हिंदुस्तानी सिनेमा में महिला स्वर

सिनेमा निर्माण के इतने दशकों के बाद भी हिंदुस्तानी सिनेमा में महिला निर्देशकों की संख्या को उंगलियों पर गिना जा सकता है. सिनेमाई दुनिया में भी घोर लैंगिक असमानता है.

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सिनेमा निर्माण के इतने दशकों के बाद भी हिंदुस्तानी सिनेमा में महिला निर्देशकों की संख्या को उंगलियों पर गिना जा सकता है. सिनेमाई दुनिया में भी घोर लैंगिक असमानता है.

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हिंदुस्तानी सिनेमा में महिलाओं के नाम पर हमारे ज़ेहन में देविका रानी, माधवी मुखर्जी और जयललिता से लेकर आलिया भट्ट तक की याद छाने लगती है. इसमें नादिया अभिनीत हंटरवाली और मदर इंडिया की नरगिस, मधुबाला से होते हुए मिर्च मसाला की स्मिता पाटिल और दीप्ति नवल तक शामिल हैं.

इन सारे चरित्रों और इनके इर्द-गिर्द आदर्श भारतीय समाज के खाके में फिट हो सकने वाले चरित्रों की रचना मुख्यधारा के हमारे सिनेमा उद्योग ने लगातार जारी रखी है. सिनेमा के इस व्यवसाय में तकनीकी पक्ष और निर्देशन का काम अपवाद स्वरूप ही एकाध बार महिला फिल्मकारों के हिस्से आया है.

ऐसे में क्या इस स्वर को ही हम महिला अभिव्यक्ति के प्रतिनिधि स्वर मान लें?

चालीस के दशक में शुरू हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के सांस्कृतिक आंदोलन की वजह से सिनेमा और महिलाओं के इस विधा में प्रवेश के विषय में आम पढ़े-लिखे लोगों की धारणा थोड़ी बदली. इसके पहले तक महिलाओं का फिल्मों में आना अच्छा नहीं माना जाता था.

सामाजिक हालात के अलावा सिनेमा निर्माण, भारी पूंजी निवेश की वजह से बेहद सांस्थानिक था इसलिए महिलाओं की स्वतंत्र फ़िल्मी अभिव्यक्तियां भी संभव न हुईं.

शायद यही वजह है कि आज सिनेमा निर्माण के इतने दशकों के बाद भी हिंदुस्तानी सिनेमा में महिला निर्देशकों की संख्या को उंगलियों पर गिना जा सकता है. फिल्म स्कूलों से शिक्षित होने वाले फिल्मकारों में भी घोर लैंगिक असमानता है.

भारतीय सिनेमा में महिलाओं की मौजूदगी का आकलन दस्तावेज़ी सिनेमा या डॉक्यूमेंट्री फिल्म के सफ़र पर नज़र दौड़ाए बिना अधूरा है. बड़े बजट वाली कथा फिल्मों की तुलना में बहुत कम बजट वाली दस्तावेज़ी फिल्मों की यात्रा में ऊपर उठे सवाल के बहुत से जवाब खोजे जा सकते हैं.

70 के दशक में जब सेटेलाइट की वजह से देश में दृश्य-श्रव्य माध्यमों का विस्तार होना शुरू हुआ तो नई प्रतिभाओं को जगह मिलनी शुरू हुई. दूरदर्शन के विस्तार के अलावा इन दो दशकों में मास कम्युनिकेशन के नए शिक्षा संस्थानों ने भी दृश्य माध्यम में व्याप्त लैंगिक अनुपात को संभालने में ख़ासी मदद की.

इसी दशक में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के तत्वाधान में शुरू हुए सेंटर फॉर एजुकेशन टेक्नोलॉजी और 1982 में जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में शुरू हुए एजेके मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर ने मास कम्युनिकेशन को पाठ्यक्रम का एक ज़रूरी विषय बनाया.

इसी वजह से अब पढ़े-लिखे घरों से भी मास कम्युनिकेशन के बहाने सिनेमा में लड़कियों की दिलचस्पी बढ़नी शुरू हुई. उन्हें कैमरा पकड़ने के मौके मिलने शुरू हुए. दूरदर्शन ने भी अपने 30 मिनट के फॉरमेट के लिए नए विषयों पर फिल्में बनवानी शुरू की जिसमें महिला फिल्मकारों को भी अपनी बात कहने का मौका मिला.

सिनेमा के नए शिक्षा संस्थानों और तकनीक में आए नएपन की वजह से 80 का दशक महिला फिल्मकारों की नई आमद के लिए विशेष रूप से जाना जाएगा.

मीरा दीवान की ‘ससुराल’, मंजीरा दत्ता की ‘बाबूलाल भुइया की कुर्बानी’, निलिता वाछानी की ‘आइज़ ऑफ स्टोन’, दीपा धनराज की ‘क्या हुआ इस शहर को’, मधुश्री दत्ता की ‘आई लिव इन बेहरमपाड़ा’, वसुधा जोशी की ‘वॉयसेज़ फ्रॉम बलियापाल’ और सुहासिनी मुले की ‘ऐन इंडियन स्टोरी’ और ‘भोपाल: बियॉन्ड जेनोसाइड’ इस दशक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण फिल्में हैं, जिन्हें महिला फिल्मकारों ने ख़ुद बनाया.

यह ज़रूर है कि मुंबई के हिंदी फिल्मोद्योग में हर वर्ष बनने वाली फिल्मों की तुलना में ही यह संख्या बहुत कम थी लेकिन ख़ास बात यह थी ये चुनिंदा फिल्में भी विषयवस्तु और ट्रीटमेंट के लिहाज़ से सिनेमा कला का विस्तार कर रही थीं.

80 के दशक में ही बतौर महिला फिल्मकार हमें सिर्फ सई परांजपे का नाम भी याद आता है, जिन्होंने उस दौर में स्पर्श, कथा और चश्म-ए-बद्दूर जैसी फिल्में बनाई.

तकनीक में बदलाव, फिल्म निर्माण का सस्ता होना, जन आंदोलन और महिला अभिव्यक्ति के मामले में 90 का दशक बहुत क्रांतिकारी था. इस दशक में वीडियो के कई फॉरमेट निर्माता कंपनियों ने पेश किए और सिनेमा निर्माण धीरे-धीरे सस्ता होता गया.

16 एमएम के फिल्म फॉरमेट से अब कैमरा ध्वनि रिकार्डिंग की व्यवस्था के साथ हथेलियों में सिमट गया. छवि अंकन का कई कंधों से सिमट कर एक कंधे पर आ जाना फिल्मों के लिए बड़ा बदलाव था.

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प्रसिद्ध महिला फिल्मकार सई परांजपे, दीपा धनराज और नीलिता वाछानी (बाएं से)

निर्माण की लागत कम होते ही जहां एक ओर सिनेमा सांस्थानिक दबावों से मुक्त हुआ, वहीं दूसरी ओर इसमें अभिव्यक्ति की संभावनाएं बहुत ज़्यादा बढ़ गईं.

इससे नए फिल्मकारों और फिर नए विषयों का सृजन हुआ. यही वह मोड़ रहा जिसके नाते तमाम छोटी-बड़ी जगहों से आने वाले रचनाशील फिल्मकार अब तक अनकही और हाशिये की कहानियों को भी कह पाने की हिम्मत जुटा सके.

यह वही दौर था जब बहुत सी महिला फिल्मकारों ने नई छवियों का सृजन किया और इस नए सिनेमा को समृद्ध बनाया.

उस समय फिल्मकार दीपा धनराज, नीलिता वाछानी, मंजीरा दत्ता, वसुधा जोशी और झरना झावेरी ने विभिन्न सामाजिक मुद्दों और आंदोलनों को अपनी फिल्मों का केंद्र बनाया.

‘समथिंग लाइक अ वार’ के ज़रिये दीपा धनराज ने भारत सरकार की परिवार नियोजन योजना को चुनौती देते हुए स्त्री यौनिकता के सवाल को सिनेमा के दायरे में लिया.

निलिता वाछानी की फ़िल्म ‘आइज़ ऑफ स्टोन’ राजस्थान में व्याप्त चुड़ैल भगाने की घटना के बहाने औरतों के दुख-दर्द को स्वर देते हुए महिला आंदोलन को समर्थ बनाती हैं.

मंजीरा दत्ता ने मज़दूर आंदोलन के बहाने बाबूलाल भुइयां के बलिदान को अपनी फ़िल्म ‘बाबूलाल भुइयां की कुर्बानी’ में चिह्नित किया.

वसुधा जोशी की प्रसिद्ध फिल्म ‘वॉयसेज़ फ्रॉम बलियापाल’ की वजह से ओडिशा के तटीय इलाके बलियापाल के लोगों का अहिंसक आंदोलन सारे देश के सामने उजागर हुआ. झरना झावेरी की फ़िल्मों की वजह से नर्मदा बचाओ आंदोलन लोगों की याद का ज़रूरी हिस्सा बना.

इसके अलावा रीना मोहन, सबा दीवान, पारोमिता वोहरा और श्रेरना दस्तूर ने लैंगिक मुद्दों से जुड़े सवाल को केंद्र में रखकर फिल्में बनाईं. रीना मोहन की ‘कमलाबाई’ की वजह से ही हम हिंदुस्तान की पहली फिल्म अभिनेत्री कमलाबाई गोखले की कहानी जान सके.

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कमलाबाई (फोटो सौजन्य: संजय जोशी)

सबा दीवान ने नाचने-गाने वालियों पर अपने कैमरे को फोकस किया और ‘द अदर सॉन्ग’ जैसी ख़ूबसूरत फिल्म बनाई जिससे हमें उत्तर भारत की तवायफ़ों की असल कहानी पता चलती है. शहरी स्त्री के सवालों को बहुत ही शिद्दत के साथ पारोमिता ने अपनी कई फिल्मों का विषय बनाया.

‘मंजू बेन ट्रक ड्राइवर’ की कहानी के साथ श्रेरना स्त्री मन की गुत्थियों का गहराई से विश्लेषण करती हैं. वहीं सुरभि शर्मा के लिए महिला कामगार की काम की जगहों को जानना बहुत ज़रूरी था जिस वजह से बंगलुरु के महिला कामगारों की दास्तान हम तक पहुंच पाती है.

निष्ठा जैन की ‘गुलाबी गैंग’ स्त्री आंदोलन के नए विस्तार को उसकी पूरी राजनीति को हमें ठीक से समझा पाती है.

सांप्रदायिकता, निजी कहानियां और अनछुए विषय

मधुश्री दत्ता की पहली फिल्म ‘आई लिव इन बेहरमपाड़ा’ और दीपा धनराज की ‘क्या हुआ इस शहर को’ को देखते हुए हम सांप्रदायिकता की छिपी परतों और उसके षड्यंत्रों ठीक तरह से जान पाते हैं. इसी तरह निष्ठा जैन की फ़िल्म ‘सिटी ऑफ फ़ोटोज़’ के ज़रिये हम शहर को एक अलग तरीके से देख पाते हैं.

नर्सों की हड़ताल पर सहजो सिंह का ध्यान अपनी शुरुआती फिल्म ‘माय नेम इज़ सिस्टर’ में ही चला जाता है. समीरा जैन फिल्म ‘मेरा अपना शहर’ में महानगर में रहने वाली एक लड़की के स्पेस की खोज करती हैं.

वहीं समीना मिश्र अपनी गली और घर को ही चुनकर हिंदुस्तान में मुसलमान होने के मायने को अपनी फिल्म का विषय बनाकर ‘द हॉउस ऑन गुलमोहर एवेन्यू’ का निर्माण करती हैं.

सबीना गैडीहॉक तीन महिला छायाकारों के काम को अपनी फिल्म ‘थ्री वीमेन एंड अ कैमरा’ का विषय बनाती हैं तो शोहिनी घोष अपनी फिल्म के विषय के लिए कोलकाता के रेडलाइट इलाके सोनागाछी की यात्रा कर वहां की तवायफ़ों के जीवन की पड़ताल करती ‘टेल्स ऑफ द नाइट फेरीज’ फिल्म का निर्माण करती हैं.

युवा फिल्मकार फैज़ा अहमद खान अपनी फिल्म ‘सुपरमैन ऑफ मालेगांव’ के ज़रिये मालेगांव के लोगों के सिनेमाई जुनून को ख़ूबसूरती से पेश करती हैं.

सुरभि शर्मा कामगारों के अपने प्रिय विषय के अलावा विस्थापन की कहानियों पर भी काम करती रहती हैं जिस वजह से हमें ‘जहाजी म्यूज़िक’ और ‘बिदेशिया इन बम्बई’ जैसी फिल्में मिलती हैं.

वही इफ्फत फातिमा कश्मीरी औरतों के दर्द को एक दशक से डॉक्यूमेंट करके ‘वेयर हैव यू हिडन माय न्यू क्रिसेंट मून’ और ‘खून दियो बराव’ जैसी फिल्मों का निर्माण करती हैं.

कविता जोशी की मणिपुर की महिलाओं के आत्मसम्मान की लड़ाई की फ़िल्म ‘टेल्स फ्रॉम मार्जिन्स’ और कोलकाता की मिताली बिस्वास द्वारा निर्देशित ‘नाम परिबर्तितो’ भी इस सूची की ज़रूरी फिल्में हैं.

महिला स्वर की सिनेमाई अभिव्यक्तियों की यह सूची बहुत लंबी है, लेकिन फिलहाल इसमें चार नामों को और न जोड़ा गया तो यह अधूरी साबित होगी.

पहला नाम है नारीवादी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती का, जिन्होंने 73 साल की उम्र में सिनेमा के महत्व को समझते हुए ‘अ क्वायट लिटिल एंट्री’ नाम की फिल्म बनाई जो सुब्बलक्ष्मी नाम की एक महिला की दास्तान है.

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कम लोग ही जानते हैं कि चर्चित अभिनेत्री सुहासिनी मुले डाक्यूमेंट्री फिल्मकार भी हैं, जो करीब 60 फिल्में बना चुकी हैं, जिनमें 4 राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हैं.

दूसरा नाम है अनुपमा श्रीनिवासन का जिन्होंने शिक्षा के सवालों को केंद्र कर एक बहुत ही विचारोत्तेजक फिल्म ‘आई वंडर’ का निर्माण किया. अनुपमा का नाम इसलिए भी ख़ास है क्योंकि उन्होंने पुष्पा रावत जैसी फिल्मकार को तैयार होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

पुष्पा की अपनी ज़िंदगी के बारे में पहली फिल्म है ‘निर्णय’ और अपने आस-पास के जीवन को पकड़ने वाली दूसरी फिल्म है ‘मोड़’. इसी तरह अरमा अंसारी की फिल्म ‘वीपिंग लूम्स’ को भी सूचीबद्ध करना निहायत ज़रूरी है जिस वजह से पहली बार कैमरा गरीब बुनकर परिवार की कहानी को सामने ला सका.

इसी तरह छवियों के निर्माण के लिए रानू घोष और सबीना गैडीहॉक के कैमरे के काम को रेखांकित न करने से भारी भूल हो जाएगी. कुछ जरुरी सिनेमा आन्दोलन जिन्हें भी सूचीबद्ध होना चाहिए.

इसी तरह 1986 में जामिया मिलिया के मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर से प्रशिक्षित छह महिला फिल्मकारों के समूह ‘मीडिया स्ट्रॉम’ का उल्लेख भी ज़रूरी है जिन्होंने सामूहिक तरीके से फिल्म बनाने की परंपरा की शुरुआत की और दस्तावेज़ी सिनेमा में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया.

इनका जिक्र इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यह समूह फिल्म बनाने के साथ-साथ दिखाने का काम भी शिद्दत से कर रहा था.

इसके अलावा 2005 में हिंदुस्तान में शुरू हुए आइवार्ट के महिला केंद्रित फिल्म समारोह का महिलाओं के काम को सामने लाने में महत्वपूर्ण थी. आइवार्ट अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित उन महिलाओं का संगठन है जो रेडियो और टेलीविज़न माध्यम में काम कर रही हैं.

(लेखक ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के राष्ट्रीय संयोजक हैं)

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