नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ शुरू हुए आंदोलन का हासिल यह है कि आज हर कोई यह सवाल कर रहा कि आख़िर इस क़ानून की ज़रूरत क्या थी, एनआरसी क्यों लाई जाएगी. इस पर भी चर्चा शुरू हो गई है कि अगर वोटर कार्ड है, आधार है तो अब रजिस्ट्रेशन किस बात का.
किसी भी आंदोलन की भीड़ एक बोरे में रखे आलू की तरह होती है. जब तक बोरे में होती है, संगठित और एकत्रित, जैसे ही बोरे से बाहर निकलती है तो अनियंत्रित और बिखरी हुई हो जाती है.
किसी भी आंदोलन का आलू के बोरे की तरह बंद और बिखरने दोनों तत्व तकरीबन हर भारतीय आंदोलन में पाए गए, चाहे वह 1857 हो, बंग भंग आंदोलन, असहयोग-सविनय अवज्ञा से लेकर ख़िलाफत और भारत छोड़ो तक.
लगभग हर आंदोलन में देश के दो मुख्य समुदाय हिंदू और मुस्लिम एक साथ मिलकर लड़े. 1857 की हिंदू मुस्लिम एकता को इस बार नागरिकता कानून को लेकर खड़े हुए जामिया के छात्र आंदोलन ने लगभग उसी मोड़ पर खड़ा कर दिया.
1947 के बाद हिंदुस्तानी मुसलमानों की हालत हिंदी फिल्म के उस गाने के बोल की तरह हो गई थी कि हम वफा करके भी तन्हा रह गए. क्योंकि विभाजन के बाद 1951 की यूपी जनगणना रिपोर्ट से ही यह स्पष्ट हो गया कि एक प्रतिशत से भी कम मुस्लिम पाकिस्तान गया था.
पाकिस्तान का समर्थन सिर्फ कुछ महत्वाकांक्षी मुसलमानों ने ही किया था जो चले गए और विभाजन से दक्षिण भारत तो बिल्कुल नहीं प्रभावित हुआ. अगर औसतन यूपी, जो औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिक राजनीति की प्रयोगशाला रहा से एक प्रतिशत मुसलमान नहीं गया तो बाकी जगहों की बात ही क्या करना.
और आज फिर से विभाजन के परिणाम से उत्पन्न हुई स्थिति के दंश से मुसलमानों को गुजरना पड़ रहा है कि चूंकि अमुक-अमुक मुस्लिम देश में ग़ैर-मुस्लिम का दमन हो रहा है इसलिए उनको हिंदुस्तान मे समायोजित करने की बात तय हुई.
एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें इस बात से कोई गुरेज़ नहीं कि प्रताड़ित शरणार्थियों को आसरा देना चाहिए, पर मुसलमानों के लिए सबसे भावुक विषय यह है कि इस लिस्ट में हर वह वर्ग है, जो भारतीय जनसंख्या का हिस्सा है सिवाय मुसलमान के, जो देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला समुदाय है.
तो नागरिकता कानून का धार्मिक आधार न सिर्फ संविधान के भारत एक पंथ निरपेक्ष-धर्म निरपेक्ष देश होने के सिद्धांत पर सवाल है बल्कि नागरिकों को मिलने वाले समान मौलिक अधिकारों का भी हनन है. जिसका पूरा हिंदुस्तान पुरज़ोर विरोध कर रहा है कि यह कदम विभाजनकारी है.
जहां तक इस आंदोलन में मुसलमानों की सहभागिता और उनकी भूमिका का मतलब है, मुझे नहीं लगता कि जिस वक्त तक यह कानून बन गया, उस वक्त तक यह, सिवाय शिक्षित समुदाय के, आम मुसलमानोंं की समझ में आया भी होगा.
आम लोगों में सिर्फ तरह-तरह की अफवाहें ही थीं कि अब सीएबी आ जाएगा और फिर एनआरसी, और फिर मुसलमान धीरे-धीरे कागजों की अनुप्लब्धता के नाम पर डिटेंशन सेंटर में डाल दिए जाएंगे. यह डर की भावना मुसलमानोंं में बड़ी तेज़ी से फैली.
जामिया मिलिया इस्लामिया के कुछ छात्रों ने इस कानून के पास होने पर अपना विरोध प्रकट किया. अध्यापकों के समूहों में भी इस पर चर्चा शुरू हो गई पर इस पूरी चर्चा का तरीका सिर्फ संवैधानिक दायरे में रहकर अपना विरोध जताना ही था ताकि कानून बनाने में कहीं ख़ामी रह गई हो, तो उस पर पुनर्विचार किया जाए.
चूंकि इस कानून से मुस्लिम समुदाय गायब था इसलिए यह तकरीबन हर एक लिए एक भावनात्मक विषय था कि सदियों से इस मिट्टी में शामिल होने के बावजूद ग़ैर की तरह व्यवहार क्यों, और फिर एनआरसी का भय ज्यादा था.
बुद्धिजीवियों में यह भी सवाल था कि अल्पसंख्यक की परिभाषा इस नागरिकता कानून में स्पष्ट नहीं, खासतौर पर जबकि मुस्लिम समुदाय को एक इकाई के रूप देखना प्रश्नवाचक है.
और यह कहना चूंकि वह मुस्लिम देश है और वहां मुसलमान बहुसंख्यक है इसलिए वह प्रताड़ित नहीं हो सकता, अपने आप में हास्यास्पद है. अपने सत्तर साल के इतिहास में पाकिस्तान कभी एक स्थिर मुल्क नहीं रहा, कभी प्रोग्रेसिव ग्रुप और उलेमा के बीच शरियत कानून को लेकर फसाद स्पष्ट रूप से अपने अस्तित्व मे आने के साथ शुरू हो गए.
दिलचस्प बात यह है कि उस दौर के सैनिक शासन से प्रताड़ित प्रोग्रेसिव कवि हबीब जालिब का गीत ‘ऐसे दस्तूर को, मैं नहीं मानता’ आज उपमहाद्वीप के दूसरे हिस्से में हो रहे छात्र आंदोलन की प्रेरणा का स्रोत बन गया. गौरतलब यह भी है कि हबीब जालिब की तमाम उम्र जेल आने-जाने में गुज़र गई.
कहने का अर्थ यह है कि पाकिस्तान मे दमन सिर्फ ग़ैर-मुस्लिम का नहीं, वहां हर उस शख्स का दमन होता रहा है, जो लीक से हटकर सोचता रहा. वहां उसका भी दमन हुआ, जिसने पाकिस्तान के निर्माण में अहम भूमिका निभाई यानी भारतीय मुसलमान, जो साठ के दशक से मुहाजिर (शरणार्थी) बन चुके थे, जिसे वहां के मूल निवासी एक खतरे के रूप में देख रहे थे.
कुछ ऐसा ही मुहाजिर लीडर अल्ताफ हुसैन की मुहाजिरों के अधिकारों को लेकर आंदोलन देखा जा सकता है. इस्लाम के नाम पर बने देश में मस्जिद, जिसे अल्लाह का घर माना जाता है, वहां किसी भी वक्त मस्जिद में बम धमाका हो जाता है. शियाओं के ख़िलाफ हिंसा बड़ी आम बात है. अहमदिया मुसलमानोंं को मुसलमान ही नहीं माना जाता.
मुसलमानोंं के इस विभाजन को छोड़ दें, तो आए दिन वहां एथनिक हिंसा आम है, कभी पश्तूनों के नाम पर, तो कभी सिंधियों को नाम पर. ऐसे में मुसलमानोंं को एक इकाई के रूप मे लेना गलत है.
बताया जाता है कि नागरिकता कानून के लिए उस जनगणना रिपोर्ट को आधार माना गया है कि 1947 से आज तक पाकिस्तान की हिंदू आबादी घटकर 23 प्रतिशत से लगभग 3 प्रतिशत रह गई. यह आंकड़े बहुत भ्रामक हैं क्योंकि पहली बात 1947 में कोई जनगणना नहीं हुई.
ऐसे में 1941 (जब पाकिस्तान का एक देश के रूप में अस्तित्व ही नहीं था) को भी सही जनगणना के लिए आधार वर्ष नहीं माना जा सकता, आज भी औपनिवेशिक काल की 1931 तक की जनगणना को आधार माना जाता है.
1951 की जनगणना के वक्त तक पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आ चुका था, पर उसकी भौगोलिक स्थिति एक प्रांत की नहीं बल्कि एक देश की थी, वह भी दो विपरीत धुरी के दो देशों का एक समूह.
पूर्वी पाकिस्तान की कुल आबादी में गैर-मुस्लिमों का प्रतिशत 22-23 रहा, न कि पश्चिमी पाकिस्तान का, जहां शुरू से ही यह औसतन 3 प्रतिशत के लगभग रहा. वह भी केवल हिंदू नहीं, उसमें सिख, बुद्ध, हिंदू और ईसाई भी थे.
और यह 1951 में दोनों को मिलाकर ग़ैर-मुस्लिम आबादी का लगभग 14.3 प्रतिशत रहे. 1971 में बांग्लादेश का विभाजन हो गया. राजनीतिक कारणों से जनगणना लेट हुई और अहम बात यह है कि पाकिस्तान मे आंतरिक राजनीतिक उथल पुथल की वजह से जनगणना रिपोर्ट 1972 के बाद कभी समय पर नहीं हो पाई.
धार्मिक आधार पर प्राप्त अंतिम आंकड़ों, जो 1998 के हैं, के हिसाब से ग़ैर-मुस्लिम 3 प्रतिशत के आस पास हैं, जो 1951 के आंकड़ों के बराबर है. रही बात बांग्लादेश की, तो वहां तेज़ी से ग़ैर-मुस्लिमों की संख्या घटी है, जो 22-23% से लगभग 9-10 % के करीब है, जो चिंता का विषय है.
उसका असर उत्तर पूर्व के राज्यों में देखा जा सकता है, जहां असम में समय-समय पर मूल निवासियों के आंदोलन के रूप में यह देखने को मिलता रहा.
पर गौर करने की बात यह है कि उन ग़ैर-कानूनी शरणार्थियों में अच्छी तादाद बंगाली मुस्लिम की भी है, (जिसका विरोध 2012 में असम में अलग बोडोलैंड की मांग करने वाले हिंसक बोडो आंदोलन में हुआ) जो यह साबित करता है कि इतनी बड़ी तादाद मे पलायन किसी एक वजह से तो हर्ग़िज नहीं हुआ होगा.
इसकी बहुत अहम वजह तीनों पड़ोसी मुल्कों की तुलना में बेहतर भारतीय अर्थव्यवस्था रही, जहां गरीब-मजदूर तबका बेहतर रोज़ी की तलाश में पहुंचा.
ऐसी हालत में पाकिस्तान या पड़ोसी मुस्लिम देश की किन्हीं गलत नीतियों की वजह से हिंदुस्तान के मुसलमानोंं के नागरिकता अधिकार पर क्यों प्रभाव पड़े, यह सवाल बहुत अहम हो जाता है.
दिल्ली से शुरू हुई इस तर्क ने आम लोगों को जोड़ा वरना अब तक लोग इसे असमिया और बंगाली समस्या के रूप में ही देख रहे थे. खासतौर पर प्रशासन के ख़िलाफ अहिंसक आंदोलन कर रहे छात्रों पर अगर पुलिस की निंदनीय कार्रवाई न होती, तो शायद ही यह अधिनियम आमजन का ध्यान आकर्षित कर पाता. उस पर लाइब्रेरी में घुसकर छात्रों को मारना इस पूरे जन आंदोलन का तात्कालिक कारण बन गया.
इस पूरे आंदोलन की सबसे खास बात जो रही, वह थी कि आज़ादी के बाद पहली बार मुसलमानोंं के मुद्दे को इतना व्यापक जनसमर्थन मिला. और यह किसी धार्मिक आधार पर नहीं था बल्कि एक समुदाय के संवैधानिक अधिकारों पर बात हो रही थी.
इस बात पर बहस शुरू हो गई कि धार्मिक आधार पर नागरिकता संविधान के मूल भावना पर आघात है जो पंथनिरपेक्षता की बात करता है धर्मनिरपेक्षता की बात करता है. और कानून के सामने हर नागरिक को समान अधिकार की बात करता है.
इस आंदोलन की चर्चा का विषय वो बहादुर लड़कियां रहीं, जिन्होंने लोगों को प्रभावित किया. ठसाठस भीड़ में दो लड़कियां विद्रोह के लिए ललकार रही थीं, पुलिस के बैरिकेड रोकने के बाद लड़के तो मान भी जा रहे, पर लड़कियां उसे कूद कर क्रॉस कर रही थीं.
आस्तीन उठाकर पुलिस प्रशासन को ललकारती तस्वीरें, उनको उंगली दिखाती लड़कियों की तस्वीर ने पूरे देश को झकझोर दिया कि आख़िर ये लड़कियां क्यों वहां डटी हैं. इसके बाद दिल्ली पुलिस को गुलाब देती लड़कियों ने तो सचमुच गुलाब क्रांति कर दी और जता दिया कि वे वह इतिहास पढ़ने ही नहीं, बनाने भी निकली हैं.
यही इस आंदोलन का हासिल है कि आज हर कोई यह सवाल कर रहा कि आख़िर नागरिकता कानून की ज़रूरत क्या थी, एनआरसी क्यों लायी जाएगी. इस पर भी चर्चा शुरू हो गई है कि अगर वोटर कार्ड है, आधार है तो अब और रजिस्ट्रेशन किस बात का.
साथ ही इसे मुसलमानों की नागरिकता को सेकेंड क्लास बनाने की साजिश के तौर पर भी देखा जा रहा है. बच्चे से लेकर बूढ़े तक मांग कर रहे हैं कि हम सिर्फ भारतीय हैं, हमें मत बांटो.
अब बस सवाल यह उठता है कि इस जन आंदोलन का प्रभाव क्या होगा, क्या सरकारी तौर पर धर्म के आधार पर नागरिकता देने के तर्क को खत्म किया जाएगा?
(फिरदौस अज़मत सिद्दीक़ी जामिया मिलिया इस्लामिया में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)