शुक्रवार, 9 जून को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एनडीटीवी मालिकों के घर पर पड़े सीबीआई छापों के विरोध और प्रेस की आज़ादी के लिए बड़ी संख्या में पत्रकार इकट्ठा हुए थे. इस कार्यक्रम में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी भी शामिल थे. उन्होंने अन्य पत्रकारों और नामी अधिवक्ता फली एस. नरीमन के साथ मंच साझा किया और मीडिया के वर्तमान परिदृश्य पर अपने विचार रखे. उनका वक्तव्य.
दोस्तों, मैं अपनी बात शुरू करने से पहले नरेंद्र मोदी का धन्यवाद देना चाहूंगा, जिनकी वजह से इतने सारे दोस्त एक साथ आ सके!
इसके लिए मैं उनके लिए दो पंक्तियां कहना चाहूंगा,
तुझसे पहले जो यहां तख़्तनशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने का उतना ही यकीं था
ये एक पाकिस्तानी शायर का क़लाम है! मैं ग्रंथ की ये बात पढ़कर ख़ुद को बचाने की कोशिश करूंगा:
राम गयो, रावण गयो, जाको बहु परिवार
ये भी जाएंगे.
हमें ये विश्वास रखना चाहिए. भारत की आज़ादी की लड़ाई में ढाल की तरह खड़े रहे फली एस. नरीमन जो बातें कह चुके हैं, उसके बाद यहां कोई और तथ्य या क़ानून नहीं जोड़ा जा सकता.
मैं उस सवाल का जवाब दूंगा जो निहाल सिंह साहब ने उठाया कि ‘हमें क्या करना चाहिए.’ इस पर कुलदीप नैयर साहब ने कहा कि इस सवाल का जवाब देना इमरजेंसी के वक़्त भी ज़रूरी नहीं समझा गया पर सच यह है कि हर पीढ़ी को आज़ादी का सबक सिखाया जाता है. तो इस बार, एक बार फिर ये सबक शुरू हो चुका है.
तो सबसे पहली बात तो यही है कि हमें समझना होगा कि एक नया दौर शुरू हो चुका है. क्योंकि अब तक सरकार बस दो तरीके ही इस्तेमाल करती थी, जिसमें एक था मीडिया का मुंह विज्ञापनों की रिश्वत से बंद कर देना.
एक ज़ुलु कहावत है, जिस कुत्ते के मुंह में हड्डी होती है वो भौंक नहीं सकता’. यानी वो मीडिया को उस कुत्ते में तब्दील कर रहे हैं जिसके मुंह में विज्ञापन हैं, जिससे वह उन पर भौंक नहीं सकता. दूसरा तरीका था एक अनदेखा डर फैलाकर मीडिया को नियंत्रित करना.
‘तुम जानते नहीं हो, मोदी सब सुन रहा है. उसके पास सारी टीम है. ये है, वो है. अमित शाह सीबीआई को कंट्रोल करता है. कल तुम्हारे साथ ये होगा.’
अरे यार! ये हो गया है. फिर भी आदमी ज़िंदा है. फिर भी चैनल चल रहे हैं.
तो देखिए, इन दो तरीकों से वो जो कर सकते थे, उन्होंने किया. अब वो दूसरा तरीका लाए हैं, जो है खुले तौर पर दबाव बनाना. मिसाल के लिए जो उन्होंने एनडीटीवी के साथ किया. मेरा विश्वास है कि आने वाले महीनों में ये और बढ़ेगा.
क्यों? पहला तो इसलिए क्योंकि यही शासन का स्वभाव है. शासन या व्यवस्था का मिजाज़ ही टोटैलिटेरियन यानी अधिनायकवादी, एकपक्षीय है. टोटैलिटेरियन के क्या मायने हैं? पूर्ण प्रभुत्व.
पूरे हिंदुस्तान पर, जीवन के हर हिस्से में वे अपनी सत्ता चाहते हैं. और अगर उनका पैटर्न देखें तो वे कदम-दर-कदम इसकी तरफ बढ़ रहे हैं.
वे अपने भाषणों और विज्ञापनों में जो प्रचारित करते हैं और ज़मीन पर रह रहे लोगों की सच्चाई में बहुत अंतर है, भले वो किसान हों या नौकरी गंवा चुका कोई व्यक्ति.
ये फर्क़ आने वाले दो सालों में और बढ़ेगा क्योंकि निवेश आदि नहीं होंगे. और जब ऐसा होगा तब वे न सिर्फ इसे अपने हिसाब से मोड़ना चाहेंगे बल्कि विरोध में उठने वाली हर आवाज़ को दबाया जाएगा. ये वो सच है, जिसे सबसे पहले समझने की ज़रूरत है.
दूसरा यह कि हमें पूरे यक़ीन से आगे बढ़ना होगा. जैसा फली एस. नरीमन ने हमें याद दिलाया कि उनकी पूरी ज़िंदगी में जिसने भी प्रेस के, मीडिया के ख़िलाफ़ उंगली उठाई, उसका हाथ जला ही.
चाहे वो जगन्नाथ मिश्रा हों, राजीव गांधी या श्रीमती गांधी का रामनाथ जी को हटाकर एक छद्म बोर्ड बनाकर इंडियन एक्सप्रेस पर कब्ज़ाने की कोशिश करना, जिसने भी मीडिया के ख़िलाफ़ खड़े होने की कोशिश की, उसको इसका अंजाम भुगतना पड़ा.
एचके दुआ ने याद दिलाया कि डिफेमेशन मुद्दे के समय हमें यहीं मीटिंग करनी चाहिए थी, लेकिन आप और मैं, हम दोनों ही ये जानते हैं कि तब हमारे पास इतने लोग नहीं थे, जितने अब हैं.
फ़िलहाल इस मुद्दे पर सारे तथ्य स्पष्ट हैं, नरीमन उन्हें सामने भी रख चुके हैं, एनडीटीवी ख़ुद उन्हें बता चुका है लेकिन सीबीआई के पास उन तथ्यों का कोई जवाब नहीं है.
आज ही द वायर में एक ख़बर है, जिसमें बताया गया है कि कैसे केवल किसी व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआई) द्वारा देश के दो बड़े घरानों के 30,000 करोड़ रुपये के घपले और उससे हुए नुकसान के ख़िलाफ़ शिकायत की गई और सीबीआई ने उस पर अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है.
प्रतिरोध के वो आठ तरीके जिन पर मीडिया अमल कर सकती है
यह तो साफ है कि तथ्यों को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन मैं एक और सुझाव देना चाहूंगा. यह समय नहीं है कि हम एक-दूसरे की आलोचना करें. मैं ये अपनी ज़िंदगी के तजुर्बे से कह रहा हूं.
अगर आप काम करना चाहते हैं, तब आपका काम किसी भी तरह के आलोचनात्मक रवैये से मुक्त होना चाहिए. क्योंकि ये दिमाग हज़ारों तरीके सुझाएगा कि हमें क्यों मदद नहीं करनी चाहिए. ‘अरे वो तो सारी उमर सिगरेट पीता था, उसको कैंसर तो होना ही था.’
एक-दूसरे के साथ खड़े रहें
नहीं, ये समय आलोचना करते बैठने का नहीं है. अपने दोस्त का समर्थन करें, उसकी मदद करें. क्योंकि वे चालाकी से ऐसी बातें भरकर प्रेस को बांटने की कोशिश करेंगे.
वे आपको इस्तेमाल करेंगे, वे मीडिया का ही इस्तेमाल बाकी मीडिया पर इल्ज़ाम लगाने के लिए करेंगे. मेरा यही आग्रह है कि ख़ुद को उनके हाथ की कठपुतली न बनने दें.
इसलिए एक-दूसरे के साथ खड़े रहिए क्योंकि मैं ये यक़ीन से कह सकता हूं कि दुनिया में कोई चीज़ उतना हौसला नहीं तोड़ती, जितना साथियों-दोस्तों का साथ न खड़े होना. मैंने ऐसा प्रशासनिक सेवा में होते देखा है.
जब प्रशासनिक कर्मचारियों के बीच सीबीआई की पिछली तीन जांचों को लेकर मैंने फैसला लिया था, तब मैंने सीबीआई से कहा, उन्हें लिखकर भेजा कि वे (प्रशासनिक अधिकारी) किसी फैसले के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं, मैं हूं जिसके कहने पर ये फैसले लिए गए हैं. पर बाकी के अधिकारी और साथी उनके साथ खड़े नहीं हुए, जिस बात ने उन्हें काफी निराश किया, इसलिए हमें एक-दूसरे के साथ खड़े रहना है.
फली एस. नरीमन ने हिटलर के कोऑर्डिनेशन ऑफ चर्चेस के विरोध पर एक लुथेरियन पादरी की कही एक चर्चित बात दोहराई. पर इससे भी पुरानी-शायद 2,000 साल पुरानी एक और कहावत है, जो रबी हिलेल ने कही थी:
‘अगर मैं ख़ुद अपने लिए नहीं हूं, तब मेरे लिए कौन है?
अगर मैं ख़ुद के लिए नहीं लड़ूंगा, तो कौन लड़ेगा
अगर सिर्फ मैं ही ख़ुद के लिए हूं, तो मैं हूं कौन?
अगर अब नहीं तो कब?’
(If I am not for myself, who will be for me?
If I don’t fight for myself, who will be for me,
If I am for myself alone, who am I?
If not now, when?)
वैसे मेरी प्रेस के सहयोगियों से एक शिकायत भी है कि हम इन बातों को लेकर सतर्क नहीं हैं. पीछे साल संयोग से मुझे जयपुर में पत्रकारों की एक बैठक में बुलाया गया था और वहां जाकर मुझे पता चला कि राजस्थान पत्रिका को किस तरह शोषण और आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा. नई दिल्ली के अख़बारों का एक औसत पाठक होने के नाते मुझे इस बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी.
दबाव से बचने के लिए सोशल मीडिया और विदेशी मीडिया का प्रयोग करें
तो हमें इस तरह के किसी प्रयास पर नज़र बनाए रखनी है- न केवल प्रणय जैसे मशहूर लोग बल्कि हर एक को- क्योंकि ऐसे ही देश में डर फैलता है.
और इसकी वजह यह है कि सरकार सब देख रही है, सारी प्रतिक्रियाएं. आप इस बात को लेकर पूरी तरह सुनिश्चित हो सकते हैं कि आज यहां कई लोग तो सिर्फ इसीलिए आए हैं कि सरकार उन्हें देख सके.
और मैं यह कह सकता हूं कि वे बहुत संवेदनशील हैं, सोशल मीडिया पर भी. पूरी टीम है उनकी. वो देखती है कि ट्विटर पर क्या चल रहा है, फेसबुक पर क्या चल रहा है.
तो वो जब देखेंगे कि इतने लोग इकट्ठा हुए हैं, रवीश कुमार जैसे निडर लोग इकट्ठे हुए हैं, तो वो जानेंगे कि उन्होंने एक ग़लत कदम लिया है. और फिर उन्हें इससे पीछे हटने के तरीके सोचने पड़ेंगे.
मुझे ऐसा लगता है सरकार सोशल मीडिया का इस्तेमाल झूठ फैलाने और जो लोग उसे पसंद नहीं है, उन्हें गालियां देने के लिए कर रही है, इसलिए आपमें से कुछ को इसके मुकाबले खड़ा होना चाहिए.
सोशल मीडिया पर जितना हो सकते हैं, सक्रिय हों, क्योंकि मोदी के पास प्रधानमंत्री कार्यालय में एक पूरी टीम है, जिसकी कमान हीरेन जोशी नाम के लड़के के हाथ में है, जिससे शायद आपमें से कई मिले भी होंगे- उसका काम केवल सोशल मीडिया देखकर प्रधानमंत्री को जानकारी देना ही है.
वो (मोदी) इसे लेकर काफी संवेदनशील हैं. यही उनकी कमज़ोरी है और खासकर विदेशी मीडिया में जो हो रहा है उसे लेकर. तो यहां जो भी हो रहा है, सोशल मीडिया के ज़रिये उसे विदेशी मीडिया तक पहुंचाइए. सोशल मीडिया का इस्तेमाल सरकार को सूचित करने के लिए करें, जो आपको देख रही है कि आप देख रहे हैं.
झूठी निष्पक्षता से बचें
लेकिन इसमें भी एक तरीका है जिससे हम सरकार की मदद करते हैं. पत्रकारों के लिए सबसे आसान रास्ता है, जिसे कहते हैं, सिक्के के दोनों पहलू दिखाना.
प्रणय रॉय के पास जाइए, उनसे पूछिए, ‘सर, क्या फैक्ट हैं?’ फिर सीबीआई के पास जाइए, उनसे पूछिए कि क्या तथ्य हैं.
ये तरीका है निष्पक्षता का, उन दो लोगों के बीच पूरी निष्पक्षता दिखाने का जो आग लगा रहे हैं और जो उसे बुझाने आए हैं. यह वो तरीका है जिससे सरकार हमें इस्तेमाल कर सकती है.
तो आपको इससे बचना चाहिए. इसलिए इसके परे जाइए और उन कदमों पर नज़र बनाए रखिए, जो सूचना के मुक्त प्रसार को रोकने के लिए उठाए जा रहे हैं.
आरटीआई को कमज़ोर बनाने का विरोध कीजिए
ये बड़े दुख की बात है कि जिस तरह से आरटीआई को कमज़ोर बनाने की कोशिश की गई, हमने उस पर एक समुदाय के बतौर अच्छी तरह प्रतिक्रिया नहीं दी.
राजकमल झा (इंडियन एक्सप्रेस के संपादक) मुझे बता रहे थे कि वे लोग बेहतरीन काम कर रहे हैं, कुलदीप जी, निहाल सिंह ये लोग वहां संपादक रहे हैं, तो ये लोग आरटीआई के ज़रिये सरकार से जानकारियां निकलवाने को लेकर अच्छा काम कर रहे हैं.
पर राजकमल ने मुझे बताया कि उनका हर आवेदन पहली बार में अस्वीकार कर दिया जाता है. इसके बाद अपील के स्तर पर अगर आप कई महीनों तक इस पर लगे रहते हैं, तब शायद आपको कुछ टूटी-फूटी, अधूरी जानकारी मिल जाए. पर हम लोग, जो प्रेस का हिस्सा हैं, इस बात को प्रसारित नहीं कर रहे हैं. पर फिर भी ये हमें मिले सबसे कीमती हक़ों में से एक है.
मेरी गुज़ारिश है कि न केवल अभिव्यक्ति की आज़ादी बल्कि सूचनाओं के प्रसार में अतिक्रमण पर भी बात होनी चाहिए. जस्टिस भगवती ने कहा था, ‘मैं तब ही बोल सकता हूं जब मेरे पास जानकारी हो’, तो जानकारी तक पहुंचने और उसे पाने की आज़ादी अभिव्यक्ति की आज़ादी के ज़रिये आती हैं.
ये मत सोचिए कि तुष्टिकरण से मीडिया में शांति आएगी
एक बहुत ज़रूरी बात जिस पर मैंने बीते 3-4 सालों में ध्यान दिया है और कई पत्रकारों को इसका शिकार होते देखा. ख़ुद को ज़रा भी धोखे में मत रखें कि किसी तरह की रियायत देने से आपको शांति मिलेगी.
आपमें से कईयों को लगता होगा कि अगर आप इन कुछ चुनिंदा मंत्रियों के विचारों को प्रमुखता देंगे या उन्हें ज़्यादा प्रसारण समय देंगे तो वे कोई मुसीबत पड़ने पर आपकी मदद करेंगे.
मेरा दोस्त है वेंकैया नायडू, हमारे अपने पेपर, इंडियन एक्सप्रेस में ¾ पन्ने में वेंकैया नायडू का लेख है, कुलदीप जी ने मुझे भी नहीं दी उतनी जगह- उसको अगर तीसरी क्लास की नोटबुक देकर उसमें ढंग से एक पेज भरने के लिए कहिए तो वो नहीं कर सकता.
मगर आप उसके लेख छापे जा रहे हो? जबकि आप जानते हो कि वो नहीं लिख सकता! क्योंकि आपको लगता है कि ये जगह देकर या उतना प्रसारण समय देकर आप शांति ख़रीद रहे हैं. नहीं, जब आप पर कोई हमला होगा तब इसमें से कुछ मददगार साबित नहीं होगा.
बात ये हो गई है कि यहां मंत्री का कोई है नहीं. ढाई आदमियों की सरकार है. तो ये बेचारे जो स्वामी अग्निवेश के बंधुआ मजदूर हैं, वो आपकी उस तरह मदद नहीं कर सकते हैं.
और तो और वे क्या करेंगे मान लीजिए उनमें से कोई प्रणय रॉय का दोस्त है तो वो ये समझेगा कि मोदी ये सोचेंगे कि ये प्रणय रॉय का दोस्त है, तो इससे दूर रहो.
तो ये मत सोचिये कि किसी रियायत से शांति खरीदी जा सकती है. मैं आग्रह करूंगा कि इस तरह से शांति लाने के बजाय असहयोग और बहिष्कार को अपना हथियार बनाएं.
बहिष्कार का सहारा लें
डिफेमेशन बिल के समय हमने जो सबसे कारगर तरीका इस्तेमाल किया था वो था देशभर के संपादकों को फोन करना. हम उनसे कहते थे कि बस एक चीज़ करिए. अगर राजीव गांधी का कोई मंत्री आपके शहर में आता है तो उससे सबसे पहले बस इतना पूछिए, ‘आप डिफेमेशन बिल के पक्ष में हैं या नहीं?’
अगर वो इसका जवाब न दें या गोल-मोल जवाब दें या फिर हां कहे, तो सीधे वहां से उठिए और बाहर निकल जाइए.
प्रचार आतंकवादियों के लिए ऑक्सीजन की तरह है, वैसे इन बंधुआ मजदूरों के लिए भी ये ऑक्सीजन है. वो दिखाना चाहते हैं मोदी को कि उन्होंने इतनी अच्छी तक़रीर दी, इतनी कवरेज हुई. इसलिए उन्हें इससे वंचित कर दीजिये. उनकी प्रेस कांफ्रेंस का बहिष्कार कर दीजिए.
उन्हें अपनी बैठकों और कांफ्रेंस में मत बुलाइए, कोई ऐसा जिसे आप वैसे नहीं बुलाते पर केवल उसके मंत्री होने की वजह से उसे बुलाना पड़ रहा है. बस इस तरह थोड़ा असहयोग दिखाइए और फिर इसका असर देखिए.
मैं नहीं सोचता कि दुनिया के किसी और देश में आधिकारिक घोषणाओं को इतनी जगह और इतनी प्रमुखता दी जाती है. आपको उन्हें क्लासीफाइड विज्ञापन के पन्ने पर छापना चाहिए.
इनके बजाय altnews.in, Factcheck जैसी साइटों द्वारा किए जा रहे खुलासे पुनः प्रकाशित कीजिए. जब वे सरकार के दावों की असल तथ्यों से तुलना कर रहे हैं और उसे क्यों ऐसे बेकार जाने देना.
आजकल अख़बार शरद यादव, नरेंद्र मोदी और उनके जैसे कईयों के ट्वीट को दोबारा छापते हैं. उसमें क्या रखा है? उस जगह को altnews.in द्वारा बताए गए नए सच से पाठकों को रूबरू करवाने के लिए इस्तेमाल करिए.
और अब तक आप उनके तरीके समझ चुके हैं. उनका तरीका यही है कि अगर कुछ मनमाफिक नहीं होता है, तो उसी वक़्त कोई नई कहानी शुरू कर दो.
तो पहली बात यही है कि अपने दर्शकों और पाठकों को भटकाने का साधन मत बनिए. उनका ध्यान मुख्य मुद्दे पर केंद्रित रखिए. इसका बात का ख़याल रखिए कि कहीं आप उनका काम न करें.
असल मुद्दों पर ध्यान दें
इसके साथ ही साथ वो सभी काम दोगुने गति से करने शुरू कर दीजिए जिनसे सरकार परेशान होती है. आपके सही रास्ते पर होने की गारंटी यही है कि सरकार जो खोज कर लाते हैं उससे परेशान होती है.
अरुण पुरी के पास एक स्लोगन हुआ करता था, ‘समाचार वही है जो सरकार छुपाना चाहती है, इसके अलावा बाकी सब सिर्फ प्रोपगेंडा (प्रचार) है.’
आपको उसे खोजकर निकालना चाहिए.
और आख़िर में ये याद रखिएगा कि हमारे पास सुरक्षा के बस तीन रास्ते हैं. पहला हमारी एकजुटता. दूसरा हमारे न्यायालय. इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि सरकार द्वारा न्यायपालिका को कमज़ोर करने के लिए उठाए जा रहे कदमों को पूरी प्रमुखता से दिखाया जाए.
और तीसरी बात अपने दर्शकों और पाठकों की सुरक्षा. सरकार को सूचित करने के लिए ट्विटर का इस्तेमाल कीजिए पर ख़ुद ही ट्विटर हैंडल मत बन जाइए.
जो मसले पाठकों की ज़िंदगी और मौत से जुड़े हैं, उनके तथ्यों की गहराई में जाइए. ताकि अगर कभी आप पर कोई उंगली उठे तब पाठक को लगे कि ये उंगली उस पर भी उठी है.
सरकार के नियंत्रण और सेंसरशिप से बचकर निकलने के तरीके सीखिए.
और आख़िरकार मुझे ऐसा यक़ीन है कि साल भर से भी कम समय में मुख्यधारा के चैनलों और मीडिया से ख़बर लेना और इनके ज़रिये कोई सूचना प्रसारित करना लगभग नामुमकिन हो जाएगा.
इसलिए ये ज़रूरी हो जाता है कि हम ऐसे नौजवानों की मदद लें, जो हैकिंग में माहिर हैं, जिन्हें सरकार की सेंसरशिप से निकलना आता है, जो इंटरनेट के ज़रिये सूचनाएं इकट्ठी करके उसे प्रसारित करना जानते हैं.
अगर चीन के लोग चीनी सरकार से बचकर निकल सकते हैं, तो हम भी निकल सकते हैं. तो देश में या देश के बाहर कुछ ऐसे भारतीयों के समूह बनाएं, जो सरकार की सेंसरशिप से निकल सकें.
और आख़िर में यही कहूंगा कि अगर वे सब नियंत्रित करने में कामयाब भी हो जाएं, तो निराश होने की ज़रूरत नहीं है. क्योंकि जैसा मैंने पहले ही कहा था सबको जाना है. साथ ही,
जब वे मीडिया को पूरी तरह नियंत्रित कर लेंगे तब जनता ख़ुद ये फर्क़ महसूस करेगी कि उन्हें क्या दिखाया जा रहा है और असल ज़िंदगी में उनके साथ क्या हो रहा है.
और ये सरकार जो गायों को पूजती है, इसके पास बस मरी हुई गायें रह जाएंगी.
इस लड़ाई के लिए आपको शुभकामनाएं, धन्यवाद.
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