शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के ख़िलाफ़ बैठी महिलाओं का कहना है कि मज़हबी होने का मतलब कट्टरता नहीं बल्कि भाईचारा है. हम हर मज़हब और उसके मानने वालों की इज्ज़त करते हैं. सब अपने-अपने दस्तूर मानें और माननें दें.
उस रोज शाहीन बाग में एक ख़ातून ने ऐलान किया, ‘हम अपने मंच से तमाम स्पीकर से ये गुज़ारिश करते हैं कि आप इस मंच से इस तरह की कोई बात नहीं बोलेंगे जिससे किसी के विचारों को ठेस पहुंचे.’
यह ऐलान हर आधे-एक-घंटे पर मंच पर दोहराया जा रहा था. मंच पर एक के बाद एक लोग- अकेले और टोलियों में – अपना समर्थन देने आ रहे थे. एक औरतों-लड़कियों की टोली हरियाणा से आई थी.
असम से आए एक सज्जन ने बताया के उनका नाम एनआरसी की लिस्ट में नहीं आया है. हर थोड़ी देर बाद नारे लग रहे थे, जिनमें एक था, ‘भारत के हैं चार सिपाही – हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई.’
कैसे शुरू होता है शाहीन बाग का दिन
यहां सुबह सूरज निकलने से पहले ही दरियां हटाकर झाडू लगाई जाती है, फिर दरियां बिछा दी जाती हैं. शामियाने के बाहर सड़कों पर भी सफ़ाई मोहल्ले के लोग खुद ही कर लेते हैं.
बताते हैं कि एक बार एक टोली आई थी जिसमें डॉक्टर, टीचर सभी शामिल थे. उन्होंने ख्वाहिश ज़ाहिर की थी कि सफ़ाई वे करेंगे और मना करने के बावजूद सफ़ाई की. सुबह सफाई के बाद प्रोग्राम या जश्न-ए-जम्हूरियत की शुरुआत राष्ट्रगान से होती है.
कई बार यहां सर्व धर्म सभा हो चुकी है. काफी दिन से सिख भाई लंगर बना और खिला रहे हैं. बीते दिनों काफी तादाद में पंजाब के किसान प्रोटेस्ट में शामिल होने आए हुए हैं. यह सिख भाई रात-दिन यहीं रुके हुए हैं इस वचन के साथ के अगर बहनों पर पुलिस ने हमला किया तो पहले उनसे निपटना होगा.
शामियाने के बहार जश्न का-सा माहौल लगता है. एक तरफ यूनिवर्सिटी के छात्रों ने पुस्तकालय बनाया हुआ है. यहां संविधान से लेकर कैफ़ी आज़मी तक की किताबें मौजूद हैं. एक वक़्त में दस-बारह लोग किताबें और अखबार पढ़ते नज़र आ जाते हैं.
वसुंधरा गौतम, जामिया के अंग्रेजी डिपार्टमेंट में पीएचडी कर रही हैं. वह और उनके चार साथी, उसामा, युसूफ और यूनुस ने बच्चों के लिए एक खाली जगह पर, ‘रीड फॉर इंडिया [Read for India] नाम से कैंप लगा रखा है.
यहां दिन के एक बजे से रात दस बजे तक बच्चे रहते हैं. कोई ड्राइंग बनाता है, कोई कहानी की किताब चाव से पढ़ता है और कोई लिखता हुआ मिलता है. हर वक़्त कम से कम बीस-पच्चीस बच्चे यहां मौजूद होते हैं और दिन भर में कम से कम सौ सवा-सौ तक आते हैं.
जब माएं जाने लगती हैं तो बच्चों को पुकार लेती हैं. उसामा ने बताया कि कई बच्चे जो लिखना नहीं जानते थे, बीते एक-डेढ़ महीने में लिखना सीख गए हैं.
शामियाने के बाहर समूह में खड़े लड़के-लड़कियां कभी नारे लगाते, कभी नुक्कड़ नाटक करते दिखते हैं. स्टेज के पीछे मेडिकल कैंप लगा हुआ है, जहां अपोलो, मैक्स, मौलाना आज़ाद अस्पताल और एम्स के डॉक्टर बारी-बारी वालंटियर करते हैं, दवाइयां मुहैया करवाई जाती हैं.
एक वकीलों की टीम हरवक्त मदद के लिए तैयार मिलती है. कहकशां और प्रकाश देवी, जो उस वक़्त मंच संभाले हुए थीं उन्होंने बताया, ‘हम लोगों को बहुत अलर्ट रहना पड़ता है, ध्यान से सुनना पड़ता है कि कोई क्या बोल रहा है. हमारी यह गुज़ारिश होती है कि कोई किसी भी तरह के ग़लत अलफ़ाज़ न इस्तेमाल करे. एक बार किसी ने शियाओं को कुछ कह दिया था. हमने उन्हें मंच से ही उतार दिया.’
आज़ादी की इस मुहिम से जुड़ी 53 महिलाओं से मैंने बात की, इनमें से सत्रह से काफी तफ्सीली, डेढ़-दो-घंटे तक बातचीत हुई. यह लेख इन महिलाओं के इस आंदोलन को बेहतर तौर से समझने की ही कोशिश है.
उनकी जिंदगी, उनके हालात, उनकी बातों को उन्हीं की ज़बानी कहने की कोशिश है. ऊपर जिन महिलाओं का ज़िक्र है वे शाहीन बाग में ही रहती हैं. आगे के हिस्से में दिल्ली के अन्य मोहल्लों और दिल्ली के बहार से आई महिलाओं की बात है.
कौन हैं प्रदर्शन कर रही महिलाएं
सलमा ने 18 साल नर्स का काम किया है. चार बच्चे हैं, जिनमें से दो कमाने लायक हो गए हैं. बेटे की सदर बाज़ार में मसनूई (आर्टिफिशियल) ज़ेवर की दुकान है. बेटी मारुति कंपनी में छोटी-सी नौकरी करती है.
कहकशां के शौहर जेद्दाह में किसी शर्बत बनाने की कंपनी में काम करते हैं और वह अपने दो छोटे बच्चों के साथ शाहीन बाग में रहती हैं. उनके वालिद सरकारी स्कूल में हेडमास्टर थे, अब शाहीन बाग में एक कोचिंग सेंटर की देखरेख करते हैं. उनके भाई होटल का काम संभालते हैं.
सुबूही के शौहर किसी एनजीओ से जुड़े हैं. बेटा इंडियन एक्सप्रेस अखबार में काम करता है, दूसरा अभी पढ़ता है. एक शादीशुदा बेटी की है और दूसरी जामिया मिलिया से बी.ए कर रही है.
15 दिसंबर को हुई पुलिस बर्बरता में इसे पुलिस ने पीठ और हाथ पर लाठी मारी थी. काफी दिन प्लास्टर चढ़ा रहा, अब तो ठीक है. सुबूही कहती हैं, ‘डर तो लगता है लेकिन कैसे रोकें! जामिया के प्रोटेस्ट में हमारी ईमान आगे-आगे है. बच्चे अपने हक के लिए लड़ रहे हैं.’
ज़हरा घर ही में कोचिंग इंस्टिट्यूट चलाती हैं. घर के एक कमरे में बेंच और डेस्क पड़े हैं और ब्लैकबोर्ड भी लगा है. हाईस्कूल तक के बच्चों को गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं.
हिना खुद को मेकअप आर्टिस्ट बताती हैं और शाहीन बाग में ही एक मेकअप अकादमी चलाती हैं. उनके पति फ़ौज में हैं. बेटा पीएचडी कर रहा है, बिटिया कॉलेज में पढ़ती है. शाजिया शाहीन बाग के ही एक शोरूम में कपड़े दिखाने का काम करती हैं. अब क्योंकि शो रूम्स बंद हैं तो रोज ही प्रदर्शन में आ जाती हैं.
सूफ़िया के पति राज मिस्त्री हैं और वह खुद कई घरों में झाड़ू-बर्तन करती हैं. उनके काम करने का फायदा यह है कि उनके दो बेटों के ट्यूशन का ख़र्चा निकल आता है. उन्हीं के पड़ोस से शबनम भी प्रदर्शन में आती हैं. शबनम के पति कंप्यूटर ठीक करने का काम करते हैं. वह ख़ुद घर में कई बच्चों को क़ुरान की तालीम देने का काम करती हैं.
फौजिया के पति हनीफ ठेले पर फल बेचने का काम करते हैं. बच्चे अभी काफी छोटे हैं इसलिए वह घर पर ही रहती हैं. सोनम के शौहर घर ही के नीचे चाय-कॉफ़ी की दुकान चलाते हैं और वह घर देखती हैं.
फ़रहाना को हाल ही में कैंसर बताया है. उनके पति दर्जी हैं, कहते हैं, ‘प्राइवेट के लिए तो पैसे नहीं जुटा पाएंगे, सरकारी में ही बारी का इंतज़ार करना पड़ेगा.’ उनके एक बेटी और बेटा जसोला के सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं और एक बेटा मानसिक रूप से बीमार है इसलिए घर पर ही रहता है.
शमा के पति बिजली का काम करते हैं. शाइस्ता जामिया में पढ़ाती हैं. उनके शौहर किसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं. शाइस्ता खुद तो रोज शाहीन बाग नहीं आ पातीं लेकिन उनके घर लौटने पर सास ज़रूर प्रदर्शन का एक चक्कर लगा लेती हैं.
आरती और उसके पति दोनों कंप्यूटर सेक्टर में काम करते हैं. काम के बाद दोनों ही प्रदर्शन में शामिल होते हैं. शाहीन उसी इलाक़े में न्यू विज़न नाम का स्कूल चलाती हैं. पूछने पर पता चला कि कई महिलाओं के पति एक कैब कंपनी की गाड़ी चलाते हैं.
संजीदा तो अपने घर ही का काम करती हैं, उनके पति गारमेंट एक्सपोर्ट का काम करते हैं. दो बेटियां जामिया में पढ़ती हैं और एक किसी मशहूर स्कूल में.
शबाना शाहीन बाग में ही ब्यूटी पार्लर चलाती हैं. उनके पति बिल्डर हैं, आजकल उनका काम बस न के बराबर ही चल रहा है. शबाना जैसे-तैसे बच्चों की स्कूल-कॉलेज की फीस और घर का खर्चा निकालती हैं.
शबिस्तान के पति की जसोला में ड्राईक्लीनिंग की दुकान है, वह भी मदद करती हैं. शहनाज़ और अस्मा जसोला में ही पार्लर चलाती हैं.
पिंकी दीदी के नाम से मशहूर प्रकाश देवी करोल बाग में रहती हैं. उनके पति सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बेटी जामिया में पढ़ती है. जामिया में प्रदर्शन के दौरान उसे भी पुलिस ने पैर पर लाठी मारी थी. कई दिन बिस्तर पर रही. अब मां शाहीन बाग में प्रदर्शन कर रही हैं और बेटी जामिया में.
पिंकी दीदी शुरू में तो रोज करोल बाग से आती थीं. रोज की जाने-आने की तकलीफ देखकर फ़रीद जी ने अपने घर में एक कमरा दे दिया है. फ़रीद साहब की बीवी-बच्चियों से उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी है.
वे कहती हैं, ‘शाहीन बाग ने तो मेरा पूरा नजरिया ही बदल डाला है. यह नेता कैसे-कैसे इल्ज़ाम लगाते हैं, पर एक भी दिन मैं दरवाज़े की चिटखनी लगाकर नहीं सोई हूं. मुझे पता है कि मैं सुरक्षित हूं. फ़रीद भाई ही नहीं, मुझे तो हर एक हाथोंहाथ लेता है’.
ऋतु शर्मा जी प्रदर्शन में शामिल होने रोज करोल बाग से आती हैं. उनकी बिटिया अभी सिर्फ पांच साल की है इसलिए अकेले छोड़ना मुश्किल है. प्रकाश देवी और ऋतु दामिनी रेप मामले वाले विरोध में भी साथ-साथ थे.
दरख्शां मुज़फ्फरनगर से प्रदर्शन में शामिल होने अपने पति के साथ आई हुई हैं. उनके फलों के बाग हैं. जिस दिन उनसे मुलाक़ात हुई, उस दिन शाहीन बाग में खाने का इंतज़ाम उन्हीं के परिवार ने किया था.
मेहरुन्निसा सोनिया विहार में किसी स्कूल में नौकरी करती थीं. वक़्त का तक़ाज़ा जानकार बारह हज़ार की नौकरी छोड़ दी. अब शाहीन बाग के विरोध से दिन रात जुड़ी हैं. अगर किसी वक़्त गुस्सा वगैरह कर लेती हैं तो लोग उनका जज़्बा देखकर नज़रंदाज़ कर देते हैं.
उन्हें शामियाने में ठीक से नींद नहीं आती तो किसी दिन या रात में सोने के लिए साथ की किसी महिला के घर चली जाती हैं. कैसर बी मेवात से रोज प्रदर्शन में कुछ देर के लिए आती हैं. उनके पति काफी बड़े ज़मींदार हैं. वे कहती हैं, ‘टेंशन रहे, रात-दिन, ज़रा आंख न लगे.’
सांप्रदायिकता के मुकाबले मोहब्बत की ज़बान
इसके अलावा रोज टोलियों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया, एम्स, मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज से विद्यार्थी और उनके टीचर हज़ारों की तादाद में विरोध प्रदर्शन में शामिल होने पहुंच रहे हैं.
यहां हरियाणा, पंजाब से किसान, मजदूर संघ और असम के लोग सभी शामिल हैं. यह सिर्फ मुसलमान महिलाओं का प्रदर्शन नहीं है. मोर्चा ज़रूर उन्होंने संभाल रखा है, लेकिन साथ और हिम्मत देने वाले हर मज़हब, ज़ात-पात के नागरिक हैं.
सही बात तो यह है कि शाम के वक़्त हिंदू-सिख भाई-बहन मुसलमानों से ज्यादा तादाद में नहीं तो कम भी नहीं होते हैं. जहां एक तरफ नफ़रत, रिश्ते तोड़ने, हिंदू राष्ट्र, हिंदू राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता की ज़बान से राजनीति खेली जा रही है, वहीं दूसरी तरफ इस आंदोलन से जुड़ी महिलाओं की ज़बान सुनने वाली है.
वे मोहब्बत, परवरिश, सबको जोड़ने, सदभावना, सहानुभूति, दर्द, उम्मीद, नागरिकता से जुड़े राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, देशप्रेम और हिम्मत की ज़बान बोल रही हैं.
यह हैरत है कि घर और मोहल्ले में बंद रहने वाली औरतें कहां से हर तबके के लिए इतनी सहानुभूति ला रही हैं. सुबूही कहती हैं, ‘जो और मज़ाहिब के बच्चे गुस्से में हैं वह भी मासूम हैं, वह नहीं समझ पा रहे हैं कि जो लोग बारिश और ठंड में बैठे हैं वह अपने जीने का हक़ मांग रहे हैं.’
शबनम कहती हैं, ‘कई बार मेरे बेटे के हिंदू दोस्त प्रदर्शन में आते हैं तो हमारे घर ही रुक जाते हैं. मुझे अपने बेटे से ज्यादा उनकी फिक्र रहती है. शाहीन बाग के बारे में जैसा ज़हर घोला गया है, पता नहीं उनके मां-बाप उन्हें कैसे भेजते होंगे, डरते रहते होंगे’.
कई महिलाओं ने जामिया में पुलिस हमले के शिकार विद्यार्थियों को देखा था. एक ने कहा, ‘कोई बच्चा एमए का था, कोई पीएचडी का, पता नहीं मांओं ने कैसे इस मुकाम पर पहुंचाया होगा.’ दूसरी बोलीं, ‘मैं सोच रही थी कि किस मां का खून है जो इस बेदर्दी से बहाया गया है.’
कई ने यह भी कहा, ‘अपने वजूद पर बात आ गई है तो कल के मरते आज मर जाएं.’ या फिर, ‘हमने तो अपनी ज़िंदगी जी ली अब तो बच्चों की फिक्र है.’ एक ने चुनौती भरी आवाज़ में कहा, ‘ज़मीर को कैसे मार दें. ज़ुल्म के आगे तो कभी झुके नहीं और न झुकेंगे, इंशाअल्लाह.’ शाहीन बोलीं, ‘चाहे हम फ़ना हो जाएं, आगे की नस्लें तो ठीक रहे.’
कई लोगों ने अपने टीवी बंद कर दिए हैं. उनका कहना है कि बच्चे मुसलमानों के खिलाफ हिंसा देखकर डर जाते हैं. एक ने बताया, ‘मेरी बेटी ने कपिल मिश्रा वाले नारे ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ के बारे में पूछा कि अम्मा गद्दार कौन होते हैं. मैं क्या कहती, कहा कुछ लोग होते हैं जो ख़राब होते हैं, उनके लिए कहा गया है.’
दूसरी मोहतरमा बोलीं, ‘क्या बात करते हैं. वर्ल्ड मैप लाकर घर में टांगा तो 93 देशों के झंडों में से मेरी छह साल की बच्ची तिरंगा ही ढूंढ रही थी.’ तीसरी महिला ने जोश में कहा, ‘क्योंकि बच्चे साथ ही आ जाते हैं इसलिए और ज्यादा समझ-बूझ कर बात करनी होती है. हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे नफ़रत की ज़बान सीखें.’
कई का मानना था कि बच्चे टीवी और मोबाइल पर ग़लत चीज़ें देख लेते हैं. पिंकी दीदी ने कहा, ‘मूवमेंट और यहां का माहौल तो करैक्टर तैयार कर रहा है, यहां घर से ज्यादा सीख रहे हैं.’
संविधान की हिफ़ाज़त की मुहिम से जुड़े ये लोग इसके बेहतरीन मायने बता रहे हैं. बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता की अपनी परिभाषा देते रहे, इन्होंने अपनी कर ली है. उनका कहना है, ‘क्योंकि हम प्रैक्टिसिंग मुस्लिम हैं, इसलिए मेरा बच्चा हर मज़हब की इज्जत करता है.’
यहां लोग मन्नत के रोजे रख रहे हैं, खास नमाजें पढ़ रहे हैं ताकि सीएए और एनआरसी से छुटकारा मिले. एक ने तो मुझसे भी कहा, ‘बाजी सूरेह बक़र पढ़िए कि हमारा प्यारा देश ज़ालिमराजा से महफ़ूज़ रहे, आप बीमार हैं तो खुदा आपकी जल्दी सुनेगा.’
इनकी धर्मनिरपेक्षता कहती है कि मज़हबी होने का मतलब कट्टरता नहीं है बल्कि भाईचारा है. मज़हब पर चलने वाले हर मज़हब और उसके मानने वालों की इज्ज़त करते हैं. सब अपने-अपने दस्तूर मानें और माननें दें. कैसर बी ने बताया, ‘हमारे मेवात में जात ही जात हैं, लेकिन इतना प्यार मोहब्बत है. शादी-ब्याह में हिंदुअन का खाना अलग बनत है और मुसलमानन का अलग.’
यहां हिंदू राष्ट्र और हिंदुत्व के तसव्वुर की जगह नागरिकता से जुड़े राष्ट्रवाद की बात हो रही है. एक महिला ने कहा, ‘हमारे पुरखे भी इसी मिट्टी में दफ़न हैं, हम भी यहीं दफ़न होंगे.’
देशप्रेम का ऐसा सैलाब शायद आज़ादी के बाद पहली बार उमड़ा होगा. एक महिला ने कहा, ‘26 जनवरी को तो लग रहा था ईद है. हम सबने सफ़ेद सूट पहने थे और तिरंगा हिजाब लगाया था.’ दूसरी ने कहा, ‘मुल्क के लिए दुआ ही कर सकते हैं, मुल्क ठीक रहेगा तब ही बच्चे ठीक रहेंगे.’
गांधी समेत तमाम स्वतंत्रता सेनानियों के नाम हरेक की ज़बान पर हैं. एक महिला ने कहा, ‘उनके पास पुलिस, फ़ौज, हथियार सब कुछ है. गांधीजी की अहिंसा की लड़ाई ऐसी थी जैसी शाहीन बाग की, हमारे पास भी बस आवाज़ है.’
एक और बोलीं, ‘गांधी की आत्मा भी रो रही होगी कि जिन्होंने मुझे मारा वह ही लोग आज भी मार रहे हैं.’ फरज़ाना ने मज़ेदार बात कही, ‘सारे लीडरों के फोटो लगाए हैं, बस इन लोगों के फितने की वजह से नेहरू का नहीं लगाया है. कभी हमें कांग्रेस से जोड़ दें.’
काफी ऐसी औरतें और मर्द शामिल हैं, जो रोज ही कुआं खोदते हैं, तब पानी पीते हैं. उन पर पैसे लेने की तोहमत लगा लेकिन सभी इज्जत और जोश का मुज़ाहिरा कर रहे हैं.
एक ने कहा, ‘अब तक मोदी और अमित शाह ऐसे नोट नहीं छपवा पाए हैं जिससे हमें खरीद सकें. हम उन्हें ऐसे नज़र आते हैं.’ एक वालंटियर ने कहा, ‘हम पर इल्ज़ाम लगाया जाता है कि हमारे पास सहूलतें कहां से आ रही हैं. वैसे तो शाहीन बाग से या और जगहों से लोग खाने-दवा का इंतज़ाम खुद कर ही लेते हैं. अगर कभी कमी होती है तो एक बार माइक से ऐलान करने की देर होती है कि फलां चीज की जरूरत है, ज़रा देर में इंतज़ाम हो जाता है, बल्कि मना करना पड़ता है कि और नहीं चाहिए.’
एक सज्जन ने कहा, ‘भई, मुसलमान ज़कात निकालता है, पैसे वाले तो लाखों खर्च कर सकते हैं’. इनमें से ज्यादातर के पास खोने के लिए न घर है न नौकरी, न माल, न कोई असबाब. वे कहते हैं, ‘अगर मरना ही है तो लड़कर ही मरेंगे. शायद आगे की नस्लों के लिए आसानी हो जाए.’
रिज़वाना टीवी वालों से काफी बातचीत करती रही हैं. उनके पति सरकारी नौकर थे, उनसे कहा गया कि अपनी पत्नी को रोकें. जब ज्यादा जोर डाला गया तो उन्होंने नौकरी छोड़ दी. अब दोनों मियां-बीवी संघर्ष में लगे हैं. उनके बेटे विलायत में काम करते हैं तो पैसों की क़िल्लत भी नहीं है.
जो भी साथ देने आ रहा है उसे हाथों-हाथ लिया जा रहा है. शाहीन बाग के लोगों ने साथ देने आए लोगों के लिए अपने घरों के दरवाज़े खोल दिए हैं. सोने या टॉयलेट जाने के लिए लोग पास के घरों में चले जाते हैं.
अपने आंचल को परचम बना लेने पर औरतों खुद अपनी हिम्मत पर हैरान हैं. उनका कहना है, ‘औरतों को अपनी स्ट्रेंथ मालूम हुई, उन्हें अपनी बातें कहने का प्लेटफार्म मिला. हमारे पास आवाज़ के अलावा कुछ नहीं है.’
कई ने कहां, ‘औरतें काफी मज़बूत हैं, तभी जमी हैं. अगर मर्द होते तो चल नहीं सकता था. मर्द कमज़ोर होते हैं.’ एक ख़ातून ने हंसते हुए बताया, ‘इस प्रोटेस्ट से हमने बहुत सीखा है, संविधान के सौ पन्ने तो पढ़ डाले होंगे.’
दूसरी ने बताया, ‘क़ानून भी सीखना पड़ रहा है, 160 सीआरपीसी के तहत औरतों को थाने नहीं बुला सकते.’ वे बताती हैं कि पिता, भाई, पति सब साथ दे रहे हैं. रज़िया ने मज़े में बताया, ‘इन्होंने आज कहा, मैं बर्तन धो लूंगा, तुम पूरा वक़्त प्रोटेस्ट में लगाओ.’
ख़बरों में शाहीन बाग की जिस तरह की छवि दिखाई जा रही है, उसकी तकलीफ सबको है. एक ख़ातून ने कहा, ‘अल्लाह मीडिया वालों को ज़मीर दे.’ सुबूही कहती हैं, ‘ऐसा ज़हर घोला गया है कि हम लोगों को बरसों मोहब्बत और अमन के लिए काम करना होगा.’
शबाना ने कहा, ‘हमें लोगों के बीच जाना होगा, ताकि वे हमें जान सकें. अब भी वक़्त है के हम अपने देश को संभाल लें.’
इसी बीच एक महिला ने ध्यान दिलाया, ‘पचास दिन से प्रोटेस्ट चल रहा है. हिंदू बच्चे-बच्चियां रात को एक-दो बजे तक भी गलियों में घूमते चाय पीते नज़र आ जाएंगे. एक भी छेड़छाड़ तक की खबर आपको नहीं मिली होगी और हमारे मिनिस्टर कहते हैं कि शाहीन बाग के लोग रेप कर सकते हैं.’
दूसरी महिला ने आश्वासन दिया, ‘हमारी नीयत बिलकुल साफ है, कोई अगर कीचड़ उछालेगा तो धुल जाएगी’. साथ बैठी एक महिला ने जोश में कहा, ‘जब यहां गोली चली थी, उसके दूसरे दिन लोग कम होने की बजाय और बढ़ गए थे, ढेरों लोग हमारा साथ देने पहुंच गए थे.’
(फराह फ़ारूक़ी जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाती हैं.)