पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए ‘रेडइंक अवॉर्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट’ से सम्मानित होने के बाद वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ ने यह भाषण सात जून को मुंबई में हुए सम्मान समारोह में दिया.
आपने देखा कि मुझे ऊपर सीढ़ियां चढ़कर आने में सहारा लेने की ज़रूरत पड़ी. असल में मैंने अपने घुटने ज़ख़्मी कर लिए हैं. मैंने झुकने से मना कर दिया, मैं रेंगने की कोशिश कर रहा था! इसी प्रयास में मैंने अपने घुटने ज़ख़्मी कर लिए वरना मैं बिल्कुल ठीक हूं.
मैं जल्दी-जल्दी दो बातें कहूंगा जो शुरुआत में बात हुई कि एक तो हमें अपने अंदर देखना है और दूसरे हमें जो हालात हैं इस वक़्त मीडिया के लिए, उस तरफ देखना है.
सबसे पहली बात तो यह है कि इसमें मैं सबसे पहले हर्षा भोगले का उदहारण देता हूं. हर्षा भोगले क्रिकेट को बहुत अच्छे से समझते हैं.
चाहे 20 ओवर का मैच हो, 50 ओवर का मैच हो या टेस्ट मैच हो, वे उसके सभी पहलुओं से अच्छी तरह से वाकिफ़ हैं. उसका अच्छा विश्लेषण करते हैं. अब वो कहें कि मैं खेलूंगा भी, तो शायद वे एक अच्छे खिलाड़ी साबित न हों.
बिल्कुल उसी तरह हम खेल को समझते हैं अपनी लियाक़त, अपनी काबिलियत के मुताबिक कि राजनीति क्या है. अब हम कहें कि हम खेलेंगे भी, तो ज़रूरी नहीं कि हम राजनीतिज्ञ भी साबित हो पाएं.
तो हमारे लिए नेताओं से ऐसा फासला रखना ज़रूरी है कि जहां हमें ज़रूरत हो उनकी या जो हमें उनसे चाहिए हो, उनसे ले पाएं फिर भी उनके नज़दीक न जाएं.
दूसरी बात एक चीज़ होती है ‘वायकैरियस सेंस ऑफ पावर’ यानी ताकत का ग़लत अर्थ लेना. मुझे याद आता है कि तब मरहूम राजेश पायलट ज़िंदा थे और भाजपा की सांस्कृतिक पुनर्जागरण रैली होनी थी तब उन्होंने पंजाब पुलिस को बुलाया था. ये सन् 90 या 92 की बात है. मैंने उन्होंने अपने स्टूडियो बुलाया था.
इंटरव्यू ख़त्म हुआ, वो बाहर निकले. मेरी पूरी टीम खड़ी हुई थी. 35-40 लोग थे तो उनको दिखाने के लिए कि विनोद को अच्छा लगेगा, पायलट साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोले कि अच्छा विनोद तुम बताओ यार मैं कैसे हैंडल करूं इसको.
तब मैंने बहुत तमीज़ से उनका हाथ हटाया. मैंने कहा कि देखिए अगर मैं बेवक़ूफ़ होता तो मैं आपको बता देता कि कैसे हैंडल करूं. ये आपका काम है. आपके पास विशेषज्ञ हैं. आपको शायद महसूस हुआ हो कि मुझे अच्छा लगेगा.
तो हम में से कई लोग इस तरह ताकत के ग़लत अर्थ के जाल में फंस जाते हैं. शायद इसलिए क्योंकि हमारी उन लोगों तक पहुंच है, उन लोगों से नज़दीकी है जिनके पास ताकत है, हमें लगता है कि हम भी ताकतवर हैं. तो हमें इसका भी ख़याल रखना है.
तीसरी बात, अगर मेरी ज़रूरत एक हज़ार रुपये की है, मैं 10 हज़ार कमाता हूं, ठीक है. 10 हज़ार से ज़्यादा कमाने के लिए अगर मैं और कोशिश करता हूं, हाथ-पांव मारता हूं तो मैं लालच के ज़ोन में चला गया हूं.
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बहुत सारे लोगों के साथ ये हुआ है. ग़लत तरीके से पैसे बनाए हैं उन्होंने और लालच के ज़ोन में चले गए. और फिर वो चीज़ें ताउम्र आख़िर तक पीछा करती रहती हैं. वो हमें नहीं करना है.
चौथी बात, शुरुआती दौर में टेलीविज़न न्यूज़ चैनल्स ख़ासकर हिंदी न्यूज़ चैनल्स में आपने वो सब प्रोग्राम देखे होंगे भूत-भूतनी, नाग-नागिन, टमाटर में हनुमान. तो वीर सांघवी ने कहीं कहा था और मैंने पढ़ा था कि यह न्यूज़ नहीं हैं, ये रियलिटी एंटरटेनमेंट टेलीविज़न है.
अगर लोगों को यह पसंद है तो उन्हें ये देखने दीजिए. बस इनका लाइसेंस बदल दीजिए. इसे न्यूज़ चैनल से बदलकर रियलिटी एंटरटेनमेंट टेलीविज़न कर दें.
प्रिंस गड्ढे में गिर गया, 10 घंटे आप उस पर लगे हुए हैं. कोई शख़्स टेलीफोन टावर पर चढ़ गया, 4 घंटे वो वहां रहा तो 4 घंटे आप वहां पर हैं. अब आप न्यूज़ से हट गए हैं. एंटरटेनमेंट रियलिटी टीवी दिखा रहे हैं आप. ये भी नहीं करना है.
ये हमारे अंदर की बातें हैं. और ज़ाहिर तौर पर सबसे बड़ी बात ये कि हमें दरबारी नहीं बनना, हमें सरकारी नहीं बनना.
अब हम बात करते हैं बाहर से जो हमारे ऊपर बादल मंडरा रहे हैं. दुष्यंत कुमार की कविता का एक छोटा-सा हिस्सा याद आ रहा है…
मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.
मतलब इतना भी कहना अगर मुहाल हो जाए कि भई कोहरा है आसमान में और मुझे कह दिया जाए कि तुम राष्ट्रद्रोही हो!
तो इस माहौल से बचने के लिए हमें ज़रूरत है ताकत की, हमें ज़रूरत है हिम्मत की. और बहुत लोगों में है. मैंने देखा है मन मार के लोग काम कर रहे हैं आज के दिन, अच्छे-अच्छे लोग, पढ़े लिखे लोग, दूर-दराज़, छोटे-मोटे इलाकों से आए लोग जो दिल्ली में करिअर बनाने आए हैं दिल्ली में हिंदी न्यूज़ चैनल्स में.
लेकिन पिछले तीन साल में फ़र्क ये आया है कि तीन साल पहले तक हमारे चैनल संपादकों और संपादकीय टीम द्वारा चलाए जाते थे, अब वो मालिकों द्वारा चलाए जा रहे हैं. और हमें मालूम हैं कि ज़्यादातर मालिकों की निष्ठा किस तरफ है.
रामनाथ गोयनका जैसे अख़बार मालिक कम हैं. राजकमल झा (इंडियन एक्सप्रेस के संपादक) अभी विवेक गोयनका के बारे में बता रहे थे. मैं उनको नहीं जानता. पर रामनाथ जी ने एक पुरस्कार शुरू किया था अपने स्वर्गीय बेटे की याद में, बीडी गोयनका अवॉर्ड.
वो भी एक ऐसा अवॉर्ड था कि आपकी अपनी बिरादरी आपको सम्मानित करती है. मेरे लिए ये एक ऐसा ही पल है जहां मैं पूरी विनम्रता से इस सम्मान को स्वीकार करता हूं.
मैं आपका शुक्रिया अदा करता हूं. ये महज़ अवॉर्ड नहीं है, बल्कि सम्मान है और मुझसे मेरी ही बिरादरी द्वारा सम्मानित किया गया, इसके लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.