बीते जनवरी में राज्य में हुई सात लोगों की हत्या को पुलिस और सीआरपीएफ ने पत्थलगड़ी से जुड़ा बताया था, जबकि ग्रामीणों का कहना है कि यह एक नए पंथ सती पति से जुड़े लोगों द्वारा सरकारी योजनाओं का लाभ न लेने, आदिवासी परंपराओं को न मानने देने, कागज़ात जमा करने के विरोध में हुए मतभेदों का नतीजा है.
आदिवासियों के बीच पत्थलगड़ी एक पुरानी परंपरा है. इस प्रागैतिहासिक और पाषाणकालीन परंपरा को आदिवासियों ने ही सहेजकर रखा है. उनमें किसी की मृत्यु होने पर कब्र पर पत्थर रखने, गांव का सीमांकन करने, किसी गांव को बसाने वाले पुरखों का नाम अंकित करने, सूचना देने आदि के लिए पत्थलगड़ी की परंपरा रही है.
इसका एक ऐतिहासिक पहलू भी है. ब्रिटिश शासन के समय जमीन पर अपना हक साबित करने के लिए वे पत्थलगड़ी के पत्थरों का प्रयोग करते थे. कहा जाता है कि हुल के पूर्व भी अपना दावा स्थापित करने के लिए वे उन पत्थरों को ढोकर कलकत्ता कोर्ट के लिए निकल पड़े थे.
शैलेन्द्र महतो की किताब झारखंड की समरगाथा में भी इस बात की चर्चा है कि 1927 में, जब अंग्रेजों ने इंडियन रिजर्व फॉरेस्ट कानून लागू किया, तब झारखंड के जंगलों में पीढ़ियों से बसे आदिवासियों को भगा दिया गया था.
बाद में झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के सारंडा इलाके के आदिवासी वापस लौटे और मसना में गाड़े पत्थरों, आम और इमली के पेड़ों से अपने जमीन की पहचान की और वहां फिर बस गए, इसलिए आज भी हर आदिवासी गांव में इमली के विशाल गाछ (पेड़) जरूर देखने को मिलते हैं.
यह चर्चा यहां इसलिए है क्योंकि आदिवासी इलाकों में कोई व्यवस्था अकारण नहीं होती. उनकी परंपराओं के पीछे भी एक इतिहास है, संघर्ष है. पारंपरिक पत्थलगड़ी भी जंगल, ज़मीन पर आदिवासियों की दावेदारी को पुख्ता करती हैं.
कब और कैसे शुरू हुई नए तरह की पत्थलगड़ी?
अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मुकेश बिरुवा कहते हैं कि 2008 में इस महासभा का गठन किया गया था. उसी दौरान विजय कुजूर इस महासभा से जुड़े. वे पश्चिम बंगाल में शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के जनरल मैनेजर थे.
धीरे-धीरे उन्होंने अपना एक अलग समूह बना लिया, जिसमें कृष्णा हांसदा, बबीता कच्छप, जोसेफ पूर्ति आदि शामिल थे. विजय कुजूर को उनके अध्ययन के दौरान गुजरात के कुंवर केशरी सिंह का मामला दिखा. उन्होंने देखा कि गुजरात में आदिवासियों को काफी ऑटोनॉमी हासिल है, तब उन्होंने सोचा कि झारखंड के आदिवासियों को यह क्यों नहीं मिल सकती?
इस विचार के साथ वे गुजरात गए. वहां से लौटने के बाद उन्होंने आदिवासी महासभा के बैनर तले झारखंड में पत्थर पर संविधान के कुछ अनुच्छेद लिखकर गांव की सीमा पर गाड़ने का संकल्प लिया. वे अपने नाम के आगे ‘एसी’ (एंटी क्राइस्ट/ धर्मपूर्वी आदिवासी) लिखने लगे.
उन्होंने गुजरात के एसी भारत सरकार कुटुंब परिवार के नाम का इस्तेमाल करते हुए झारखंड में पत्थर पर संविधान के अनुच्छेद लिखते हुए एक नए तरीके की पत्थलगड़ी की शुरुआत की.
ज़मीन जाने का ख़तरा और उससे बचने का रास्ता
उन दिनों झारखंड के आदिवासी तत्कालीन भाजपा सरकार की सीएनटी- एसपीटी एक्ट में संशोधन की घोषणा से, अपनी ज़मीन चले जाने और सरकार द्वारा लैंड बैंक में जमीन रख लिए जाने की आशंका से डरे हुए थे.
संशोधन के विरोध में प्रदर्शन के दौरान खूंटी में गोलीकांड भी हुआ, जिसमें एक की मौत हुई और कई घायल हो गए. कई लोग जेल में भी डाले गए. इससे लोगों में गहरी चिंता आयी और आक्रोश पनपा.
इस चिंता और आक्रोश से लोग तेज़ी से इस नए तरीके की पत्थलगड़ी से जुड़ने लगे और जल्द ही यह कई गांवों में फैल गया. इसे सरकार के ख़िलाफ़ आदिवासियों के विद्रोह के रूप में देखा गया, फिर पुलिसिया दमन शुरू हुआ. लोगों पर राजद्रोह का केस लगा, जिससे झारखंड के कई आदिवासी इलाकों में आतंक का माहौल बन गया.
विजय कुजूर की गिरफ़्तारी के बाद उनके आदिवासी महासभा से जुड़े कुछ लोग खुद को उनसे अलग बताने लगे और भूमिगत तरीके से एसी भारत कुटुंब परिवार के सती पति कल्ट (पंथ) का प्रचार प्रसार करने लगे.
आदिवासियों में नए पंथ का प्रसार कर रहा है गुजरात
मुकेश बिरुवा बताते हैं कि इस मामला को समझने के लिए उनके सहित तीन लोग, जिनमें एक वकील भी शामिल थे , गुजरात गए और वहां कुंवर केशरी सिंह के पौत्र केशरी रविंद्र सिंह से मुलाकात की. रविंद्र सिंह ने उन्हें बताया कि उनका क्षेत्र प्रिवी काउंसिल से जुड़ा है.
तब मुकेश बिरुवा ने उनसे पूछा था कि फिर उनका अधिकारक्षेत्र झारखंड के खूंटी में कैसे चल रहा था? रविंद्र सिंह ने इससे साफ इनकार किया था कि खूंटी का पत्थलगड़ी आंदोलन उनके द्वारा संचालित है.
मुकेश बिरुवा ने बताया कि केशरी रविंद्र सिंह लकवाग्रस्त हैं और बिस्तर पर हैं. किसी के आने पर बस मुस्कुराते हैं, बहुत कम बोलते हैं. यदि वे खूंटी के लोगों को पत्थलगड़ी आंदोलन के लिए प्रशक्षिण नहीं दे रहे हैं, तो फिर गुजरात के वे कौन लोग हैं, जो झारखंड के आदिवासियों को नये कल्ट की ओर उन्मुख कर रहे हैं?
आखिर पुलिस उन्हें क्यों नहीं पकड़ रही है? यदि खूंटी के आदिवासी राजद्रोही घोषित किये जा रहे हैं, तब गुजरात से उन्हें ऐसी गतिविधियों के लिए उकसाने वाले लोगों पर राजद्रोह का आरोप क्यों नहीं लगाया जाता?
पत्थलगड़ी के बहाने फैल रहा गुजरात का सती पति कल्ट
इस बात को समझना जरूरी है कि आदिवासियों में अपने जमीन खोने, जंगल से निकाले जाने का डर गहरा है. अपने इलाके में बाहरियों के निर्बाध प्रवेश को वे अपने जनजीवन में दखलअंदाज़ी समझते हैं. उनके द्वारा ज़मीन छीने जाने से डरते हैं. यही कारण है कि व्यवसाय करने के लिए जंगल के अंदर और आदिवासी इलाकों में प्रवेश करने वाले साहूकारों और ठेकेदारों से उनकी झड़प और कहासुनी होती रहती है.
आदिवासी स्त्रियों के साथ साहूकारों, ठेकेदारों द्वारा छेड़छाड़ की घटनाओं ने पूर्व में कई हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया है. आदिवासी इलाकों में बढ़ती पुलिस छावनियों को भी आदिवासी अपनी स्वतंत्रता और जनजीवन पर हस्तक्षेप की तरह देखते हैं. अब उनके डर से स्त्रियां जंगल अकेली नहीं जाती. लोग समूहों में निकलते हैं. देर रात में सीआरपीएफ के जवानों द्वारा दरवाजा खटखटाने से वे परेशान होते हैं.
अभी झारखंड में पत्थलगड़ी का मामला शांत है, लेकिन एसी भारत सरकार कुटुंब परिवार के सती पति कल्ट का प्रचार प्रसार चल रहा है. पिछले डेढ़ साल से यह प्रचार प्रसार झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के गुदड़ी प्रखंड के बुरुगुलिकेरा गांव में भी चल रहा था.
खूंटी पत्थलगड़ी मामले से जुड़े लोग भागकर इसी गांव में ठहरे थे, जहां पिछले दिनों में सात आदिवासियों के नरसंहार की लोमहर्षक घटना हुई है. वहां के ग्रामीणों ने उस गांव मे पिछले दिनों खूंटी पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े जोसफ पूर्ति की मौजूदगी बतायी है.
गांव के कुछ लोगों ने बताया कि गुजरात के सती पति कल्ट से जुड़े लोग, आदिवासी परंपराओं के पालन पर भी रोक लगाते हैं. वहां नए तरह की पत्थलगड़ी नहीं हो रही है, लेकिन सरकारी योजनाएं नहीं लेने, देश और सरकार को नहीं मानने और यहां तक कि ज़मीन के खतियान को नहीं मानने का दबाव जरूर बनाया जाता है. इससे आदिवासियों में असमंजस की स्थति है.
आदिवासियों के पर्व-त्योहारों पर रोक से इस गांव में आदिवासियों के दो समूह तैयार हो गए, जो एक दूसरे का विरोध करते हैं. बुरुगुलिकेरा गांव में हाल में हुए नरसंहार के पीछे भी यही मतभेद काम कर रहा था.
आदिवासियों पर अपनी परंपराएं छोड़ने का दबाव
बुरुगुलिकेरा गांव में मुंडा आदिवासी रहते हैं. गांव के लोगों ने बताया कि इतने वर्षों में कभी भी वहां किसी तरह की हिंसा नहीं हुई. ऐसा कोई मतभेद नहीं हुआ, जिसमें किसी की हत्या की गई हो. उधर, डेढ़ साल से एसी भारत कुटुंब परिवार के सती पति कल्ट के प्रचार प्रसार के कारण ईसाई बन चुके आदिवासियों का चर्च जाना बंद है.
सरना आदिवासियों पर भी अपनी परंपरा न मानने का दबाव था. वहां के कुछ आदिवासियों को गुजरात में प्रशिक्षण दिया गया था, जो अपने नाम के आगे एसी (एंटे क्राइस्ट) लगाते हैं.
उनके द्वारा गांव में विश्व शांति सम्मेलन के नाम पर लगातार बैठकें की जा रही थीं जो सामान्य ग्रामसभा की नहीं, बल्कि इससे अलग एसी भारत कुटुंब परिवार के सती पति कल्ट को मानने वाले लोगों की बैठकें थीं.
गांव के 80 परिवार सरकारी योजनाओं के बहिष्कार के दबाव के खिलाफ थे. वे सरकार की योजनाओं का लाभ लेना चाहते थे. इस बात को लेकर गांव में लंबे समय से तनाव का माहौल चल रहा था.
पर्व न मानने देने पर फूटा गुस्सा
जनवरी में बुरुगुलिकेरा गांव में आदिवासी मागे पर्व मानना चाहते थे, जिस पर सती पति कल्ट से जुड़े गांव के दल ने रोक लगायी थी. इस बात को लेकर दूसरे लोगों में काफी आक्रोश था.
इसी क्रम में मागे पर्व मनाने के दौरान कुछ युवाओं ने दूसरे समूह के लोगों के घर जाकर मारपीट की और उनकी मोटरसाइकिल तोड दी. यह 16 जनवरी की घटना है. उसी रात सती पति कल्ट से जुड़े समूह ने तोड़ फोड़ करने वाले पांच युवाओं को अगवा कर लिया.
दो दिन के बाद 19 जनवरी को बैठक बुलाई गई. यह बैठक सती पति कल्ट को मानने वालों ने बुलाई थी. इसी बैठक में अन्य दो लोगों को भी पकड़ा गया, जिन्हें तोड़-फोड़ में शामिल बताया गया. उन सात लोगों की हत्या जंगल में कर दी गई.
पुलिस ने बता दिया पत्थलगड़ी का मुद्दा
गांव की महिला मुक्ता होरो का कहना है कि इस हत्याकांड में नक्सलियों की संलिप्तता भी संभव है. इससे पहले इस गांव में इतनी क्रूरता की घटना कभी नहीं हुई. 20 जनवरी को ही पुलिस को सूचना भी दी गई थी, लेकिन तब पुलिस मौके पर नहीं पहुंची.
घटना के बाद पुलिस और सीआरपीएफ का दल गांव पहुंचा और इसे पत्थलगड़ी से जुड़ा मामला बताया. जबकि ग्रामीणों का कहना है यह सती पति कल्ट से जुड़े लोगों द्वारा सरकारी योजनाओं का लाभ न लेने, आदिवासी परंपराओं को न मानने देने, कागज़ात जमा करने के विरोध में बढ़े मतभेदों का नतीजा है.
लोगों में ज़मीन खोने, जंगल से निकाले जाने का डर
बुरुगुलिकेरा गांव के आस पास अवैध खनन हो रहे हैं. पहाड़ों पर ब्लास्टिंग की जाती है जिससे ग्रामीणों के खेतों में पत्थर गिरते हैं. इससे लोगों को खेती में मुश्किलें आती हैं. पिछली सरकार की सीएनटी एक्ट में संशोधन की पहल ने लोगों में ज़मीन छीने जाने के डर को गहराया था.
इस गांव में कोई सरकारी सुविधा नहीं पहुंचती. रास्ते में एक बड़ा बांध है. लोग इसके पानी का प्रयोग पीने के लिए नहीं करते. वे कहते हैं कि सरकार इसका पानी शहरों को बेचेगी. सड़कों की हालत बहुत बुरी है. कहीं कहीं पक्की सड़क दिखती है, लेकिन वह गांवों तक नहीं पहुंचती.
जल, जंगल, ज़मीन की सुरक्षा सुनिश्चित करे सरकार
आदिवासियों के ज़मीन जाने, जंगल से निकाले जाने के डर से नये तरह की पत्थलगड़ी और एसी भारत सरकार कुटुंब परिवार की मान्यताएं तेज़ी से सुदूरवर्ती इलाकों में भी फैलने लगीं. जो भी विचारधारा आदिवासियों की जमीन, जंगल बचाने की बात करती है, वे तेज़ी से उनकी ओर उन्मुख होते हैं.
यह भी कुछ उसी तरह का मामला है, जब अंग्रजों के शासनकाल में मिशनरियों द्वारा उनकी ज़मीन बचाने के आश्वासन पर आदिवासी ईसाइयत की ओर तेजी से मुड़े थे. वैसे ही आज भी कई ग्रामीण इलाकों के आदिवासी जमीन बचाने की बात पर एसी भारत कुटुंब परिवार के सती पति कल्ट की ओर उन्मुख हो रहे हैं.
गुजरात से चले एसी भारत सरकार कुटुंब परिवार के सती पति कल्ट के नाम पर कुछ लोग उनके इसी डर को भुना रहे हैं. पर इसके साथ ही झारखंड के आदिवासियों के राजद्रोही घोषित होने का रास्ता भी तैयार कर रहे हैं.
यह स्पष्ट है कि अब तक कोई भी सरकार उन्हें उनके जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा का मुक्कमल भरोसा नहीं दिला पाई है. जब तक सरकार आदिवासियों को उनके जल, जंगल, ज़मीन की सुरक्षा के लिए आश्वस्त नहीं करती, तब तक किसी न किसी रूप में नए आंदोलनों के खड़े होने की संभावना भी बनी रहेगी.
(जसिंता केरकेट्टा स्वतंत्र पत्रकार हैं.)