चुनावों में हुई हार संघ के हिंदुत्व अभियान की आग को और हवा देंगी

भाजपा का एजेंडा चुनाव की जीत से कहीं ज़्यादा बड़ा है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमित शाह (फोटो: रॉयटर्स)

भाजपा का एजेंडा चुनाव की जीत से कहीं ज़्यादा बड़ा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमित शाह (फोटो: रॉयटर्स)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमित शाह (फोटो: रॉयटर्स)

2019 के लोकसभा चुनाव में एक जबरदस्त बहुमत के साथ जीत दर्ज करने के बाद भारतीय जनता पार्टी को एक के बाद चार राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है. इन चारों राज्यों में भाजपा का एक ही फॉर्मूला था- राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़काने का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल. इसकी कमान सीधे नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथों मे थी जबकि आदित्यनाथ और कुछ स्थानीय नेता सहायक भूमिकाओं में थे. लेकिन पार्टी कहीं भी बहुमत हासिल करने में कामयाब नहीं रही.

हरियाणा में पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा और इसने आनन-फानन में किसी तरह से जननायक जनता पार्टी के साथ गठबंधन बनाकर वहां सरकार का गठन किया. महाराष्ट्र में नतीजे आने के बाद शिवसेना गठबंधन से बाहर निकल गई. यहां हमने सुबह होने से पहले देवेंद्र फड़नवीस को चोरी-छिपे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का प्रहसन भी देखा, हालांकि अजित पवार जरूरी आंकड़ा नहीं जुटा सके.

झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस को जीत हुई और अब दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने भाजपा को करारी शिकस्त दी है. बहुमत हासिल करने की उम्मीद लगाए बैठी पार्टी को महज आठ सीटों से ही संतोष करना पड़ा.

कोई भी पार्टी अपनी चुनावी रणनीति की समीक्षा करेगी और कुछ नहीं तो कम से कम यह स्वीकारेगी कि राज्य के स्तर पर मतदाताओं को स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढांचा जैसे जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों की ज्यादा चिंता है. और उसे यह समझ में आएगा कि कश्मीर, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) और हिंदू धर्म पर तथाकथित खतरे की बातें, मतदाताओं पर एक सीमा के बाद असर नहीं डालतीं.

इसे ध्यान में रहते हुए वह आने वाले दो वर्षों में होने वाले बिहार, बंगाल, असम और तमिलनाडु जैसे राज्यों के महत्वपूर्ण चुनावों के बाबत अपनी रणनीति को नई शक्ल देगी.

लेकिन भाजपा ऐसा नहीं करेगी. इसके समर्थकों ने अभी से ही कहना शुरू कर दिया है कि 2020 (दिल्ली) में पार्टी को पिछली बार के मुकाबले लगभग तीन गुना ज्यादा सीटें मिली हैं.

और इसके नेता यह दावा कर रहे हैं कि इसके मत प्रतिशत में छह प्रतिशत से ज्यादा उछाल इस बात का सबूत है कि सीएए को केंद्र में रखकर चलाए गए अभियान को अच्छा समर्थन मिला. इसलिए पार्टी आने वाले महीनों में अपना रास्ता नहीं बदलेगी.

यह विश्लेषण भाजपा के चश्मे से देखने पर भले तार्किक नजर आए, लेकिन इसका असली कारण कुछ और है. कोई भी पार्टी अपने जिताऊ फॉर्मूले के साथ छेड़छाड़ करना पसंद नहीं करती है और यह मुमकिन है कि बेहद खराब प्रदर्शन करने के बावजूद भाजपा संतुष्ट हो.

चुनाव जीतना भाजपा और व्यापक संघ परिवार का एकमात्र मकसद नहीं है. एक जीत स्वागतयोग्य और मददगार होती, लेकिन फिर भी यह अंतिम लक्ष्य की तरफ बढ़ाया जाने वाला एक कदम ही है.

संघ इस बात को लेकर बिल्कुल स्पष्ट है कि वह कहां पहुंचना चाहता है और क्या हासिल करना चाहता है. और यह मकसद है एक हिंदू राष्ट्र, जिसे राज्य की शक्ति, सरकारी मदद और अन्य पूरी तरह से कानूनी तरीकों के संयोग से हासिल किया जाना है.

जमीन पर एक लगातार चलने वाला नफरत से भरा अभियान इसमें मदद करेगा. सिर्फ मुस्लिमों को हाशिये पर डालना या उनके अधिकार छीनना ही इस रणनीति में शामिल नहीं है; लक्ष्य है उनका इस सीमा तक अमानवीकरण करना कि बाकी देश यह स्वीकार कर ले कि यह परियोजना न केवल पूरी तरह से वैध है, बल्कि वास्तव में ऐसा करना बिल्कुल जरूरी है.

हो सकता है कि एक कनिष्ठ मंत्री द्वारा लगवाया गया गोली मारो सालों को  जैसा नारा चुनाव प्रचार की उत्तेजना में कहा गया हो (जो कि कोई बहाना नहीं है) लेकिन यह पार्टी की उस रणनीति में एकदम फिट बैठता है, जिसका मकसद मुसलमानों को देशद्रोही के तौर पर पेश करके आग को भड़काए रखना है.

दिल्ली के कृष्णा नगर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी सभा को संबोधित करते केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह. (फोटो: ट्विटर/@BJP4Delhi)
दिल्ली के कृष्णा नगर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी सभा को संबोधित करते केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह. (फोटो: ट्विटर/@BJP4Delhi)

ऐसे जहरीले भाषणों की कई मिसालें हैं, और इनके सामने आने की रफ्तार इतनी तेज है कि इनमें से हर किसी का जवाब देना मुमकिन नहीं होता है.

धीरे-धीरे उन्हें न सिर्फ सामान्य मान लिया जाता है, बल्कि वह मुख्यधारा का हिस्सा बन जाता है. कोई भी अच्छा भारतीय और ऐसे करोड़ों लोग हैं, मुसलमानों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता है, लेकिन अगर उनके दिमाग में शक का एक बीज भी पड़ जाए तो संघ का काम हो जाता है.

जहिर है यह आसान नहीं होगा. भारतीय सौहार्द और अपने पड़ोसी के साथ शांतिपूर्वक रहने की कीमत जानते हैं.

हम में से ज्यादातर लोग अपनी रोजी-रोटी कमाने में ही इतने मशगूल हैं कि हमारे लिए इनके बारे में सोचना संभव नहीं है. हम देशप्रेमी भी हैं और हमें भाजपा से सर्टिफिकेट लेने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती.

लेकिन एक क्षण ठहरकर यह सोचिए कि हम बस एक या दो पीढ़ी के अंतराल में कहां पहुंच गए हैं?

ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा सार्वजनिक तौर पर खुलेआम सांप्रदायिक बयान दिए जा रहे हैं; नरेंद्र मोदी का समर्थक आधार उनके घृणा फैलाने वाले भाषणों, यहां तक कि उनकी सरकार की अक्षमता के बावजूद उनके प्रति अब भी वफादार बना हुआ है.

पॉपुलर कल्चर (लोकप्रिय संस्कृति) हिंसक राष्ट्रवाद को हवा देने में जिस तरह से खुश है, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया था. संघ द्वारा सांस्कृतिक संस्थाओं पर कब्जा करने का काम करीब-करीब पूरा हो चुका है.

स्कूली बच्चों की शिक्षा में बड़े पैमाने पर बदलाव किया जा रहा है और इतिहास बदलने वाली पाठ्य पुस्तकें स्कूलों में लगाई जा रही हैं. बचा-खुचा काम एनपीआर और एनआरसी कर देंगे.

एक मजबूत जवाबी राजनीतिक नैरेटिव का न होना चिंता का विषय है. माकपा को छोड़कर बहुत कम सियासी पार्टियां हैं, जो दृढ़ता के साथ हिंदुत्व और यहां तक कि सीएए-एनआरसी कवायद के खिलाफ खुलकर सामने आयी हैं.

अरविंद केजरीवाल खुशी-खुशी विरोध प्रदर्शनों से दूर रहे; इसे भाजपा द्वारा बिछाए गए जाल में न फंसने की रणनीति के तौर पर देखा गया. वे अब क्या करते हैं, यह देखने वाली बात होगी.

उनका हिंदुत्व की और झुकाव लंबे समय से समस्यादायक रहा है. शिवसेना का रवैया ढुलमुल रहा है और नीतीश कुमार इस कानून पर खामोश हैं.

कांग्रेस पूरी तरह से दिशाहीनता का शिकार है. निजी स्तर पर अमरिंदर सिंह जैसे नेताओं ने नेतृत्व संभाला है और कमलनाथ ने उनका अनुसरण किया है, लेकिन पार्टी बिना पतवार की नैया बनी हुई है.

सॉफ्ट हिंदुत्व से पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ और अब पार्टी को आगे का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है.

दरसल भारत के लोग ही हैं जो अपने देश के लिए खड़े हो रहे हैं. शाहीन बाग और देशभर में हुए वैसे ही प्रदर्शनों ने निश्चित तौर पर भाजपा को चकित कर दिया.

विधानसभा चुनावों के नतीजे नफरत और सांप्रदायिकता के प्रसार का प्रतिरोध करने के जनता के संकल्प को दिखाते हैं.

संघ बिना रुके, बिना थके अपने एजेंडे को हासिल करने के रास्ते पर न सिर्फ बढ़ता रहेगा, बल्कि इसमें और ताकत झोंकेगा. चुनावी पराजय उसके संकल्प को कमजोर करने की बजाय और मजबूत करेगी. फिर भी यह यह सफर आसान नहीं होने वाला है.

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