पिछले 40-45 वर्षों में संविधान की नींव कई बार हिली और ‘हम भारत के लोगों’ को तोड़ने के कई प्रयास किए गए, पर ‘हम लोग’ की परिभाषा अपरिवर्तित ही रही. कई सरकारें आईं-गईं पर एक समूचे समुदाय को देश की मुख्यधारा से काटने का प्रयास नहीं हुआ, लेकिन आज परिस्थितियां और हैं.
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’
ये पंक्तियां हिंदी भाषा के महान कवि जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ से हैं. सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश में पले-बढ़े लोग यदि आज भी अपनी हिंदी की कक्षाओं को याद करें, तो शायद आज भी इन पंक्तियों का ध्यान आए.
ये नाटक तब भारतीय हिंदी-पट्टी के सभी निजी और सरकारी स्कूलों के हिंदी पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग था. नाटक में चाणक्य, चंद्रगुप्त, नंद, पर्वतेश्वर (पोरस) आदि ‘मौर्य, मगध, एवं पंचनद’ (पंजाब) साम्राज्यों के अग्रणी सत्ताधारियों के साथ-साथ यवन (यूनानी/ग्रीक) योद्धा सिकंदर, उसका सेनापति सेल्यूकस, यवन दूत और इतिहासकार मेगास्थनीज़ विद्यमान हैं.
स्त्री पात्रों में प्रमुख हैं ‘तक्षशिला’ की राजकुमारी अलका, ‘मगध’ राजकुमारी कल्याणी, ‘सिंधु’ देश की राजकुमारी मालविका और ‘यवन’ सेनापति सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया. नाटक की पृष्ठभूमि है सिकंदर का सन 327-325 ईसा पूर्व में ‘आर्यवर्त’ पर आक्रमण.
नाटक के द्वितीय अंक का आरंभ एक गीत से होता है, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा.’ सिंधु नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे बैठ कर कार्नेलिया ये पंक्तियां गाती है. कार्नेलिया विदेशी है, पर जिस देश में एक अनजान क्षितिज को सहारा मिलता है, वहां पराये अपने हो जाते हैं.
इस नाटक में आज के भारत/इंडिया या ‘न्यू इंडिया’ या सिंधु नदी के तट पर बसे लोगों का ‘सिंधु’ या अरबी और फ़ारसी के जरिये ‘हिंदुस्तान’ या फिर पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान का कोई ज़िक्र नहीं है.
कारण साफ है: अपने आधुनिक प्रारूप में ये देश बहुत नये हैं. इनकी राजनीतिक-भौगोलिक सीमाएं जटिल राजनीतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं के फलस्वरूप 20वीं शताब्दी में बनायी गयीं.
इन सभी प्रक्रियाओं में एक बात निश्चित रूप से हुई- शरणार्थियों का जन्म. ये सभी देश शरणार्थियों के रचने से जन्मे और शरणार्थियों के तप से समृद्ध हुए. इनके नागरिकों में ऐतिहासिक रूप से कई आक्रामक भी थे, जो पराये होकर भले ही आए हों, अपने होकर बस गए.
उनमें से, जैसा प्रसाद अपने नाटक में लिखते हैं, एक थी कार्नेलिया. इस नाटक और इस गीत को शायद आज भी एक देशभक्ति के गीत के उदाहरण के रूप में पढ़ाया जाता हो, पर किस अनजान क्षितिज को ध्यान में रखकर, ये आज कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता.
हम सभी जानते हैं कि पिछले 5-6 बरसों में भारत में देशभक्ति की परिभाषा बदली जा चुकी है. 21वीं शताब्दी का भारत विश्व की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक शक्ति के रूप में उभरा है और इसका श्रेय किसी एक राजनीतिक दल को नहीं दिया जा सकता.
यह सच है कि मध्य और निम्न मध्य वर्ग के बीच की दूरी घटी है, पर यह भी सच है की एक बहुत बड़ा उच्च वर्ग खड़ा हुआ है, जो जितना ऊपर उठता है, निम्न वर्ग उतना नीचे गिरता है. पर इन सब से अलग एक और बात देखने को मिलती है.
इतनी समृद्धि के बावजूद बढ़ता आंतरिक क्लेश. इतना बंटवारा, इतना द्वेष, इतनी घृणा, इतना गुस्सा एक अरसे से नहीं दिखा. एक विषाक्त वायु बह रही है, एक ‘गर्म हवा,’ जो सबको लीलती-डसती जा रही है.
राजधानी दिल्ली का भीषण वायु प्रदूषण मानो सत्ता के सड़ते-गलते अंदरूनी प्रदूषण का श्लेष बनकर सामने आया है. वातावरण को विषाक्त करती इस प्रदूषित वायु का सबसे नया उपहार है- नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए.
बताया जा रहा है कि इसके चलते आस पड़ोस के गिने-चुने देशों के गिने-चुने समुदायों- हिंदू (श्रीलंका को छोड़कर), बौद्ध, जैन, सिख, पारसी, ईसाई शरणार्थी भारत को अपना देश बना सकेंगे. राजधर्म तब निभाया जाता, जब मुस्लिम समाज के प्रताड़ित शरणार्थियों को भी इनमें शामिल कर लिया जाता. पर नहीं. ऐसा नहीं हुआ.
इस शरणार्थी संशोधन अधिनियम को नागरिकता संशोधन अधिनियम बताया गया है और 10 जनवरी 2020 को इसे लागू भी कर दिया गया.
यहां दूर देश में बैठकर ऐसा लगता है कि हमारे आधुनिक भारत के चाणक्य और उनके समर्थक, हमारे अपने संविधान की अंत्येष्टि और श्राद्ध एक साथ कराने को आतुर हैं.
भारतीय संविधान- जो विश्व के प्रमुख गणतंत्रों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्ज़रलैंड आदि के संविधानों के समकक्ष है- उसके प्रमुख लेखक 20वीं सदी के सबसे महान चिंतकों में से एक डॉ. भीमराव बाबा साहेब आंबेडकर.
दलित समाज में जन्मे, शिक्षा और मनोबल के सहारे देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने वाले बाबा साहेब ने भारतीय समुदाय की रूढ़ियों पर लगातार कटाक्ष किए, देश-निर्माण के शिखर नेताओं के साथ जिरह करने में कभी कोताही नहीं की और मनुवादी जातिप्रथा के खिलाफ हमेशा अपनी आवाज़ बुलंद की.
ये आंबेडकर और उनके समसामयिकों का स्वप्न और संकल्प था कि एक नये देश के निर्माण में सबकी साझा हिस्सेदारी हो, एक नये गणतंत्र के भाग्यविधाताओं में न केवल बहुसंख्यक हिंदू या सवर्ण, बल्कि भारत के करोड़ों दलित, और अल्पसंख्यक समाज से आने वाले मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन, यहूदी व अनेकानेक अन्य धार्मिक और सामाजिक समुदाय भी शामिल हों.
भारत के मूल-निवासी, जो आदिकाल से भारत राष्ट्र के निर्माण से कहीं पहले से यहां रहते आए हैं, उनकी भी भागीदारी हो, ताकि देश किसी की बपौती या किसी एक वर्ग या संप्रदाय या समुदाय या व्यक्ति-विशेष की संपत्ति बनकर न रह जाए.
इस सच्ची देशभक्ति का सर्वोच्च ग्रंथ है भारतीय संविधान और उसकी सबसे सुंदर अभिव्यक्ति है, उसकी ‘प्रस्तावना, ‘जो सीधे सादे शब्दों से शुरू होती है- ‘हम, भारत के लोग.’
इस प्रस्तावना के अंत में लिखा है कि ‘हम भारत के लोग’ इस संविधान को ‘अंगीकृत, अधिनियमित, और आत्मर्पित करते हैं.’ सीधे सादे शब्दों में कहा जाए, तो हम, यानी भारत के समस्त प्रवासी और अप्रवासी नागरिक इस ग्रंथ को तन-मन से अपनाते हैं क्योंकि हम ही इसके लेखक, पाठक और सच्चे सेवक हैं.
इसका अर्थ यह है कि भारत के नागरिकों द्वारा चुने गए उनके अपने प्रतिनिधि, सबकी हिस्सेदारी और भागीदारी को ध्यान में रखकर निर्णय लेगें.
बदलते सामाजिक परिवेश में यदि संविधान के कुछ नियमों में बदलाव आवश्यक हो, तब भी संविधान के मूलभूत सिद्धांत, जिनमें ‘विचार, अभिव्यक्ति, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता’ और ‘व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता’ प्रमुख हैं, इन पर कोई आंच न आएगी.
ये सिर्फ शब्द नहीं हैं. पढ़ने-बोलने में भले ये शब्द शायद भारी-भरकम लगें, पर ये भार जरूरी हैं क्योंकि ये एक समूचे राष्ट्र की नींव के पत्थर हैं.
ये वो मज़बूत और ताकतवर लफ़्ज़ हैं, जिनके आधार पर हम इंसाफ मांगते हैं, जो हम सबको एक न्याय प्रणाली का हिस्सा बनाता है. हमें अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का एहसास कराता है.
इन शब्दों के सही माने हम भारत के लोगों ने कभी समझे हैं और कभी अपनी ही नासमझी से खराब भी किए हैं. राजनीति की आग में अपनी रोटियां सेंकते तथाकथित नेताओं ने भारत राष्ट्र के 73 वर्षीय इतिहास में इन शब्दों और उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा पर अक्सर ही चोट पहुंचायी है.
ये लिखते हुए मैं किसी स्वर्णकाल का ज़िक्र नहीं कर रहा, जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया बसेरा करती थीं. मैं पिछले 40-45 वर्षों को ध्यान में रखता हूं, जहां संविधान की नींव भले ही हिली हो और ‘हम भारत के लोगों’ को तोड़ने के कितने ही प्रयास न किए गए हों, उस ‘हम लोग’ की परिभाषा मूलतः अपरिवर्तित रही.
जहां एक साथ दो दर्जे के ‘हम’ नहीं पैदा किए गए. कम से कम खुल्लम-खुल्ला नहीं, हालांकि कई सरकारें आईं-गईं, पर एक समूचे समाज को देश की मुख्यधारा से काटने का प्रयास नहीं हुआ.
आज परिस्थितियां और हैं. देश के युवाओं, देश के भविष्य पर, कहीं लाठी, कहीं गोली, कहीं आंसू-गैस, कहीं गालियां बरसाई जा रही हैं . किसी की आंखों के तारे अपनी आंखों की रोशनी खो रहे हैं, किसी के बुढ़ापे की लाठी को पुलिस की लाठी ने तोड़ दिया है.
इस कड़ी में 5 जनवरी 2020 की रात जेएनयू के छात्रों पर हिंसा हुई, इसने 1933 में जर्मनी में यहूदियों, लेखकों, और कला-कर्मियों पर हिंसा की याद दिला दी.
इस सब के बीच भी बंबई के चारण-भाट तो अब तक एक लंबा मौनव्रत धारण किए बैठे हैं. यहां के बड़े-बड़े परिवारों से आए राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य, जो डेढ़-दो साल में एक बार संसद में एक ‘सीन’ करके गणतंत्र की ओर मुख कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर देते हैं, अब घर पर बैठे हैं.
कुछ अपवाद छोड़ दें, तो लगभग सभी टीवी चैनल, इंटरनेट और अन्य मीडिया में या तो पुलिस बर्बरता का ज़िक्र चलता है, या दंगाइयों का. किसी भी अखबार, ख़ासकर हिंदी के अखबार देखो, तो प्रदर्शन करने वाली जनता को उपद्रवी, दंगाई कहकर पुकारा जा रहा है.
क्या सारा देश और कई टुकड़ों में बंट चुका है? हिंदू-मुसलमानों का बंटवारा शायद काफ़ी नहीं था. जब शांतिपूर्ण प्रदर्शनों का स्थान हिंसात्मक भीड़ लेती है, तो किसी का भला नहीं होता.
और हिंसा से सभी प्रदर्शनकारियों को भी संलग्न नहीं किया जा सकता. भर्त्सना हिंसा को जन्म और उसे तूल देने वाले उन लोगों की होनी चाहिए, जो एक बड़े, शांतिप्रिय आंदोलन को ओवरटेक करना चाहते हैं.
हैरानी की कोई बात नहीं कि आजकल देश के छोटे-बड़े शहरों और कस्बों की नगर पालिकाओं और निगम के दफ़्तरों में अब नये सिरे से लाइनें लगनी शुरू हुई हैं.
मुझे नवंबर 2016 अच्छी तरह से याद है. मैं तब भारत में था जब एक रात पता चला था कि तमाम 500 और 1000 रुपये के नोट अब सिर्फ कागज के टुकड़े बनकर रह गए हैं, तब सारे देश के साथ मैंने भी बैंकों के आगे लाइनों में लगकर थोड़े बहुत पैसे जमा करे और निकलवाए थे.
तब कोई हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई नहीं था, सब लाइनों में लगकर अपनी गाढ़ी कमाई को कागज के टुकड़ों में बदलने से बचा रहे थे. आज जब देश के संविधान को कागज के टुकड़ों में बदलने की कोशिश हो रही है, लोग बेचारे अपने कागज ठीक-ठाक कर रहे हैं.
इन दुर्दम्य परिस्थितियों में, जहां हमारे संविधान की नींव को एक गहरा झटका लगा है, स्थिरता के सबसे बड़े स्रोत के रूप में ‘हम भारत के लोग’ सामने आए हैं.
ये वो शांतिप्रिय प्रदर्शनकारी हैं, जो अहिंसा का सिद्धांत अपनाते हुए अपनी आवाज़ उठा रहे हैं. इनमें दिल्ली के शाहीन बाग की वो बुजुर्ग महिलाएं हैं, जो कड़कती ठंड में अपने बच्चों के भविष्य के लिए धरने पर बैठी हैं.
इनमें जामिया, जेएनयू, दिल्ली, पुणे, कलकत्ता, और देश के कई विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के वे छात्र-छात्राएं हैं, जो बंटवारे की राजनीति से उकता गए हैं, जो अपने सपने साकार करना चाहते हैं, एक शांतिप्रिय देश में. जिन्हें भारत पर बहुत नाज़ है, जिन्हें मंदिर मस्जिद की राजनीति से कम सरोकार है.
जो नौकरियां चाहते हैं, धर्म और जाति के भेदभाव के परे प्यार और शादी करना चाहते हैं. इनमे छोटे कस्बों और शहरों के वे युवक-युवतियां शामिल हैं, जो अंग्रेज़ी जाने-न जाने बिना बैंक, यूपीएससी या किसी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी चाहते हैं.
इनमें दलित और गरीब तबकों के वे बच्चे और युवा भी शामिल हैं, जो खून की नहीं, वाकई इस देश में दूध और घी और समृद्धि की नदियां बहते देखना चाहते हैं.
इस वक्त यह समझ नहीं आ रहा है कि सरकार डैमेज कंट्रोल मोड में है या इवेंट मैनेजमेंट मोड में. जो भी हो, पर अब वे साबुन की तरह देशभक्ति को पैकेज में बेचने से पहले सोचेंगे क्योंकि वो भी जानते हैं कि कोई इमेज या इवेंट मैनेजमेंट जनता के आगे नहीं टिकता.
जब युवा पीढ़ी सामने आती है, तो राजनीति में मंजे अच्छे-अच्छे नेताओं के पसीने छूटने लगते हैं. जो आज सत्तारूढ़ हैं और वे जो कल सत्तारूढ़ होने के सपने देख रहे हैं, वे इस नयी पीढ़ी, इस नये इंडिया को नहीं भुला सकते.
ये पीढ़ी ब्रांडेड जूतों-कपड़ों और सेल फोन से आगे निकल चुकी है. वे देश का एक नया ब्रांड भी चाहते हैं. एक ऐसा भारत, जहां इंसान-इंसान के बीच बंटवारे न हों, जहां बेटियां वाकई सुरक्षित आ-जा सकें.
जहां सरकार अपने कर्तव्यों को समझे. जहां विचारों का मतभेद हिंसा में खत्म न हो, वाद-विवाद चलते रहें. जहां अपनों को रातों-रात पराया न बनाया जाए. जहां बाबा साहेब के भाव, और संविधान का मूल-मंत्र राजनीति की चिता में न झोंके जाएं.
2020 में भारतीय संविधान की 70वीं वर्षगांठ हैं. नया वर्ष भारत और उसके गणतंत्र के लिए संविधान की शक्ति, व्यक्ति की गरिमा, और राष्ट्र की एकता के साथ सभी नागरिकों के लिए सही रूप से मंगलमय हो!
(लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन-मैडिसन में जर्मन व विश्व-साहित्य के प्रोफेसर हैं.)