सरकार अब संवाद से परे हो चुकी है…

एक तरफ कहा जाता है कि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है, उस लिहाज़ से कश्मीरी भी अभिन्न होने चाहिए थे. तो फिर इस बदलाव की प्रक्रिया में उनसे बात क्यों नहीं की गई? उनकी राय क्यों नहीं पूछी गई?

सोशल मीडिया पर राजनीतिक संवाद तर्क पर कम और मन के विश्वास पर ज़्यादा आधारित है

मुद्दा ये नहीं है कि आप किसका समर्थन करते हैं. आप बिल्कुल उन्हीं को चुने जिसका आपको मन है, लेकिन ये उम्मीद ज़रूर है कि आप अपने विवेक पर पर्दा न डालें.

सावन का महीना डीजे वाले बाबू के साथ

धर्म का एक अभिप्राय है अपने अंदर झांककर बेहतर इंसान बनने की कोशिश करना और दूसरा स्वरूप आस्था के बाज़ारीकरण और व्यवसायीकरण में दिखता है. आस्था के इसी स्वरूप की विकृति कांवड़िया उत्पात को समझने में मदद करती है.

राष्ट्रगान विवाद: जो चीज़ें अहम होतीं हैं उन्हें आम नहीं बनाना चाहिए

सिनेमाघर न तो पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का लाल किला है, न ही उन तमाम स्कूलों और कॉलेजों का मैदान, जहां इन दो दिनों पर राष्ट्रगान भी होता है और ‘रंगारंग कार्यक्रम’ भी.

पहले शहर में राजनीति होती थी, अब शहरों की राजनीति होती है

पार्टियां और सरकारें बदलती हैं तो सिर्फ़ नुक्कड़ और चौराहों पर लगे इश्तिहार ही नहीं बदलते बल्कि सारे के सारे शहर का पोशाक बदल जाता है.

भारतीय रेलवे की कहानी: रंगरेज मंसूबा सब लोग के सुहात बा…

भारतीय रेलवे में ‘खराब उपनिवेशवाद’ और ‘अच्छे राष्ट्रवाद’ के बंधे-बंधाए झगड़े के परे कई साधारण कहानियों, कल्पनाओं और अतिशयोक्तियों का अस्तित्व है.