‘गाय, ट्रिपल तलाक, सेना, कश्मीर और पाकिस्तान को ज़ेरे-बहस लाकर सरकार अपनी नाकामी को छिपाने की कोशिश कर रही है. सरकार के सभी वादे झूठे साबित हुए हैं. आपको अच्छे दिन के बजाय बुरे दिन दे दिए गए हैं.’
आज ये तय पाया है हुक़ूमत के इज़ारेदारों में
जो हम पर ईमान ना लाए चुनवा दो दीवारों में
हफ़ीज़ साहब ने ये लाइनें तब कहीं थीं, जब जून 1975 में इमरजेंसी लगी थी और उसका विरोध करने वालों को जेल में डाल दिया गया था. तब हफ़ीज़ साहब ने यह कह कर इमरजेंसी का विरोध किया था, हम उनमें नहीं जो डर कर कह दें हम भी हैं ताबेदारों में. इसके बाद हफ़ीज़ साहब को मीसा के तहत जेल में डाल दिया गया था.
तब एक घोषित इमरजेंसी थी. प्रेस की आज़ादी ख़त्म कर दी गई थी. असहमति की आवाज़ों को कुचल दिया गया था. आज भी हालात कमोबेश इमरजेंसी जैसे ही हैं. बस अंतर इतना है कि ये अघोषित इमरजेंसी है. प्रेस पर कहने को कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन ज़्यादातर मीडिया हाउसेज ने बिना कहे ही सत्ता के आगे हथियार डाल दिए हैं.
कमोबेश सभी अख़बार और न्यूज़ चैनल एक तरह से सत्ता के दलाल बन कर रह गए हैं. जिन लोगों ने हथियार नहीं डाले हैं, सत्ता की पराधीनता स्वीकार नहीं की है, उन पर दूसरे तरीक़ों से दमन की कार्रवाई की जा रही है.
एक फ़र्ज़ी शिकायत के बहाने एनडीटीवी के सह संस्थापक प्रणय रॉय और राधिका रॉय पर सीबीआई और आयकर विभाग की संयुक्त छापेमारी इसी ओर इशारा कर रही है कि जो हम पर ईमान नहीं लाएगा, उन्हें दीवार में चुनवा दिया जाएगा.
ये अच्छी बात है कि एनडीटीवी ने सत्ता के आगे झुकने से इंकार कर दिया है. लेकिन सवाल है कि कब तक एनडीटीवी जैसे सत्ता की कमियां निकालने वाले मीडिया हाउसेस सत्ता के दमन को झेल पाएंगे?
सत्ता का गुणगान करने वाले चैनलों और अख़बारों की तादाद बहुत है, जबकि सत्ता की ग़रीब विरोधी नीतियों और उसके फासीवाद का विरोध करने वाले वालों की बहुत कम. इस दौर में उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गई है.
जब कभी हम टीवी ख़बरें सुनने के लिए न्यूज़ चैनल देखते हैं या अख़बार खोलते हैं, तो देखते हैं कि एक एजेंडे के तहत चंद मुद्दों को हवा दी जा रही है. चैनल दर चैनल बदल लीजिए, उन मुद्दों पर बहस होती मिलेगी, जिनसे देश दो भागों में बंटे.
महंगाई, बेतहाशा बढ़ती बेरोज़गारी, रसातल में जाती अर्थव्यवस्था पर चैनलों पर बहस होती दिखी है कभी? नहीं देखी होगी. अगर देखी होगी तो बहुत ही सरसरी और सरकार का बचाव करती हुई. बहस होती है ट्रिपल तलाक पर, गाय पर, लव जेहाद पर, घर वापसी पर, कश्मीर पर, पाकिस्तान पर, बगदादी पर, आईएसआईएस पर.
सत्ता के गुण गाने वाले एंकरों के चेहरे देखिए कभी. लगता है जैसे यही सबसे बड़े देशभक्त हैं, इनके दिल में ही देश के लिए जज़्बा है. लगता है जैसे यही सरकार हैं, यही भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हैं. इनकी नज़रों में सभी विपक्षी दल देशद्रोही और विकास में बाधक हैं.
कभी-कभी तो ये एंकर भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता से भी ज़्यादा विपक्षी दलों पर हमलावर हो जाते हैं. पता नहीं यह देखकर भाजपा के प्रवक्ताओं को शर्म आती है कि नहीं, लेकिन उन्हें ज़रूर आती होगी, जो मीडिया को सत्ता के सामने रेंगते हुए देख कर हैरान और परेशान हैं.
इन एंकरों के चेहरों को गौर से देखेंगे तो उनके चेहरों पर सत्ता की दलाली की चमक साफ नज़र आएगी.
इन हालात को देखकर अगर आपको डर नहीं लगता, तो आप बहुत निडर हैं या फिर उस कबूतर की तरह हैं, जो सामने ख़तरा देखकर आंखें बंद कर लेता है और समझता है कि उसे कोई नहीं देख रहा है या फिर शतुरमुर्ग की तरह अपना मुंह रेत में दबा लेते हैं. वक़्त बहुत कठिन है. हर मोर्चे पर सरकार विफल है. वह अपनी विफलता छिपाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. जा भी रही है.
गाय, ट्रिपल तलाक, सेना, कश्मीर और पाकिस्तान को ज़ेरे-बहस लाकर सरकार अपनी नाकामी को छिपाने की कोशिश कर रही है. सरकार के सभी वादे झूठे साबित हुए हैं. आपको अच्छे दिन के बजाय बुरे दिन दे दिए गए हैं.
ख़तरा बड़ा है, सरकार की ताक़त भी बड़ी है. वह कुछ भी करा सकती है. होशियार रहने की ज़रूरत है. मीडिया से उम्मीद मत रखिएगा. मीडिया के जिस हिस्से में अभी ज़मीर और ईमान बाक़ी रह गया है, उसके साथ खड़े होने की ज़रूरत है. हफ़ीज़ मेरठी साहब का कहा फिर दोहरा दूं-
हम उनमें नहीं जो डर कर कह दें हम भी हैं ताबेदारों में.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है.)