है’.
इस स्केचबुक को थोड़ा सा उलटलने-पलटने पर इस बात में किसी शक की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि इसका एकमात्र मकसद हर पद और वर्ग के भारतीयों के तकनीकी और संगठन कौशल का मखौल उड़ाना था.
भविष्य में जिनके हाथों में देश की बागडोर आने वाली थी, इसमें उन्हें दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी रेलवे को चलाने के लिए नाकाबिल माना गया था. केपीआर (कूचपरवानय रेलवे) सिर्फ एक रेलवे लाइन नहीं थी. यह एक काल्पनिक रेल नगर भी था.
इस स्केचबुक का शीर्षक वास्तव में अंग्रेजों के लहजे में बोले गए हिंदी के तीन शब्दों से बना है: कूच परवा नय (कुछ परवाह नहीं), यानी किसी को किसी चीज से कोई फर्क नहीं पड़ता. इसलिए कूचपरवानय एक ऐसा शहर था जहां किसी चीज का कोई महत्व नहीं था.
इसमें चीफ इंजीनियर को अपने ऑफिस में नाच का लुत्फ़ उठाते हुए और जनरल मैनेजर को हाथ पंखे की ठंडी हवा में सोया हुआ दिखाया गया था. दूसरी तरफ के.पी.आर पायनियर कॉर्प का गठन निचले दर्जे के रेलवे कर्मियों से हुआ था, जिनके पास औजार के नाम पर साधारण ड्रिल मशीन से लेकर परंपरागत झाड़ू और बास्केट थे.
स्केचबुक के टाइटल पेज पर लेखक के नाम के तौर पर ‘जो हुक्म’ दर्ज है. जाहिर है यह एक छद्म नाम है. कुछ लाइब्रेरी वेबसाइटों ने इसके लेखक की पहचान विलियम हेनरी डीकिन के तौर पर की है.
इस स्केचबुक के सारे चित्रों पर भी ‘जो हुक्म’ के दस्तखत हैं. (इसके लेखक के मुताबिक) तर्क शक्ति और बुद्धि की गैरहाजिरी में स्थानीय भारतीय लोग एक ही काम सबसे अच्छी तरह से कर सकते थे, और वह था आदेश मानना.
भाप इंजन को चलाने के लिए स्टील जैसी दृढ़ता और हर पल सतर्क दिमाग की जरूरत थी. जाहिर है यह दिमाग यूरोपियनों के पास ही था, क्योंकि अंग्रेजी राज लंबे समय तक यही मानता था कि भारतीयों के पास दिमाग नाम की चीज नहीं है.
इस स्केचबुक के व्यंग्यात्मक संदेश का लब्बोलुआब यह था कि जब अंग्रेज इस देश को छोड़ कर चले जाएंगे और एंग्लो-इंडियनों को रेलवे से बाहर कर दिया जाएगा, तब यह पूरा देश एक ‘मतवालाबाद’ (एक नशे में डूबे राज्य) में बदल जाएगा. यह देश रेलवे की पटरियों से तो जुड़ा रहेगा, मगर उन पर हाथी आराम फ़रमाया करेंगे.
रेलवे साम्राज्यवाद
साम्राज्य-समर्थकों और अंग्रेजी शिक्षित राष्ट्रवादियों के बीच सतत चलने वाली लड़ाई में बार-बार उठने वाले तीन मुद्दों में एक मुद्दा रेलवे भी है. कोहिनूर और खुद अंग्रेजी भाषा अन्य दो मुद्दे हैं.
लंबे समय तक उपनिवेशी शक्तियों और उनके समर्थक यह दलील देते रहे हैं कि भले ही अंग्रेजों ने भारत का शोषण किया हो, लेकिन यह भी सच है कि अंग्रेज ही भारत में रेल लेकर आये, जिसने इस उपमहाद्वीप को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधने का काम किया.
रेलवे की प्रशंसा ‘अंग्रेजों की दौलत, शक्ति और कौशल’ के स्मारक तौर पर की जाती है, मगर ऐसा करते हुए यह बात अक्सर भुला दी जाती थी कि अंग्रेजी निजी दौलत भारत सरकार द्वारा निश्चित लाभ की सार्वजनिक गारंटी की देन थी.
केपीआर स्केचबुक इसी तरह की मान्यता का नमूना है. ब्रिटिश उद्यम का जवाबी तर्क शशि थरूर जैसे लेखकों ने इस तरह दिया है: ‘अपने विचार और निर्माण में भारतीय रेलवे एक उपनिवेशवादी घोटाला था’.
भारतीय रेलवे के प्रकट उपनिवेशवादी चरित्र के बारे में इरादतन अति सरलीकरण या तथ्यात्मक गलती किये बगैर भी काफी कुछ कहा जा सकता है.
थरूर इस बारे में सही हो भी सकते हैं और नहीं भी कि भारत का विचार वेदों जितना पुराना है, लेकिन भारत के सबसे पुराने रेलवे शहरों में से एक जमालपुर को बंगाल में दिखाना, सचमुच उनकी गलती है.
यह बिहार राज्य के ऐतिहासिक मुंगेर नगर के करीब है. जगह को लेकर यह भ्रम अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि अंग्रेजों ने उपमहाद्वीप का जिस तरह से बंटवारा किया गया था, उसका असर आज भी कितना गहरा है.
कुछ भी हो, आखिर बिहार कभी बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा था. इसलिए प्रत्यक्ष तौर पर उपनिवेशवाद की आलोचना करने की कोशिश करने वाले थरूर पर क्षेत्रों के बंटवारे के उपनिवेशी तर्क को दोहराने का आरोप नही लगाना चाहिए.
श्वेतों और एंग्लो-इंडियनों को नौकरी और यात्रा सुविधाओं में दिए गए नस्लीय विशेषाधिकार से कोई इनकार नहीं कर सकता. लेकिन, श्वेत यूरोपियों और एंग्लो इंडियनों को सिर्फ इसलिए एक साथ रखना कि वे रेलवे के जाति-क्रम में भारतीयों से श्रेष्ठ थे, पूरी तरह गलत होगा.
वास्तव में इन दो समूहों के बीच गहरा जमा हुआ ऊंच-नीच का वर्गीकरण और आपसी मनमुटाव था.
इसी तरह, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत को रेल इंजन सप्लाई कराने की वैश्विक प्रतियोगिता में ब्रिटिश कंपनियों को जर्मन और अमेरिकी कंपनियों के ऊपर तरजीह दी जाती थी.
1850 से 1910 के बीच बड़ी लाइन के 94 प्रतिशत इंजनों का निर्माण ब्रिटेन में किया गया था और सिर्फ 2.5 फीसदी भारत में बनाए गए थे.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के अलावा किसी अन्य देश से खरीदारी करने के लिए लगाई जाने वाली पूर्वशर्तों में ढील दी गई थी, लेकिन फिर भी पलड़ा ब्रिटेन के पक्ष में असंतुलित ढंग से झुका रहा.
इस तरह से 1947 में आजादी मिलने से पहले भारत ने ब्रिटेन से 14,420 रेल इंजनों का आयात किया, 707 का अपने यहां निर्माण किया और 3000 की खरीद दूसरे देशों से की.
‘लेकिन ऐतिहासिक जटिलता का क्या…?’
लेकिन क्या भारतीय रेलवे की कहानी उपनिवेशी संरक्षण का लेखा-जोखा पेश कर देने भर से समाप्त हो जाती है?
साम्राज्य-समर्थकों के तर्कों का जवाब देने के लिए रेल-इंजन की ओट लेना एक बार भले लुभावना लगे, मगर यह काम ऐतिहासिक विकृतियों से टकराकर और भारतीय रेलवे की आधुनिकता का निर्माण करने वाली अनगिनत कहानियों और रवायतों को नजरअंदाज करके ही मुमकिन है.
थरूर के इस दावे कि ‘रेलवे का विचार पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के मन में आया था’, के उलट हकीकत यह है कि इसकी कल्पना सबसे पहले निजी ब्रिटिश पूंजीपतियों और रेलवे इंजीनियरों ने की थी.
वास्तव में जब आरएम स्टीफेंसन ने पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी से संपर्क किया, तो भारत में रेलवे के निर्माण की उनकी योजना को एक ‘बेतुका विचार’ कह कर खारिज कर दिया गया.
1843 में अपने कलकत्ता दौरे में स्टीफेंसन ने इस योजना को समर्थन देने वाले कई अधिकारियों, व्यापारियों और महत्वपूर्ण भारतीयों से विचार-विमर्श किया था.
आश्चर्य की बात है कि थरूर का यह दावा भी गतल है कि ‘रेलवे में भारतीयों को नौकरी नहीं दी गयी थी’. खासतौर पर उनका यह कहना भी पूरी तरह गलत है कि ‘निवेश की रक्षा के लिए’ सिग्लन देने वाले और ‘भाप-रेलगाड़ियों को चलाने और उनकी मरम्मत करने वाले’, सभी श्वेत थे.
असलियत यह है कि मौका पड़ने पर नस्लीय श्रेष्ठता का विचार अर्थशास्त्र के तर्क के सामने कमजोर पड़ जाता था. भारतीय मजदूरों को बेहद कम मेहनताने पर काम पर लगाया जा सकता था, यही कारण था कि 1860 के दशक में ही भारतीय ड्राइवरों को देश के कुछ हिस्सों में इंजन चलाने के काबिल मान लिया गया था.
मिसाल के तौर पर मद्रास प्रेसिडेंसी को लिया जा सकता है. 1863 की एक रिपोर्ट ने स्पष्ट तौर पर यातायात विभाग में उच्च पदों पर भारतीयों की गैरहाजिरी की स्थिति को सुधारने की मांग की थी.
मद्रास प्रेसिडेंसी में भारतीयों को यूरोपियनों और एंग्लो-इंडियनों के साथ गार्ड के तौर पर तैनात किया गया था, मगर उन्हें कम तनख्वाह दी जाती थी.
रिपोर्ट में कहा गया कि रेलवे के मजबूत और फायदेमंद प्रबंधन में तय कार्यकाल और बगैर किसी नस्लीय भेदभाव और सिर्फ योग्यता पर आधारित पदोन्नति की ईमानदार प्रणाली से ज्यादा योगदान किसी और चीज का नहीं हो सकता.
इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर रेलवे की पत्रिका में केपीआर स्केच पहली बार प्रकट हुआ, उसमें 1882 के अंत तक इंजन ड्राइवर के तौर पर कम से कम 60 भारतीय काम कर रहे थे.
20वीं सदी की शुरुआत तक जमालपुर वर्कशॉप में जिसके बारे में थरूर का दावा है कि इंजनों की मरम्मती के लिए किसी भारतीय को बहाल नहीं किया गया था, करीब 10,000 लोग काम कर रहे थे, जिनमें से अधिकांश स्थानीय थे.
जमालपुर में पहले लोकोमोटिव इंजन का निर्माण 1899 में 33,000 रुपये की लागत से हुआ, जबकि आयात किये गये इंजन की कीमत 47,897 रुपये बैठती थी.
इसे मुमकिन बनाने वाली स्थानीय प्रतिभा की प्रशंसा भी शुरुआत से होती रही. स्टीम हैमर, रोलिंग मिल्स और क्रेन जैसी इंपोर्टेड हेवी मशीनरी को चलाने की क्षमता की तारीफ खासतौर पर की जाती थी.
1868 ईस्वी में एक यात्री एक खास लोकोमोटिव की मरम्मती के विषय में जानने के लिए वर्कशॉप आया था. उसे वर्कशॉप के मैनेजर ने बताया, ‘दुनिया का कोई भी अंग्रेज फिटर यह काम नहीं कर सकता था. यह काम कोई स्थानीय व्यक्ति ही कर सकता है.’
यह वर्कशॉप एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यानी से पिता से पुत्रों को कौशल के हस्तांतरण पर इस कदर निर्भर था कि रेलवे कंपनी ने शुरू में मानक तकनीकी शिक्षा का विरोध किया था. उन्हें वर्कशॉप के आसपास के गांवों से जरूरी मजदूर मिल जाते थे और वे इससे खुश थे.
आधुनिकता की रेल-कथाएं
थोड़ा तोड़-मरोड़ कर इन कहानियों का इस्तेमाल इस दलील को मजबूती देने के लिए किया जा सकता है कि कौशल की उपलब्धता के बावजूद साम्राज्यवादियों के ब्रिटिशों के प्रति पक्षपात ने देशी विकास की संभावना पर कुठाराघात कर दिया.
आरोप-प्रत्यारोप का यह खेल चिरकाल तक चल सकता है. राज और रेलवे की जटिलता को समझने की कोशिश करने का यह मतलब साम्राज्य का समर्थक हो जाना नहीं है.
अगर उपनिवेशों में नस्ल को प्राथमिकता दी जाती थी, तो इंग्लैंड में वर्ग का ज्यादा महत्व था. 1910 तक यह दावा किया जाता था कि ड्राइवरों की भर्ती ‘उच्च वर्ग’ से होनी चाहिए, खासतौर पर उस स्थिति में जब मौजूदा ड्राइवर ‘दिमाग के मामले में कमजोर’ पाए गये थे.
भारतीय रेलवे की उपनिवेशवादी विशेषता के अलावा कुछ ऐसा भी था जिसमें उपनिवेशवादी और महानगरीय दुनिया का साझा था.
‘लेडीज ओनली’ डिब्बे इसका एक उदाहरण हैं. लोकप्रिय नुमाइंदगी के साथ-साथ थरूर जैसी सार्वजनिक मध्यस्थता हमें यह यकीन दिला सकती है कि इन दोनों दुनियाओं में दो ध्रुवों की दूरी थी. लेकिन, इन दोनों के बीच दिखाई पड़नेवाले अंतर के बावजूद हम इन दोनों को आपस में सिलने वाले धागों को देख सकते हैं.
पश्चिमी आधुनिकता और भारतीय परंपरावाद के बीच फर्क दिखलाने का एक तरीका दोनों के संघर्ष को इंजन बनाम हाथी की लड़ाई के रूपक से दिखलाना था.
कथित तौर पर ये दोनों दो अलग सभ्यताओं और दो अलग युगों के प्रतीक थे, जो आमने-सामने आ गए थे.
भारत में रेलवे की शुरुआत के ठीक बाद इंडियन रेलवे के डायरेक्टर जुलैंड डैनवर्स ने अंग्रेजी संसद को यह आश्वासन दिया था कि ‘अब एक राजा को भी अपने राज्य में रेलवे की घंटी के बुलावे के हुक्म के आगे झुकना होगा.’ यानी पुराने को नए के लिए रास्ता बनाना था.
रेलवे की श्यामल सुंदरता (ब्लैक ब्यूटी) शांति और संघनित शक्ति का प्रतीक थी. जब बॉम्बे में पहली रेलगाड़ी के उद्घाटन पर फाकलैंड का पहिया घूमा था, तब इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि देशी लोगों के सनातन अंधविश्वास पिघल कर बह गए. अब इंजन नया ईश्वर था, जिसके गुजरने पर देशी लोग उसे सलाम ठोंकते थे.
एक आंखों देखी रिपोर्ट का दावा है कि लोहे के चलते हुए घोड़े ने भारतीयों को भय और आश्चर्य में डाल दिया था. यह – ‘फुंफकारता दैत्य’ जिसे स्थानीय लोग आग गाड़ी कहकर पुकारते थे, न सिर्फ दूर से देखने, बल्कि उसे छूने, उस पर खड़े होने और उसके साथ दौड़ने के लिए था.
रेल इंजन को लेकर उत्साह सिर्फ उपनिवेशी दुनिया तक सीमित नहीं था. आमजन के साथ-साथ रेलवे-कर्मियों में भी और सिर्फ उपनिवेशों में ही नहीं, महानगरों में भी रेल-इंजन को लेकर जबरदस्त रोमांच था. ब्रिटेन में रेलवे के दीवाने, इंजन को खोजकर और अपने कैमरे से उसका दिलकश चित्र खींच कर खुश हुआ करते थे.
रेलवे के शुरुआती भारतीय दीवानों ने भले कैमरे का प्रयोग न किया हो, मगर आकर्षण और आश्चर्य का तत्व और चलते इंजन को देखकर जगने वाला रोमांच का भाव उनमें भी कम नहीं था.
उपनिवेशों और महानगरों, दोनों जगहों पर इंजन की कल्पना स्त्री के तौर पर की गई. इंजन एक ‘ब्लैक ब्यूटी’ थी, जो किसी नौसिखिए को अपना गुलाम बना सकती थी या योग्य मालिक के पास खुशी से रह सकती थी.
भारत में इंजन के साथ ईश्वरीय तत्व भी जोड़ दिया गया. ब्रिटिश साम्राज्य के मुद्रण बाजार में ऐसी अनेक कहानियां प्रसारित हुईं, जिन्होंने भाप इंजन की तकनीक का इस्तेमाल यह दावा करने के लिए किया कि भारतीयों के धार्मिक अंधविश्वास जल्द ही न सिर्फ बदल जाएंगे, बल्कि वास्तव में खत्म हो जाएंगे.
ऐसी एक कहानी एक ब्राह्मण की थी जिसमें वह ‘अग्नि अश्व’- लॉरेंस के पंजाब पहुंचने पर हैरत से भरकर कहता ‘हमारे सारे भगवानों के सारे अवतार भी मिलकर कभी ऐसी कोई चीज नहीं बना सके.’ देश के दूसरे हिस्से की भी यही कहानी थी. भाप इंजन की ताकत ने बंगालियों की कल्पनाशीलता को भावविभोर कर दिया, जो ‘इंद्र की गाड़ी’ को देखने के लिए बड़ी संख्या में उमड़ते थे.
इस तरह की अभिव्यक्त्यिों और दावों को आसानी से ‘सभ्यताओं के संघर्ष (क्लैश ऑफ़ सिविलाइजेशन) के फ़ॉर्मूले में बांधा जा सकता है, मगर ये कहानियां वास्तव में नई तकनीक के साथ समाज के नये बन रहे रिश्ते, उसके साथ मुठभेड़ के बारे में बताती हैं.
ये हमें यह भी दिखाती हैं कि किस तरह से रेलवे को उसके तमाम नएपन के बावजूद ईश्वरीय रचना की भाषा में ही समझा गया. जब रेलवे को इंद्र की नई सवारी कहकर पुकारा गया तब वास्तव में स्पीड (गति) की आधुनिक समझ और यांत्रिक मजबूती के नएपन को तो स्वीकार किया गया, लेकिन उसे परंपरा के पहले से मौजूद ढांचे के भीतर ही समेट लिया गया.
इंजन ने इंद्र में यकीन का स्थान नहीं लिया, बल्कि यह इंद्र की सवारी ही बन गया. आधुनिकता की पटरियों ने परंपरा के स्थलों को मिटाया नहीं, जिसकी तस्दीक नीचे दिया गया चित्र करता है.
खराब उपनिवेशवाद और अच्छा राष्ट्रवाद
उपनिवेशों की सांस्कृतिक और बौद्धिक हीनता को दिखाना आधुनिकता के आगमन को दिखाने का एक तरीका था. इसके मुताबिक पश्चिम के तकनीकी विकास ने भारत में आधुनिकता लाने का काम किया. यह पीड़ादायक था, मगर इसके लिए जो विवाद, संघर्ष और विस्थापन हुए वे एक तरह से अनिवार्य भी थे.
तर्क दिया गया कि उपनिवेशवादी शासन का चरित्र भले शोषक रहा हो, मगर उपनिवेशवाद ने ही भारत में विज्ञान, शिक्षा, अस्पताल और रेलवे आदि लाने का काम किया. लेकिन, भारतीय आधुनिकता के ट्रेन से जुड़े किस्से ऊपर बनाए गए सांचे से कहीं ज्यादा जटिल हैं.
‘खराब उपनिवेशवाद’ और ‘अच्छे राष्ट्रवाद’ के बंधे-बंधाए झगड़े के परे कई साधारण कहानियों, सपनों, कल्पनाओं, व्यंग्यों और अतिशयोक्तियों का अस्तित्व है.
इससे भी महत्वपूर्ण है कि इन्हें अनेक कंठों से कई रूपों में (स्वाभाविक रूपांतर के साथ) लगातार दोहराया गया है. संस्कृतियों, तकनीक और लोगों के बीच नए बन रहे जटिल रिश्तों को समझने के लिहाज से इन सबका महत्व संस्थानों और राष्ट्र-राज्यों के दस्तावेजों से कतई कम नहीं हैं.
लोगों, तकनीकों और जगहों से जुड़े हुए रोजमर्रा के व्यवहार भारत की रेल-आधुनिकता का निर्माण करते हैं. और यह सिर्फ उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद के दायरे में ही सीमित नहीं है.
केपीआर स्केच के मतवालाबाद में आधुनिकता की पटरी को कुछ समय के लिए ही सही पूरब के ताकतवर जानवर ने बाधित कर दिया था. लेकिन बर्दवान में यही परंपरागत जानवर लोगों को रेलवे-आधुनिकता के आकर्षण और आश्चर्य का दर्शन कराने लेकर आया था. इसने ही शहरों में नियमित अंतराल पर इंद्र की सवारी को लाने का काम किया.
अक्सर ‘बाधित विकास’ और पिछड़ेपन के लिए साम्राज्यवादी शासन को दोष देते हुए और इसी क्रम में मुआवजे और प्रायश्चित का जिक्र करते हुए ऐतिहासिक समझदारी का दामन छोड़ दिया जाता है.
दुर्भाग्य से सरलीकरण करने वाली दलीलें रेलवे को बलि का बकरा बना देती हैं. रेलवे साम्राज्यवाद समर्थकों और विनीत राष्ट्रवादियों के दंगल का अखाड़ा बन कर रह गई है.
इन बहसों में उन लाखों लोगों के शब्द खो गए हैं, जिनके जीवन को छूने का काम रेलवे ने किया. महात्मा गांधी और थरूर के परे लोगों ने रेलवे को किस तरह देखा इसकी एक बानगी 19वीं सदी के एस स्थानीय कवि की यह कविता है-
चलल रेलगाड़ी रंगरेज तेजधारी,
बोझाए खूब भारी हाहाकार कईले जात बा.
बईसे सब सूबा जहाँ बात हो अजूबा,
रंगरेज मंसूबा सब लोग के सुहात बा .
(नितिन सिन्हा, जे़डएमओ (सेंटर फॉर मॉडर्न ओरिएंटल स्टडीज),बर्लिन में सीनियर रिसर्च फेलो हैं.)
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