भारत की स्वतंत्रता के 75 साल का जश्न मनाने के लिए चल रहे ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ के आधिकारिक पत्राचार में देश के वर्तमान और एकमात्र ‘प्रिय नेता’ का ही ज़िक्र और तस्वीरें दिखाई दे रहे हैं.
आज की तारीख़ में संघियों और नेताओं के बेतुके बयानों को हंसी में नहीं उड़ाया जा सकता क्योंकि किसी भी दिन ये सरकारी नीति की शक्ल में सामने आ सकते हैं.
बाल ठाकरे के पास उनके शिवसैनिकों के लिए एक स्पष्ट योजना और दृष्टिकोण था. आज की तारीख़ में उनके बेटे के पास अपने निराश कैडर के लिए क्या है?
नूपुर शर्मा उन्हें सिखाए गए तरीके से ही खेल रही थीं. अतीत में उन्हें या भाजपा की ओर से बोलने वाले उनके किसी भी सहकर्मी को कभी भी हिंसक मुस्लिम विरोधी टिप्पणियों के लिए फटकार नहीं मिली. असल में तो ऐसा लगता है कि यह पार्टी के शीर्ष नेताओं की नज़र में आने का बढ़िया तरीका रहा है.
हिंदी फिल्में सफलता के लिए आबादी के हर हिस्से और हर धर्म के दर्शकों पर निर्भर करती हैं. पर इस बार यहां हमारे सामने एक ऐसी फिल्म आई, जिसे सिर्फ (कट्टर) हिंदू दर्शकों की ही दरकार है.
मुग़ल शब्द को भारतीय मुसलमानों को इंगित करने वाला प्रॉक्सी बना दिया गया है. पिछले आठ सालों में, इस समुदाय को- आर्थिक, सामाजिक और यहां तक कि शारीरिक तौर पर- निशाना बनाना न सिर्फ उन्मादी गिरोहबंद भीड़, बल्कि सरकारों की भी शीर्ष प्राथमिकता बन गई है.
देश में स्मारकों को लेकर किए जा रहे दावों के बीच राजसमंद से भाजपा सांसद और जयपुर के राजघराने की सदस्य दिया कुमारी ने ताजमहल पर अपनी मिल्कियत का दावा किया है. लेखक और ब्लॉगर राना सफ़वी बताती हैं कि इस बात के पुख़्ता प्रमाण मौजूद हैं कि ताज की ज़मीन के बदले शाही परिवार को चार हवेलियां दी गई थीं.
देश के सुरक्षा बल राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं, जिसे नफ़रत और कट्टरता चाहने वाली ताक़तें पसंद नहीं करती हैं.
अमित शाह जानते हैं कि सभी भारतीयों पर हिंदी थोपने का उनका इरादा व्यवहारिक नहीं है. लेकिन इससे उनका ध्रुवीकरण का एजेंडा तो सध ही रहा है.
मुस्लिमों की लानत-मलामत करना चुनाव जीतने का फॉर्मूला बन चुका है. और देश के हालात देखकर लगता नहीं है कि ये आने वाले समय में असफल होगा.
विवेक रंजन अग्निहोत्री भाजपा के पसंदीदा फिल्मकार के रूप में उभर रहे हैं और उन्हें पार्टी का पूरा समर्थन मिल रहा है.
एक सार्वभौमिक और मानवतावादी प्रार्थना को हटाना वही संदेश देता है, जिसे ‘न्यू इंडिया’ सुनना चाहता है.
किंग लियर यूं तो किसी की आलोचना को बर्दाश्त नहीं करता था, मगर उसने एक दरबारी विदूषक को कुछ भी कहने की इजाज़त दे रखी थी. आज के भारत में ऐसा होने की भी गुंजाइश नहीं है. हमारे लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए, मगर उतने ही तानाशाह नेता अपने आसपास सच बोलने वाले किसी मसखरे की अपेक्षा चाटुकारों और चारणों को पसंद करते हैं.
सरकारी जांच एजेंसियों द्वारा छापे मारे जाने और गिरफ़्तारी के डर के चलते अधिकतर लोग चुप रहने का ही विकल्प चुनेंगे.
कांग्रेस अब भी राष्ट्रीय राजनीति में मायने रखती है, लेकिन उसे वक़्त के हिसाब से ख़ुद को नया रूप देते हुए धर्मनिरपेक्षता पर ध्यान केंद्रित करना होगा.