फ़ैज़ ऐसे शायर हैं जो सीमाओं का अतिक्रमण करके न सिर्फ़ भारत-पाकिस्तान, बल्कि पूरी दुनिया के काव्य-प्रेमियों को जोड़ते हैं. वे प्रेम, इंसानियत, संघर्ष, पीड़ा और क्रांति को एक सूत्र में पिरोने वाले अनूठे शायर हैं.
कुछ बरस पहले हमारी एक मित्र अपनी परीक्षा के एक दिन पहले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कुछ नज़्में पढ़ रही थीं. हमने पूछा, ‘आप परीक्षा के एक दिन पहले शेरो-शायरी में उलझी हैं?’
उन्होंने कहा, ‘शेरो-शायरी में नहीं, फ़ैज़ में उलझी हूं. आप परीक्षा के एक दिन पहले भी तो अपने महबूब को गले लगाते हैं. फ़ैज़ मेरे महबूब हैं. पढ़ लेती हूं तो सांस आ जाती है…’ और उन्होंने एक नज़्म की आख़िरी पंक्तियां सुनाईं-
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.
यह निजी बातचीत एक शायर के रूप में फ़ैज़ के क़द का अंदाज़ा लगाने के लिए काफ़ी है. जीवन के तमाम राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक संघर्षों के बीच प्रेम और इंसानियत को कैसे ज़िंदा रखा जाए, इसका सबसे अच्छा बर्क़ा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने रचा.
हमने अपनी पीढ़ी में कोई ऐसा युवा नहीं देखा जिसकी कविताओं में दिलचस्पी हो और वह फ़ैज़ का दीवाना न हो.
मज़े की बात यह है कि तमाम भारतीय कवि, जो हमारे यहां कोर्स की किताबों में पढ़ाए जाते हैं, उनसे अलग फ़ैज़ सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले कवियों में हैं.
वे सरकारी संस्थानों और परियोजनाओं से इतर पूरी दुनिया के जनमानस के कवि हैं. फ़ैज़ शायरी और विश्व कविता के ऐसे फ़नकार हैं जो प्रेमियों को प्रेम, क्रांतिकारियों को क्रांति और आशान्वितों को आशा के चरम तक ले जाने की कूवत रखते हैं.
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में, ‘दो पाकिस्तानी बड़े कवि इक़बाल और फ़ैज़ ऐसे हैं जिनके बिना आधुनिक भारतीय कविता की बात अधूरी रहती है.
यह भारतीय साहित्य-परंपरा और उसकी आधुनिकता की एक विशेषता है कि उसने भौगोलिक और राष्ट्रीय हदबंदी को हमेशा अपनी बहुलता और खुलेपन के पक्ष में अतिक्रमित किया है.’
पिछली सदी प्रतिरोध की कविताओं की सदी रही है और इसके झंडाबरदारों में सबसे उल्लेखनीय नामों में से एक नाम फ़ैज़ का है. उनका नाम एशिया के महानतम कवियों में शुमार है. साम्यवादी विचारधारा में यक़ीन रखने वाले फ़ैज़ पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे और प्रगतिशील आंदोलन के महारथियों में थे.
उन्होंने 1936 में पंजाब प्रांत में प्रगतिशील लेखक संगठन की शाखा की स्थापना की. सूफी परंपरा से प्रभावित फ़ैज़ ने कुछ समय तक अध्यापन किया और बाद में सेना में भर्ती हो गए. हालांकि, सेना में उनका मन नहीं रमा और 1947 में उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से इस्तीफा दे दिया.
सुनिए: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर विनोद दुआ की बात
बंटवारे के बाद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए. नाइंसाफी, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ मुखरता से लिखने वाले शायर के रूप में मक़बूल हुए फ़ैज़ को अपने लेखन के लिए जेल जाना पड़ा. उन पर चौधरी लियाक़त अली ख़ान का तख़्ता पलटने की साज़िश करने के आरोप लगे.
उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और वे करीब पांच साल जेल में रहे. जेल में रहने के दौरान तमाम नायाब रचनाओं को शक्ल दी जो उनके दो संग्रहों ‘ज़िंदानामा’ और ‘दस्ते-सबा में दर्ज हैं. 1977 में तख़्तापलट हुआ तो उन्हें कई बरसों के लिए मुल्क़ से बेदख़ल कर दिया गया.
1978 से लेकर 1982 तक का दौर उन्होंने निर्वासन में गुज़ारा. हालांकि, फ़ैज़ ने अपने तेवर और विचारों से कभी समझौता न करते हुए कविता के इतिहास को बदल कर रख दिया.
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले
…बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें
यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
युवा आलोचक एवं शोधकर्ता आशीष मिश्र कहते हैं, ‘जब हमारे देश का बंटवारा हुआ तो नदियां, पहाड़, रेगिस्तान, कुर्सी-मेज और और कलमदान तक बांट दिए गए लेकिन एक चीज़ जो नहीं बांटी जा सकी वह थीं कलाएं. कलाएं इस विभाजन और उन्माद के ख़िलाफ़ लगातार लड़ती रहीं. इस विभाजन के पीछे काम करने वाली ताक़तों को पहचानती रहीं. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कला के इसी धारा के संग-ए-मील हैं और जीवन को वहां से देखते हैं जहां प्रेम और क्रांति में कोई अंतर्विरोध नहीं है.’
फ़ैज़ ‘रक़ीब से’ शीर्षक की नज़्म रक़ीब को संबोधन से शुरू होती है जो अंतत: अन्याय और अत्याचार से पीड़ित एक संघर्षरत योद्धा की आह के रूप में ख़त्म होती है जो ज़ुल्मतों से भरी दुनिया से बेज़ार हो चुका है.
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दह्र को दह्र का अफ़साना बना रक्खा था…
हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊं तो समझा न सकूं
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी…
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है…
आग-सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है
वे अवाम की भावनाओं को हवा देने वाले और सियासत के लिए असुविधा पैदा करने वाले शायर हैं. क्रांतिकारी विचारधारा के लोग उनकी कविताओं के पोस्टर लगाते हैं, प्रेमी युगल उनका संग्रह सिरहाने रखते हैं तो काव्य प्रेमी उन्हें कविता में संघर्ष, प्रेम और सौंदर्य के अदभुत सम्मिलन के लिए पढ़ते हैं.
उनकी कविताओं में तमाम मुल्कों के बेसहारा लोगों और यतीमों की आवाज़ें दर्ज़ हैं जो उन्हें लगातार एक जद्दोजहद करते हुए शायर के रूप में स्थापित करती हैं.
फ़ैज़ को गुज़रे हुए क़रीब 30 साल गुज़र चुके हैं. लेकिन वे अपने दौर के शायर लगते हैं जिनके पास दुनियावी संघर्ष का हौसला भी मिलता है तो ज़ाती भावनाओं के लिए बेहद कारगर मरहम भी मौजूद है.
ज़ुल्मतों के दौर से मुक्ति की आशा लिए ऐसी कविता फ़ैज़ ही लिख सकते हैं:
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे…
13 फरवरी, 1911 को सियालकोट, पंजाब में जन्मे ऐसे अनूठे शायर को याद करना अपने भीतर कविता का उत्सव मनाने से ज़रा भी कम नहीं है.
उनको पढ़ने और गुनने का एहसास कैसा है, इसे कहना चाहें तो उन्हीं के लफ़्ज़ों में- ‘जैसे सहराओं में हौले से चले बादे-नसीम, जैसे बीमार को बेवजह क़रार आ जाए…’