यूपी में दलित और पिछड़ी जातियों के बीच में काम कर रहे सामाजिक न्याय आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले जातीय समूहों में बिखराव इतना बढ़ गया है कि हर दलित जाति के अपने संगठन बन चुके हैं या प्रक्रिया में हैं. दलित व पिछड़े वर्ग के आधार पर खड़ी मानी जाने वाली बसपा व सपा सरकारों ने भी बीते सालों में अपने जातीय समर्थन समूहों को निराश ही किया है.
प्रख्यात चितंक प्रोफेसर तुलसीराम ने 2014 में एक प्रमुख तहलका हिंदी पत्रिका को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि उत्तर प्रदेश (यूपी) में दलित राजनीति एवं आंदोलन का पोस्टमार्टम हो गया है. तब उनका यह बयान जल्दबाजी प्रतीत होता था.
लेकिन पिछले एक दशक से यूपी में सामाजिक न्याय के मुद्दों पर बनी परिस्थितियों के निर्माण से लगता है कि प्रदेश में दलित राजनीति व उसके साथ जुड़े एक जीवंत दलित आंदोलन में चेतना मर-सी गयी है.
हाल ही में उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग द्वारा आरक्षित वर्गों के संबंध में किया गया निर्णय जिसमें आयोग ने तय किया है कि किसी भी स्तर पर आरक्षण का लाभ लेने वाले आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी को उसको अपनी ही श्रेणी में चयनित किया जाएगा चाहे उसकी कट ऑफ अनारक्षित वर्ग से ज्यादा हो, उसको अनारक्षित वर्ग में ओवरलैपिंग नहीं कराई जाएगी.
उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग का यह निर्णय साबित करता है कि आरक्षित वर्गों का सैद्धांतिक दबाव कम होता जा रहा है क्योंकि ऐसे निर्णय एकाएक नहीं किए जाते हैं. उसके पीछे पूरी की पूरी पृष्ठभूमि तैयार की जाती है और इस तरह के फैसलों का रिएक्शन चेक होता है. इसके साथ ही राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक नफा-नुकसान को भी देखा परखा जाता है.
आपको याद होगा लोकसभा चुनाव से पूर्व यूपी सरकार द्वारा चकबंदी लेखपालों की 1,364 पदों पर भर्ती प्रक्रिया शुरू की गयी थी जिसमें आरक्षण के नियम के विपरीत ओबीसी और एसटी के लिए एक भी पद उसमें सृजित नहीं किया गया था.
हालांकि बाद में विवाद होने पर सरकार को उस भर्ती को टालना पड़ा लेकिन आप सरकारों की हिम्मत देखिए वह कैसे-कैसे निर्णय कर रही है, जिसमें पहले से ही संविधान में प्रदत्त उनके संरक्षण के अधिकारों से खेल रही है व इन वर्गों को मुंह चिढ़ा रही है.
यह सब संभव हो रहा है दलित राजनीति/आंदोलन में पैदा हो रही शून्यता से, उसकी खिसकती जा रही बौद्धिक जमीन से यूपी में आरक्षित वर्ग से जुड़े राजनेताओं व उनकी राजनीति से दलित आंदोलन का साहस कम हुआ है और उसमें आए ठहराव को हम साफ देख सकते हैं.
यह उत्तर प्रदेश मे आरक्षित वर्गों की चेतना में आई रिक्तता को दर्शाता है. 2009 लोकसभा चुनाव के बाद से यूपी में हुए लोकसभा व विधानसभाओं के चुनावों में क्रमिक रूप से सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़े मुद्दे हाशिए पर जाते दिखे.
दलित आंदोलन और सामाजिक न्याय की राजनीति को शुरू से ही आरएसएस और भाजपा द्वारा चुनौती मिलती रही है.
नब्बे के दशक में चाहे वह पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए लंबे अरसे से लंबित मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की बात हो या उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़ी जातियों का आरक्षण को लागू करने की बात हो, आरएसएस और भाजपा ने इन मामलों में विरोध का ही पक्ष लिया है.
आरएसएस और भाजपा द्वारा इस विरोध का कारण उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि रही है. इसके उलट सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले समूह और राजनीतिक दलों की वैचारिक अस्पष्टता अक्सर ही देखने को मिल जाती है.
मुझे ठीक से याद है कि उत्तर प्रदेश में 2019 लोकसभा चुनावों से पूर्व जब सपा व बसपा का गठबंधन हुआ, तब वह गठबंधन केवल चुनावी गठबंधन बन कर रह गया, वैचारिक तौर पर जमीन पर नहीं आ सका क्योंकि उस गठबंधन के बाद आम दलित, पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में वैचारिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक तौर पर चर्चा नहीं हुई.
यहां तक इसको स्वार्थ का भी गठबंधन कहा गया और यह गठबंधन प्रमुख रूप से दो जातियों का बन कर रह गया. बाद में जब गठबंधन टूटा, तब लोगों को मालूम पड़ा कि वास्तव में इसमें कितना वैचारिक खोखलापन था.
दलित आंदोलन के ठहराव व बिखराव का प्रमुख कारण यह है कि यूपी में अनुसूचित जाति वर्ग में जाटव, चमार व ओबीसी वर्ग में यादव समझते है कि सामाजिक न्याय के आंदोलन के हितों की रक्षा अकेले सिर्फ वही कर रहे हैं.
उनके वर्ग की अन्य जातियों जैसे अनुसूचित जाति वर्ग में पासी, कोरी, धोबी, खटिक, बाल्मिकि आदि व अन्य पिछड़ा वर्ग में कुर्मी, कहार, महार, निषाद, लोधी, मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा, गड़रिया जैसी जातियों को संदेह की नजर से देखा जाता है.
इन जातीय समूहों से समुचित संवाद नहीं हो रहा है, जिसका पूरा फायदा गैर सामाजिक न्याय के आधार वाली पार्टियों को हो रहा है. इसी तरह बनी परिस्थिति से दलित आंदोलन टूटकर रह गया है.
और इसके जिम्मेदारों को अब आरक्षित वर्ग के हितों को प्रभावित करने वाले फैसलों को करते समय कोई डर नहीं लग रहा है. उनके चुनावी परिणाम नहीं गड़बड़ा रहे हैं. उनकी सरकारें तो बिल्कुल भी खतरे में नहीं दिखती है.
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक फैसले में कहा गया है की राज्य सरकारें प्रमोशन में आरक्षण लागू करने के लिए बाध्य नहीं है. यह फैसला भले ही हमें अदालती लगता हो लेकिन इसके पीछे घोर राजनीतिक कारण है.
इस संदर्भ में क्योंकि उत्तराखंड की भाजपा शासित सरकार की पैरवी पर सुप्रीम कोर्ट ने ही प्रमोशन में आरक्षण को लागू करने को राज्य सरकारों की मंशा पर छोड़ दिया है और कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है. इस संबंध में अधिकतर जानकारों का मानना है कि केंद्र की भाजपा सरकार आरक्षण संबंधी मामलों में बिल्कुल भी गंभीर नहीं है.
नहीं तो सरकार प्रमोशन में आरक्षण के संबंध में लंबित 117वें संविधान संशोधन के जरिये इस विवाद को निपटा सकती थी.
13 प्वाइंट रोस्टर को लागू करने का साहस, प्रमोशन में रिजर्वेशन का खात्मा, संस्थानों में फीस प्रतिपूर्ति, एससी एसटी कम्पोनेंट प्लान के फंड का दुरूपयोग, उत्पीड़न की घटनाओं में वृद्धि, भेदभाव व सरकार से लेकर शासन में आरक्षित वर्ग के लोगों की बेहद कम भागीदारी दिखाती है कि एक आंदोलन में जब शून्यता-सी आ गयी है, तब कैसे आरक्षित वर्ग के हित प्रभावित होते जा रहे हैं.
और हां, एक दिलचस्प बात यह है कि सरकार द्वारा राममंदिर निर्माण ट्रस्ट में भी अनुसूचित जनजाति, ओबीसी व महिलाएं है ही नहीं. राम मंदिर आंदोलन से जुड़े एक दलित कामेश्वर चौपाल को तो सरकार ने ट्रस्ट में बतौर सदस्य लिया है लेकिन इस ट्रस्ट में ओबीसी और कोई भी महिला प्रतिनिधि नहीं है.
जबकि पूरे राम मंदिर आंदोलन में पिछड़ी जातियों की खुलकर भागीदारी रही चाहे वह पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह हो या विनय कटियार हो या भाजपा के वर्तमान सांसद साक्षी जी महाराज. वही महिलाओं में तो बड़े-बड़े नाम रहे चाहे वह मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती हो या साध्वी ऋतंभरा. इन सभी को केंद्र सरकार के इस फैसले से निराशा जरूर हुई होगी.
साल 2007: दलित आंदोलन में ठहराव और बिखराव की शुरुआत
दलित आंदोलन में ठहराव और उसके बिखराव की शुरुआत को 2007 के बाद से स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है जब यूपी में बसपा की सरकार बनी और फिर बसपा की प्राथमिकताएं बदली और आंदोलन की छोटी आवाजों को खत्म किया जाने लगा.
1857 की क्रांति में अहम भूमिका निभाने वाली दलित वीरांगना उदादेवी पासी के शहादत दिवस पर पूर्व में बसपा के ही नेता रहे आरके चौधरी ने 16 नवंबर 2007 को लखनऊ के जीपीओ पार्क में किए गए आयोजन को बसपा सरकार के प्रशासन ने ही नहीं होने दिया.
वह घटना कुछ दिनों पूर्व यूपी के आजमगढ़ में योगी सरकार द्वारा सीएए-एनआरसी के विरोध में धरने पर बैठे लोगों पर हुई पुलिसिया बर्बरता की याद दिलाती है.
इसके बाद लखनऊ में पेरियार रामास्वामी नायकर की फोटो पर भाजपा के कार्यकर्ताओं के द्वारा कालिख पोती गई और इस पर भी तत्कालीन बसपा सरकार द्वारा कोई प्रतिक्रिया नहीं की गयी क्योंकि सर्वजन की सरकार में ब्राह्मणों को बसपा नाराज नहीं करना चाहती थी.
न ही इस घटना के विरोध में किसी तरह का कोई आंदोलन ही हुआ. इसके बाद 4 जनवरी 2011 को प्रमोशन में आरक्षण के विरोध में आदेश आया. न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ जो दलित नेता और सामाजिक संगठनों व प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े लोगों ने विरोध व आंदोलन करने का कार्यक्रम बनाया उनको तत्कालीन बसपा सरकार द्वारा उन पर भी शिकंजा कसा गया.
ऐसे में सवाल उठता है कि दलित आंदोलन के प्रभावहीन हो जाने के प्रमुख कारण क्या रहे. मेरा नजरिया कुछ इस तरह है.
वैचारिक स्पष्टता का अभाव
अभी हाल ही में एक नया जातीय विवाद दो जातियों राजभर और उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख दलित जाति पासी के बीच शुरू हुआ, जो दलित आंदोलन का प्रमुख हिस्सा रही जातियों की वैचारिक अस्पष्टता को दर्शाता है.
यह ताजा विवाद सुहेलदेव की जाति को अपनी-अपनी जाति का बताने और उनकी प्रवृत्ति को लेकर हुआ. जब हम दलित आंदोलन कि बात करते है तो उसके सिद्धांत वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है जबकि सुहेल देव को एक मिथकीय परिप्रेक्ष्य में दोनों समुदायों द्वारा विश्लेषित किया जा रहा है.
इस संदर्भ में बौद्ध दर्शन के विचारक प्रोफेसर आंगनेलाल की पुस्तक ‘उत्तर प्रदेश में बौद्धकालीन केंद्र’ में यह जिक्र है कि दसवीं शताब्दी के आरंभ में जिन पासी व भर समुदायों का लखनऊ के आसपास जैसे रायबरेली, उन्नाव, बाराबंकी, सीतापुर, हरदोई, लखीमपुर खीरी, गोंडा, बहराइच, बलरामपुर, फैजाबाद, फ़तेहपुर आदि जनपदों में शासन रहा, उनके किले, कला व संस्कृति में बौद्ध सभ्यता की झलक मिलती है.
सुहेलदेव का शासनकाल का यही समय रहा है. इन शासकों के साम्राज्य के किलों की खुदाई में बौद्धकालीन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अवशेष मिले है जो कि यह सिद्ध करते है कि यह सभी राजा बौद्धकालीन परंपरा से प्रभावित रहे हैं.
जबकि इसके विपरीत इन राजाओं को मिथकीय दृष्टिकोण से विश्लेषित करते हुए वर्तमान राजनीति में इनका सांप्रदायिक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने कि बुनियाद बनाई जा रही है जबकि सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए यह संकेत ठीक नहीं है.
राजनीतिक बिखराव
इस तरह आंदोलन की रिक्तता और दलितों के बुनियादी सवालों से दूर हो जाने के कारण जिस प्रकार से एक समय में महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के बीच से अनेक रिपब्लिकनों का उभार हुआ और रिपब्लिकन कई टुकड़ों में बंट गए, उसी तरह से यही स्थिति लगभग आज उत्तर प्रदेश में होती जा रही है.
क्योंकि सामाजिक न्याय व दलित-पिछड़ी जातियों के आंदोलन से निकले नेताओं का नया ठिकाना भाजपा व कांग्रेस भी बना है. इनमें मुख्य रूप से कांग्रेस में जाने वाले डॉ. उदित राज, पीएल पुनिया, आरके चौधरी, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, राजराम पाल, ब्रजलाल खाबरी, अशोक दोहरे, राकेश सचान, सुशील पासी, पूर्व आईआरएस प्रीता हरीत, डॉ.अनूप पटेल हैं.
भाजपा में जाने वालों में कौशल किशोर, दीनानाथ भास्कर, स्वामी प्रसाद मौर्य, लालजी निर्मल, रीना चौधरी, जुगल किशोर, डॉ. यशवंत सिंह, भगवती प्रसाद सागर, डॉ. संजय निषाद, आरके पटेल, अशोक रावत, जयप्रकाश रावत, हरिशंकर महौर आदि नाम प्रमुख है.
कुछ ने तो अपनी स्वतंत्र राजनीति कि राह को अपनाते हुए अपनी नई राजनीतिक पार्टी या संगठनों का गठन किया है. इस क्रम में बसपा के पूर्व दिग्गज नेता राज बहादुर, ओमप्रकाश राजभर (सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी), बाबू सिंह कुशवाहा (जन अधिकार मंच), सावित्री बाई फूले (कांशीराम बहुजन समाज पार्टी), दद्दू प्रसाद (सामाजिक परिवर्तन मंच), लालमणि प्रसाद (बहुजन सेवा पार्टी), पूर्व आईएएस राम बहादुर (नागरिक एकता पार्टी), लाखन राज पासी (भारतीय क्रांति रक्षक पार्टी), पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी (ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट), जगजीवन प्रसाद (भारतीय संगठित पार्टी), पूर्व आईएएस चंद्रपाल और पूर्व आईएएस हरिश्चंद्र ने राजनीतिक दलों का गठन किया है.
जबकि चंद्रशेखर आजाद (भीम आर्मी), भवन नाथ पासवान (डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय एकता मंच), चौधरी लौटन राम निषाद (राष्ट्रीय निषाद संघ), रघुनी राम यादव (अर्जक संघ), गंगाराम आंबेडकर (मिशन सुरक्षा परिषद), गुरुदयाल यादव (प्रबुद्ध यादव संगम), अवधेश वर्मा (आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति), रामचंद्र पटेल (छात्रपति साहू जी महाराज स्मृति मंच), कमल किशोर कठेरिया (राष्ट्रीय बहुजन सामाजिक परिसंघ), एसपी नन्द, पीसी कुरील (राष्ट्रीय भागीदारी आंदोलन), गोपाल निषाद (फूलन सेना), अमरदीप सिंह (प्रबुद्ध भारत), राम हृदय राम (संत शिरोमणि रविदास महासभा), एचएल दुसाध (बहुजन डाइवर्सिटी मिशन), राजेश्वरी देवी (पासी जागृति मंडल), विजय कनौजिया (गाडगे आंबेडकर महासभा), राम सजीवन निर्मल (संत गाडगे समिति), डॉ. खेमकरन (भारतीय समन्वय संगठन-लक्ष्य), वीके रावत (दलित शोषण मुक्ति मंच), डीके आनंद (पदम), लक्ष्मी प्रसाद रावत (अखिल भारतीय पासी महासंघ), राम कुमार (डायनेमिक एक्शन ग्रूप), धनीराम पैंथर (भारतीय दलित पैंथर), अनोद रावत (राष्ट्रीय कल्याण मंच), आरए प्रसाद (अखिल भारतीय पासी समाज), पुष्पा बाल्मिकी (स्वच्क्षकार मंच), बब्बन रावत (महादलित परिसंघ), आदि लोगों द्वारा सामाजिक संगठनों का गठन किया गया है.
इसी तरह से उत्तर प्रदेश में दलितों, पिछड़ी जातियों के बीच में काम कर रहे सामाजिक न्याय आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले जातीय समूहों में बिखराव इतना अधिक बढ़ गया है कि हर दलित जाति के अपने संगठन है या संगठन बनने की प्रक्रिया में हैं. इन सबका नेतृत्व उन लोगों के हाथ में है जो या तो किसी सरकारी नौकरी में है या किसी राजनीतिक पार्टी में नेतृत्व कर चुके है.
2007 के बाद बनी बसपा व सपा की सरकारें, जो क्रमशः दलित वर्ग व पिछड़े वर्ग के आधार वाली मानी जाती हैं, उन्होंने भी अपने जातीय समर्थन समूहों को निराश ही किया है.
दलित आंदोलन के विमर्श में बदलाव
डॉ. आंबेडकर हमेशा ही दलित आंदोलन के आदर्श रहे है, जिनसे दलित आंदोलन प्रेरणा लेता रहा है. आंबेडकर का वह मंत्र ”शिक्षित बनो संगठित हो और संघर्ष करो” से दलित आंदोलन की वैचारिक राह प्रारंभ होती है.
सामाजिक आर्थिक जनगणना 2011 के अनुसार उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत दलित परिवारों की आय 3000 रुपये प्रतिमाह से कम है. परंतु लगातार शिक्षा के व्यावसायीकरण एवं निजीकरण तथा सरकारी शैक्षिक संस्थानों पर संगठित हमलों से गरीब दलित पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए शिक्षित होना एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है.
डॉ. आंबेडकर हर समय आर्थिक सवालों पर मुखर रहे उनका ज़ोर इस बात पर रहा कि दलितों को कल्याण आर्थिक रूप से कैसे किया जाए. चाहे वह सार्वजनिक शिक्षा का सवाल हो सार्वजनिक उपक्रमों का सवाल और इनके निजीकरण का. दलित उत्पीड़न के रोज़मर्रा के सवाल, जिनसे आम दलित रोज ही परेशान रहता है, वह अब दलित आंदोलन के केंद्र में नहीं है.
एक समय पर कांशीराम, रामविलास पासवान, उदित राज, प्रकाश आंबेडकर, रामदास अठावले, सोनेलाल पटेल, आरके चौधरी, मसूद अहमद, राजाराम पाल, कौशल किशोर, मित्रसेन यादव, चौधरी नरेंद्र सिंह पटेल, डॉ. प्रमोद कुरील, राम समुझ ने दलितों के आर्थिक सवालों को अपने-अपने आंदोलनों में प्रमुखता शामिल किया था.
व्यापक संदर्भों में देखे तो कांशीराम ने दलित आंदोलन का निर्माण ही आरक्षण के बाद उभरी नौकरशाही और कर्मचारियों के संगठनों के आधार पर की थी. यदि इस स्थिति में आज सार्वजनिक शिक्षा का निजीकरण हो जाए सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो जाए, तो आरक्षण जैसी नीतियों का क्या होगा, वह अप्रासंगिक हो जाएंगी. यदि सार्वजनिक शिक्षा नहीं बचेगी तो फिर इन समुदायों के हित प्रभावित होने शुरू होंगे.
बहुजनवाद का संकुचन
कांशीराम का बहुजन आंदोलन दलित आंदोलन की ही संकल्पना थी. कांशीराम के आंदोलन के केंद्र में (एससी/एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक) के जीवन में बदलाव हेतु व्यापक स्तर पर योजना का निर्माण कर इन समूहों के जीवन स्तर को समृद्ध करने के साथ ही सांप्रदायिकता, मानवाधिकार विरोधी ताकतों को चुनौती देना था.
चूंकि कांशीराम के वैचारिक आंदोलन की प्रेरणा के स्रोत डॉ. आंबेडकर रहे हैं, जिनका मानना था कि समावेशी भारत बनाने के लिए श्रमिक, किसान, कामगार वर्ग, महिलाओं के जीवनस्तर को बेहतर बनाने के लिए सतत संघर्ष करना होगा.
हम जानते हैं कि जाति विरोधी आंदोलन से जुड़े नेताओं ने सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव के अपने एजेंडे को वंचित, दमित जतियों के मजदूरों, किसानों और भूमिहीन मजदूरों के बुनियादी आर्थिक सवालों से जोड़ा. उदाहरण के तौर पर डॉ. आंबेडकर ने 1936 में स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना की.
उन्होंने 1937 के चुनाव के पहले ही समझ लिया था कि उन्हें अपनी राजनीति को वर्ग आधारित व्यापक रूप देने की जरूरत है और इसलिए उन्होंने इंग्लैंड की तर्ज पर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाई. इस दल ने खुद को मजदूर-किसानों के मोर्चे के रूप में पेश किया था.
इस दल ने जाति आधारित शोषण के खिलाफ कई उल्लेखनीय कार्य भी किए. इस दल के लक्ष्यों में किसानों को महाजनों के चंगुल से बचाना, जमीन के लगान का विरोध करना और कृषि उत्पादों के लिए को-ऑपरेटिव और विपणन समितियां बनाना आदि था. लेकिन मौजूदा दलित नेतृत्व के पास इन वर्गों के लिए अपने कार्यक्रमों व अभियानों में कोई भी ठोस योजना नजर नहीं आती है.
दलित आंदोलन की रिक्तता वहां भी दिखी जब केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी देश में लागू करने की योजना बनाई जा रही है जो संविधान कि मूल भावना के अनुरूप नहीं मानी जा रही है जबकि दलित आंदोलन में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा भी एक प्रमुख मुद्दा हमेशा ही रहता है.
लेकिन सीएए और एनआरसी के प्रतिरोधी आंदोलनों में दलित आंदोलन की भूमिका मुखर रूप से सामने नहीं आ पायी है जबकि नागरिक अधिकार आंदोलनों व वामपंथी संगठनों के एक हिस्से द्वारा हमेशा से ही सामाजिक न्याय आंदोलन के संघर्षो के साथ जुड़ाव व समर्थन रहा है.
इस तरह से दलित आंदोलन की यह रिक्तता विचारधारा, आंदोलन, नेतृत्व, लक्ष्यों और जनलामबंदी सभी स्तरों पर साफ-साफ देखी जा सकती है.
(लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में फेलो हैं.)