नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन के मद्देनज़र लिखी गईं कविताएं युवाओं के बीच कविता की लोकप्रियता के प्रति उम्मीद तो जगाती ही हैं, साथ ही इन्होंने युवाओं को सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों के प्रति भी सचेत किया है.
विश्व भर का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जब कभी कहीं बड़े आंदोलन हुए हैं, उसने साहित्य को अपनी नयी रचनाशीलता से समृद्ध किया है. जहां एक और जनगीतों और प्रगतिशील कविताओं से आंदोलन की गति तेज हुई है वहीं आंदोलन के गर्भ से एक-से एक स्वतः स्फूर्त कविताएं और गीत उत्पन्न हुए हैं.
आज पूरे हिंदुस्तान में नागरिकता कानून (सीएए) एनआरसी और एनपीआर के विरोध में आंदोलन चल रहे हैं. इस आंदोलन ने एक तरफ सरकार की नींद हराम कर दी है तो दूसरी तरफ जनगीतों और कविताओं की अनुगूंज चारों ओर सुनाई दे रही है.
फैज़, साहिर, हबीब जालिब से लेकर शैलेंद्र, दुष्यंत, बल्लीसिंह चीमा, ब्रजमोहन, गोरख पांडे आदि की कविताएं सड़कों पर दौड़ने लगी हैं. किताबों और डायरियों से निकलकर ये गीत जनकंठों में आकर आंदोलन का हिस्सेदार बन रही हैं.
आंदोलनकर्मी इन गीतों को अपना रचनाशील हथियार बनाकर आंदोलन को उत्सवधर्मी बना रहे हैं. ये कविताएं एक बार फिर जीवित और जीवंत होकर अपनी सार्थकता सिद्ध कर रहीं हैं और आंदोलन को महान बना रही हैं. जन विरोधी और संविधान विरोधी नागरिकता कानून के विरोध में लिखे जा रहे कई श्रेष्ठ गीतों और कविताओं से हिंदी और उर्दू साहित्य संपन्न हो रहा है.
सुखद तथ्य यह है कि इस आंदोलन ने कई नए युवा कवियों को जन्म दिया है. इन युवा कवियों की कविताएं पढ़-सुनकर दांतों तले उंगलियां दबाने का मन करता है. चूंकि ये कविताएं उस तरह रची नहीं गई हैं, जिस तरह अमूमन कविता रची जाती हैं, इसलिए इनमें एक ख़ास तरह की ताज़गी और नयापन है.
नए युग की कौंध और एक विशेष तरह की सर्जनात्मकता है. इन कविताओं ने अपनी निजी भाषा और विषय-वस्तु के नयेपन के कारण कविता की एकरसता को भंग किया है. चूंकि ये कवि कविता के ‘व्याकरण’ से भी अनभिज्ञ हैं इसलिए इनकी कविताओं में अनगढ़पन का सौंदर्य है.
सबसे बड़ी बात कि इन कविताओं में सीधे संवाद करने की ताकत है और सहज बोधगम्यता भी. इन कविताओं को इतनी लोकप्रियता मिली है और इतनी अधिक पढ़ी व सुनी गई हैं कि आंदोलनकर्मियों के जबान पर चढ़ गई हैं.
इन कविताओं में आइडिया ऑफ इंडिया की साफ झलक आपको दिख जाएगी. देशप्रेम का नया संस्करण हैं ये कविताएं. दुश्मनों के किले को ध्वस्त कर देने वाली घिसी-पिटी आकांक्षा के विपरीत समानता, बंधुत्व और लोकतंत्र की घुलावट से राष्ट्रप्रेम की नींव को मजबूत करने की लालसा इन कविताओं को विशिष्ट बनाती हैं.
उदाहरण के लिए इस आंदोलन में वरुण ग्रोवर की कविता ‘हम कागज़ नहीं दिखाएंगे’ आसानी से जबान पर चढ़ जाती है. ‘तानाशाह आकर जाएंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे’ की आगाज़ से कविता शुरू होती है. शब्दों की भीषण कृपणता के साथ कवि देश के प्रति अपना लगाव, सांप्रदायिक सद्भाव और वर्णव्यवस्था की निरर्थकता बताते चलता है-
ये देश ही अपना हासिल है, जहां रामप्रसाद भी बिस्मिल है
मिट्टी को कैसे बांटोगे, सबका ही खून तो शामिल है…हम जन गण मन भी गाएंगे, हम कागज़…
तुम जात पात से बांटोगे, हम भात मांगते जाएंगे…
इस एक अंतिम पंक्ति से कवि अपना सघन परंपरा-बोध और सचेत आर्थिक-चेतना का परिचय दे देता है. वर्ण व्यवस्था के पदानुक्रम में ‘भात’ का विशेष योगदान है.
उत्तर भारत के अधिकांश जगहों पर ‘भात’ ‘पक्का’ भोजन माना जाता है और उच्च वर्ण के लोग निम्न वर्ण के यहां पक्का भोजन नहीं कर सकते. वे रोटी, कचौड़ी खा सकते हैं भात नहीं. इन स्थानों पर बारात शादी के दूसरे दिन ‘भात’ खाकर कन्यापक्ष को ‘उपकृत’ करती है.
आशय यह कि जाति व्यवस्था में और रिश्तों के पदानुक्रम में ‘भात’ का सांस्कृतिक महत्व है. इसलिए इस पंक्ति में ‘भात’ के प्रयोग से वरुण ने एक विलक्षण व्यंजना पैदा की है. दूसरी तरफ, कुछ समय पूर्व झारखंड में एक दलित बच्ची ‘भात भात’ करते हुए मर जाती है. निरन्न दलित मां-बाप अपनी बेटी को एक मुट्ठी भात उपलब्ध नहीं करा पाते.
एक साथ दो-दो संकेत कविता को श्रेष्ठता प्रदान करत़ा है. कविता में सत्ता प्रतिष्ठान के तानाशाही चरित्र को तो उद्घटित किया ही गया है, साथ ही देशभक्ति के संग तानाशाही स्टेट से लड़ने का ज़ज्बा भी पैदा किया गया है. यह कविता बांटने और तोड़ने की राजनीति को बेपर्द करती हुई संविधान को बचाने का हौसला बुलंद करती है.
इसी तरह पुनीत शर्मा की कविता ‘तुम कौन हो बे’ नागरिकता कानून के विरोध में चल रहे आंदोलन की गति को तेज करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. इस तरह की कविताएं अब कवि के हाथ से निकल गयी हैं. जहां-तहां आंदोलनकर्मी बतौर समूह गान इन कविताओं का उपयोग कर रहे हैं, पोस्टर बना रहे हैं तो कभी इन कविता की पंक्तियों से नारे गढ़ रहे हैं.
कविता के आरंभ में ही पुनीत हिंदुस्तान से अपना रिश्ता तय कर लेते हैं-
हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है
तुम कौन है बेक्यों बतलाऊं तुमको कितना गहरा है
तुम कौन हे बे
यह कविता ‘कानफोड़ू’ राष्ट्रवाद का प्रतिपाठ रचती है. दरअसल ‘चीखू’ मार्का देशभक्ति में ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदेमातरम’ का जयकारा आम जन को भयभीत करने लगा है.
पता ही नहीं चलता कि ये देशभक्ति का नारा लगा रहे हैं या बलात्कारियों के बचाव का नारा लगा रहे हैं. किसी कॉलेज में घुसकर लड़कियों का यौन शोषण कर रहे हैं या विरोधियों को गोली मारने का आह्वान कर रहे हैं.
यह कविता कहना चाहती है कि प्रेम चिल्लाकर नहीं किया जाता, डरा या धमकाकर तो नहीं ही किया जा सकता है. चुपचाप भी आप किसी से प्रेम कर सकते हैं, चाहे वह देश से ही प्रेम क्यों न हो? प्रेम कोई सौंदर्य प्रसाधन का विज्ञापन नहीं है जिसका प्रदर्शन किया जाए-
इससे मैं चुपचाप मुहब्बत करता हूं
अपनों की जहालत से इसकी, हर रोज हिफाज़त करता हूंतुम पहले जाहिल नहीं हो, जो कहते हो चीखकर प्यार करो
इतना गुस्सा है तो अपने चाकू में जाकर धार करोऔर लेकर आओ घोंप दो तुम, वो चाकू मेरी पसली में
ग़र ऐसे साबित होता है, तुम असली हो और नकली मैं
आगे की पंक्तियों में कवि प्रतिदिन की गतिविधयों की सहजता, आस-पड़ोस के रिश्तों की सघनता, पारिवारिक संबंधों की महीन बुनावट और प्रकृति के साथ अपरिभाषित संबंधो से देशप्रेम का नया मुहावरा प्रस्तावित करता है-
किस रस्ते से होकर के मेरी बहन लौटती थी घर को,
किन कवियों का नमक मिला है इस कविता के तेवर कोक्या वो बोली थी जिस में मुझको दादी ने गाली दी
और इश्क़ लड़ाने को दिन में भी बागों ने हरियाली दी
पुरानी देशप्रेम की कविताओं में जहां अन्न-वस्त्र आदि देने के लिए प्रकृति के प्रति कवि कृतज्ञता का भाव महसूस करता था, वहीं पुनीत इजहारे इश्क़ के लिए अपने देश के बाग-बगीचों के प्रति कृतज्ञ हैं.
आज जबकि प्रेम पर बदस्तूर पहरा बैठा दिया गया है, ‘लव जिहाद’ से आगे बढ़कर ‘मजनू ब्रिगेड’ लाठी-डंडा लेकर पार्कों में चौकस निगरानी में लगे हैं, इस कृतज्ञता के व्यापक प्रभाव को समझा जा सकता है. प्रेम का ‘स्पेस’ पाने के लिए देश का शुक्रिया अदा देशप्रेम की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति ही तो है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने एक निबंध में लिखा है कि देश और देशवासियों का जाने-समझे बगैर देशप्रेम संभव ही नहीं है. कदाचित इसीलिए सरोजनी नायडू, गांधी से लेकर तिलक तक ने देश और देशवासियों को समझने के लिए देश भ्रमण के महत्व को समझा था. युवा कवि पुनीत भी देश घूमना चाहते हैं
तुम जो हो भाई हट जाओ, अभी देश घूमना है मुझको
इस वतन के हर इक माथे का, दर्द चूमना है मुझको
आज के राष्ट्रवादियों का देशप्रेम लोकरहित देशप्रेम है. मजे की बात यह है कि इन्हें देश के लोगों से नफरत है लेकिन देश से प्रेम है. पता नहीं इनका देश किस चीज से बना है. कदाचित वे ‘कागज़ पर बने नक़्शे’ को ही देश समझते हों. इसलिए कवि पुनीत शर्मा पर प्रेम का ये सस्ता नशा नहीं चढ़ता.
आज जब देश आज़ाद है, देशप्रेम का असली मायने देश के सभी लोगों से प्यार, देश की प्रकृति से लाड़, देश की उन्नत सांस्कृतिक धरोहरों और प्रतीकों से लगाव, देश की विभिन्न भाषाओं से अपनापा ही हो सकते हैं और साथ ही देशप्रेम का पर्याय भी.
इस कविता में कवि का देशप्रेम ‘इश्क’ की ऊंचाई तक पहुंचता है जो इश्क कवि का नितांत निजी है-
देखो, मैं तो बतला भी दूं , पर वतन ही बेकल है थोड़ा
जो उसके मेरे बीच में है वो इश्क पर्सनल है थोड़ा
सामान्यतया देशप्रेम की कविता में कवि का देशप्रेम एकतरफा होता है और मरने-मारने का पौरुषपूर्ण प्रदर्शन भाव भी उसमें मौजूद रहता है. लेकिन यहां कवि, वतन को अपने लिए (जनता के लिए) ‘बेकल’ पाता है और कहता है कि देश के साथ जो मेरा इश्क़ है वो पर्सनल यानी निजी है. इसलिए मेरा देशप्रेम बताने, और बघारने वाला देशप्रेम नहीं है.
प्रेम का पाखंड करने वाला या लोगविरत देशप्रेम करने वाला इस प्रेम को नहीं समझ सकता. पुनीत हिंदी काव्य परंपरा से परिचित ही नहीं हैं बल्कि उस परंपरा से अपने आप को जोड़ते भी हैं, इसलिए कविता के अंत में वे कहते हैं-
तुम कैसे समझोगे आखिर
ये प्रेम की बातें हैं उधो
कविता की टेक पंक्ति तू कौन है बे जितनी सहज और चलताऊ भाषा में लिखी गई है उतनी ही इसकी अर्थध्वनि व्यापक है. मात्र चार शब्दों की इस टेक पंक्ति में इस काले कानून को लागू करवाने वालों के प्रति ध्रुव उपेक्षा का भाव और कागज़ दिखाकर देशप्रेम या नागरिकता दिखाने का दुख एक साथ ध्वनित होता है.
कवि को दुख इस बात की है कि देशप्रेम महज कागज़ के दो-तीन टुकड़ों से सिद्ध नहीं होते. जिस प्रकार भक्ति कविता में भगवान और भक्त के बीच पंडे-पुरोहित को एक सिरे से नकार दिया गया है, टेक की यह पंक्ति देश और देशवासी के बीच पाखंडी राष्ट्रवादियों को रिजेक्ट करती है.
यह कानून सदियों से हिंदुस्तान में रह रहे मुसलमानों की नागरिकता को एक झटके में संदेहास्पद करने की दूरगामी रणनीति का हिस्सा है. स्वाभाविक रूप से से इस बात की तकलीफ तो उन्हें है ही साथ ही घोर चिंता भी. रहमान खान इस हिंदुस्तान से उनका अपनापा बताते हुए लिखते हैं
यह मिट्टी है मगर इसको कभी मिट्टी नहीं कहना
यह मिट्टी जान है मेरी यही पहचान है मेरीयह मिट्टी रिज़्क़ है मेरा, यह मिट्टी इश्क है मेरा
यही निर्माण है मेरा, यह हिंदुस्तान है मेरा
रहमान हिंदुस्तान से अपना अटूट रिश्ता कायम करने की बात ही नहीं करते बल्कि इस रिश्ते में दखल देने वालों को चुनौती भी पेश करते हैं. ‘बही खातों में क्या लिखी हुई है हैसियत मेरी’ पूछने वालों से ही वे हिंदुस्तानी होने का सबूत मांगते हैं-
बताओ तो मुझको किधर के हो कहां के हो
सबूत अपना तो दो कि तुम हिंदुस्तान के हो
इस आंदोलन से उपजी कविताओं में देश को समझने की बैचेनी दिखती है और उनका देश इन राष्ट्रवादियों के देश से बड़ा देश है. स्नातक में पढ़ रहे हर्ष भारद्वाज लिखते हैं-
यह देश विशाल बंगलों से झुग्गी झोपड़ियों का अंतर है मेरे दोस्त
यह देश अगर कुछ है तो रामपुर को इस्लामपुर से जोड़ती एक सड़क हैऔर उसके किनारे खने हुए पोखर हैं, बसी हुई बस्तियां हैं
जहां जिंदा रहने के प्रश्न आज भी बहुत बुनियादी है
डेढ़ सौ करोड़ की आबादी के भाग्य का फैसला कुछ सौ सांसद करें, कवि को मंजूर नहीं है. उसे तो यह मंजूर है कि देश में एक आदमी की भी हत्या न हो. ऐसे नेताओं पर तंज कसते हुए हर्ष कहते हैं-
उन नेताओं की रीढ़ अब भी सीधी हैं
जिन्होंने कल संविधान को कुचला थाऔर यही इस देश की मृत्यु है
नफ़रत की फैलती आग मेंकिसी एक आदमी की हत्या भी
इस समूचे देश की हत्या है मेरे दोस्त
कहने के लिए तो यह देश सबका है और सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, लेकिन सच्चाई यह है कि यहां अल्पसंख्यक को ‘अन्य’ मानकर चलने की रवायत रही है. पिछले कुछ वर्षों से जबसे दक्षिणपंथी राजनीति की हिंदू ध्रुवीकरण गति तेज़ हुई है.
यहां के बहुसंख्यकों को डरा-सहमा मुसलमान पसंद है, तनी रीढ़ वला मुसलमान नहीं, जबकि भारत की मूल आत्मा सबको साथ लेकर चलने की है. मक्का और मथुरा को संग-साथ देखने वाली मीडियाकर्मी आतिका फ़ारूकी इसी तहजीब को याद करती हुई कहतीं हैं-
हम एक थाली में खाते हैं और हमनिवालों में बियाहते हैं
हमसाये में जश्न मनाएगे और पड़ोसियों से हर वादा निभाएंगेहमारा मरना चाहे अलग होगा पर जिन्दगी एक, जश्न कई मनाएंगे
तेरा भगवान वैसा और मेरा अल्लाह ऐसा,एक दिन में दो-दो रब का उर्स मनाएंगे
असम में एनआरसी के माध्यम से हुई घोर असफलता को दुरुस्त करने के लिए और नागरिकता से वंचित हो गए पंद्रह लाख हिंदुओं को पुनः नागरिकता देने और चार लाख मुसलामानों को उनके रहमोकरम पर छोड़ने के लिए जिस कानून (सीएए) को संसद से पास किया गया, सड़क ने इस कानून को नामंजूर कर दिया.
देश भर में लोग इस संविधान विरोधी कानून के विरोध में सड़कों पर उतर आये. सरकार को इस व्यापक जनसैलाबी विरोध का कतई अनुमान नहीं था. प्रतिक्रियास्वरूप दमन की चक्की जोरों से चल पड़ी. कई लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए और हजारों लोग सलाखों के भीतर डाले गए.
अच्छी बात यह हुई कि इस आततायी दमन ने लोगों के अंदर से डर को खत्म कर दिया. इस आंदोलन की विशिष्टता यह है कि यह युवा और औरत केंद्रित आंदोलन है. उमड़ते जन सैलाब के आगे सत्तातंत्र सकते में आ गया. शायर लता हया अपने शेर में सरकार की इस दुविधा को व्यक्त करती हुई कहती हैं-
हमसे सबूत मांगना पड़ा इन्हें,
कागज़ को यूं खंगालना महंगा पड़ा इन्हें
देश के इस कोने से उस कोने तक चल रहे इस विरोध प्रदर्शन का चरित्र शांतिपूर्ण, अहिंसक और रचनात्मक है. दिसंबर की रूह कंपा देने वाली सर्द रात में स्त्रियों ने अपने नवजात और छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़क को ही अपना घर बना लिया है.
जो स्त्रियां कभी ठीक से अकेले घर से नहीं निकली थीं वह आज़ादी के नारे लगा रहीं हैं, विद्वानों को बुला रहीं हैं और उनका भाषण सुन रहीं हैं. तरक्की पसंद गीत गा रही हैं, सड़क पर ही पोस्टर और रंगोली बना रही हैं. इन औरतों ने आंदोलन को उत्सव में रूपांतरित कर दिया है. लेकिन सरकार के कान पर जूं भी नहीं रेंग रहा. गृह मंत्री अमित शाह कहते हैं वे एक इंच पीछे नहीं हटेंगे. लता हया लिखती हैं-
वो तो अंधेरी रात की मानिंद है सुनो,
तोहफ़ा ये किससे चांदनी का मांग रहे.
स्त्रीशक्ति का संधान इस आंदोलन की बड़ी आमद है. आजादी की लड़ाई के बाद देश में इतने व्यापक स्तर पर स्त्रियों की भागीदारी किसी आंदोलन में नहीं हुई थी. स्त्री सशक्तिकरण की दृष्टि से इनकी धमाकेदार उपस्थिति उत्साहवर्धक है. बड़ी बात यह है कि पर्दानशीं मुस्लिम महिलाओं ने इस आंदोलन में ‘हल्ला बोल’ दिया है. मजाज़ की बड़ी ख्वाहिश थी कि तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था…
देश की बेटियों ने इस आंदोलन में मजाज़ साहब की आकांक्षाएं पूरी कर दी, अपने आंचल को परचम बना लिया है. आज पूरे देश में आंचल से बने परचम फहरा रहे हैं. परचम लहरातीं, आज़ादी के नारे लगातीं ये स्त्रियां कहीं अधिक खूबसूरत दिख रहीं हैं. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक बेहतरीन कविता है- भूख
जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुंदर दीखने लगता है
ये स्त्रियां अपने हक़ के लिए उठ खड़ी हुई हैं, उनके चहरे पर एक विलक्षण किस्म का आत्मविश्वास है, निर्भीक ज़ज्बा है और लड़ने का माद्दा है- स्वाभाविक रूप से ये लड़तीं स्त्रियां बहुत सुंदर दिख रहीं हैं- बहुत सुंदर. युवा कवयित्री काविश अजीज ऐसी ही सुंदर स्त्रियों के संघर्ष को आवाज देती और राजसत्ता को चुनौती देती लिखती हैं-
तुम लगाओ हथकड़ी तुम चलाओ लाठियां,
अब मनाओ खैर तुम निकल पड़ी हैं बेटियां.न डर पुलिस का है इन्हें न वर्दियों का खौफ़ है,
तुम्हारा तख़्त तोड़ने को निकल पड़ी हैं बेटियां
शाहीन बाग ने इस आंदोलन का प्रतिनिधित्व किया है. भगवा ब्रिगेड और चाटुकार मीाडिया ने झूठी खबरों से शाहीन बाग की आंदोलनरत इन औरतों को लांछित और अपमानित करने के कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. जब इनसे भी दाल नहीं गली तो अश्लील फब्तियां और गाली-गलौज तक की गई. काविश लिखती हैं-
लगाओ जितने लांछन लगाना है लगा ही लो,
ये गालियां नकारकर निकल पड़ी हैं बेटियां
शाहीन बाग ने स्त्री आंदोलन के नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं. यही वजह है कि इसकी लोकप्रियता देश की सरहदें पार कर विदेशों में भी इसकी धमक सुनाई देने लगी है. लोग कहते हैं कि नाहक ये औरतें ठंड में ठिठुर रहीं हैं. कवि शोभा सिंह के शब्दों में,
तीन दादियां/ जांबाज़ निडर/ शाइस्ता से बोलीं
करोड़ों लोगों के निर्वासन का दुख
इस ठंडी रात से बड़ा है क्याअब तो खामोशी को भी/आवाज दे रही हैं हम
यह आवाज की तरंगे
आने वाली खुशहाली की खबर-सी/फैल जाएगी
देश में कई स्थानों पर शाहीन बाग के तर्ज़ पर आंदोलन परवान चढ़ रहा है. लोग कहते हैं कि आज पूरा देश शाहीन बाग में रूपांतरित हो गया है. इसीलिए शाहीन बाग पर कई अच्छी कविताओं से हमारा साक्षात्कार होता है. आंदोलन समाप्ति के बाद भी इन कवितओं में युगों तक शाहीन बाग जीवित रहेगा. स्नातक की पढ़ाई कर रहीं कनुप्रिया लिखती हैं-
ये मुट्ठीबंद हाथें जब आसमान की ओर मुंह किए
उछालतीं हैं नारेतो लगता है मानो
ध्वस्त कर रहीं हैं काले आसमान के सभी गुमां को
इस आंदोलन पर पुलिसिया जुर्म से सभी वाकिफ़ हैं. छोटे-छोटे बच्चों की मांओं को आंदोलन में शरीक होने भर के अपराध में जेल में डाल दिया गया. जेल में उनके साथ बद्तमीजियां हुईं, पाकिस्तान चले जाने का ‘फरमान’ जारी हुआ.
500 रुपये रोज पर आंदोलन में आने की तोहमत लगाई गईं. कभी बिरयानी के लालच में आने की बात कही गई, कभी इनके मर्दों को लानत भेजी गई कि वे अपनी औरतों को सड़क पर बिठा आए हैं. इन बेबुनियाद आरोपों की धज्जियां उड़ाती इन औरतों ने आंदोलन की गति को और तेज़ कर दिया.
आगे की पंक्तियों में कनुप्रिया पुलिसिया दमन को प्रश्नांकित करते हुए शाहीन बाग की औरतों के साहस को सलाम भेजती हैं-
जब कभी लिखा जाएगा हिंदुस्तान के सबसे अंधे दौर का समय
तब होगा जिक्र शाहीन बाग की इन औरतों काकि अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए
छोड़ आयीं थी अपना घर-बार
काट आयीं थीं पितृसत्ता की नस, तोड़ आयीं थीं सभी बैरिकेड्स और
पुलिसी लाठियों के डर, भय, अत्याचारमिला आयीं थीं आंखें हैवान-ए-हुकूमत से
और कह आयीं थीं –
कि उनके सामूहिक विलाप से
कहीं ज्यादा तेज़ हैं उनके नारों का स्वर
संविधान की जितनी चर्चा और बहस इस आंदोलन के दरम्यान हुईं हैं, इससे पहले कभी नहीं हुई थी. चूंकि इस कानून ने संविधान की मूल प्रस्तावना को ही नकारने का प्रयास किया है इसलिए आंदोलन ने संविधान को अपनी ताकत समझा है.
जहां-तहां किसी भी कार्यक्रम में, किसी भी समूह में लोग संविधान की प्रस्तावना पढ़ रहे हैं, संविधान का पोस्टर बना रहे हैं, भारी मात्रा में संविधान की किताब खरीद रहे हैं और एक दूसरे को बांट रहे हैं. सरकार और उनके अमले संविधान की बढ़ती इस लोकप्रियता से भी घबराए हुए से दिख रहे हैं.
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि संविधान को कविता में पिरोया जा रहा है, मूल प्रस्तावना को काव्य-विषय बनाया जा रहा है. इस आंदोलन ने संविधान को पॉलिटिकल साइंस के विभागों, पुस्तकालयों और अदालतों से निकालकर आम लोगों की बीच ला दिया है.
स्नातक की पढ़ाई कर रहे कौशिक राज तो डिटेंशन केंप में घुसकर भारत का संविधान पढ़ना चाहते हैं. इस कविता में संविधान से आम लोगों की उम्मीदें, इसके प्रति देशवासियों का लगाव और लगातार हो रहे इसके दुरूपयोग को कवि ने एक साथ अभिव्यक्त किया है –
मैं यह संविधान संसद के गलियारे से नहीं लाया हूं
जिसकी मौत को अवाम ने गहरी नींद समझकर
उससे उम्मीदें ख़त्म नहीं कीं हैंमेरा संविधान मिट्टी में सना है
मैं उसे बाबरी मस्ज़िद के मलबे से खोजकर लाया हूंमेरा संविधान आंसुओं से गीला है
मैं इसे झेलम से निकालकर लाया हूंमैं इसे दादरी की खून की नदी में तैरकर
डूबने से बचाकर लाया हूं
इस आंदोलन को दबाने के लिए जिस तरह से दमनात्मक कार्रवाई की गई, उसकी जितनी आलोचना की जाए कम है. अंतरराष्ट्रीय हलके में भी इसकी जमकर निंदा की गई. बच्चे तक को नहीं बक्शा गया इस बार. युवा कवि आमिर अज़ीज़ कहते हैं कि सब कुछ याद रखा जाएगा. चाहे कुछ भी हो, सब याद रखा जाएगा-
भले भूल जाए पलक आंखों को मूंदना, भले भूल जाए जमीं धुरी पर घूमना
हमारे कटे परों की परवाज़ को, हमारे फटे गले की आवाज को
याद रखा जाएगा
अपनी इस कविता में वे कहना चाहते हैं कि तुम्हें जो करना हो करो, मुझे जो करना होगा, वह मैं करूंगा-
तुम रात लिखो हम चांद लिखेंगे
तुम जेल में डालो हम दीवार फांद लिखेंगे
कवि आमिर की कविता में आक्रोश और दुख का उफनता हुआ सैलाब है. वे अपने सारे दुख और विद्रोह को बगैर हकलाए बहुत साफ-साफ लिखना चाहते हैं. वे अपनी पीड़ा को इतने जोर से कहना चाहते हैं कि बहरे भी सुन लें और अपने ऊपर लगातार हो रहे ज़ुल्म को इतना साफ लिखना चाहते हैं कि अंधे भी उसे पढ़ लें.
उन्हें अपनी हत्या का भय नहीं है लेकिन वे भूत बनकर उस हत्या का सबूत खोजने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं-
तुम हमें क़त्ल कर दो, हम बनकर भूत लिखेंगे
तुम्हारे क़त्ल के सारे सबूत लिखेंगेतुम अदालतों से चुटकले लिखो, हम दीवार पे इंसाफ लिखेंगे
बहरे भी सुन लें इतने जोर से बोलेंगेअंधे भी पढ़ लें इतना साफ लिखेंगे
तुम काला कमल लिखो, हम लाल गुलाब लिखेंगेतुम जमीं पे जुल्म लिखो, आसमां में इंकलाब लिखा जाएगा
सब याद रखा जाएगा. सब कुछ याद रखा जाएगा
इस कविता में आज की तारीख़ में एक असुरक्षित मुस्लिम युवा के हाहाकार को बहुत स्पष्ट सुना जा सकता है. जहां उन्हें पहनावे से पहचाना जाता हो, खाने-पीने से पहचाना जाता हो, दाढ़ी और टोपी से पहचाना जाता हो, ऐसे माहौल में कवि की वेदना को समझना कठिन नहीं है.
वे डरे हुए हैं कि किसी भी समय उन्हें इनकाउंटर कर दिया जा सकता है, संदेह में वर्षो जेल में डालकर उनकी उम्र छीन ली जा सकती है और मॉब लिंचिंग कर उनकी हत्या भी की जा सकती है क्योंकि इन सबको मुस्लिम युवा विगत कुछ वर्षों से झेल रहे हैं.
इस तरह की कई घटनाएं सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज़ हैं, लेकिन इससे कई गुना अधिक बेदर्ज़ हैं. सत्तासीन नेताओं के नफ़रत भरे बयानात ने इन्हें बेचैन कर दिया है. इसलिए इस कविता में वेदनापूर्ण आर्तनाद तो है ही साथ ही विद्रोह की चिंगारी भी है और है सच कहने का साहस.
सभी कुछ को जल्दी-जल्दी कह डालने की युक्ति के लिए कविता की ‘स्पीड’ काफ़ी तेज़ रखी गयी है. सब याद रखा जाएगा, सब कुछ याद रखा जाएगा की आवृत्ति कवि के मन-मस्तिष्क में मची अस्त-व्यस्तता और दिल में उठते तूफ़ान को अभिव्यक्ति देती है.
ये आंदोलनधर्मी कविताएं युवाओं के बीच कविता की लोकप्रियता के प्रति उम्मीद जगाती हैं तो दूसरी तरफ इन कविताओं ने युवाओं को सामाजिक-राजनीतिक सरोकार के प्रति भी सचेत किया है.
विगत कुछ वर्षों से जिस तरह युवाओं को भीड़ में तब्दील करने की राजनीति चल रही थी, उस राजनीति के बरक्स इस आंदोलन और आंदोलन जन्य कविताओं ने युवाओं को देश-दशा के लिए लामबंद करने में सफलता हासिल की है. इस आंदोलन की सार्थकता है और इन कविताओं की अर्थवत्ता.
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडे की यह उक्ति इस तरह कविताओं के लिए ही कही गई होंगी-
जन-आंदोलनों से गीत पैदा भी होते हैं और उनको गति और शक्ति देने में सार्थक भूमिका भी निभाते हैं. इस दृष्टि से विचार कीजिए तो हिंदी का जनवादी गीत जन-आंदोलनों की देन हैं.
(मेरे साक्षात्कार- मैनेजेर पांडे, किताबघर, पृष्ठ 67)
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं.)