साक्षात्कार: बीते रविवार से दिल्ली में शुरू हुए दंगे की आग में अब तक 40 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 300 से अधिक लोग घायल हो चुके हैं. इस दौरान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्रालय से लेकर दिल्ली पुलिस तक पूरा प्रशासनिक महकमा मूकदर्शक बना रहा. दंगा रोकने में नाकाम रही दिल्ली पुलिस पिछले कुछ समय से अपनी कार्यप्रणाली को लेकर लगातार सवालों के घेरे में है. सांप्रदायिकता, दंगा और पुलिस की भूमिका पर पूर्व आईपीएस अधिकारी और ‘शहर में कर्फ्यू’ के लेखक विभूति नारायण राय से विशाल जायसवाल की बातचीत.
23 फरवरी से दिल्ली में हिंसा की छिटपुट वारदातें शुरू हुईं जिन पर पुलिस ने कार्रवाई नहीं की और देखते-देखते उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों की चपेट में आ गया. पुलिस की निष्क्रियता पर सवाल उठने के बाद पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनायक की जगह नए विशेष आयुक्त के रूप में एसएन श्रीवास्तव की नियुक्ति की गई. पूरे घटनाक्रम में दिल्ली पुलिस की भूमिका को कैसे देखते हैं?
पिछले तीन-चार दिनों में दिल्ली में जिस तरह की घटनाएं घटीं, वे दिल्ली पुलिस की असफलता को प्रतिबंबित करती हैं. पिछले तीन-चार महीनों से एक खास तरह का घटनाक्रम घट रहा था. सांप्रदायिक तनाव और उन्माद बढ़ता जा रहा था.
एक तो दिल्ली पुलिस इसका आकलन करने में विफल हुई और दूसरे जब दंगे शुरू हुए… हिंसा की वास्तविक घटनाएं सामने आईं तब दिल्ली पुलिस पूरी तरह से असहाय नजर आ रही थी और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें. मेरा मानना है कि ऐसा इसलिए हो रहा था क्योंकि दिल्ली में पुलिस में बहुत अधिक राजनीतिक हस्तक्षेप हो रहा था.
पिछले तीन-चार महीनों की घटनाएं इसका सबूत हैं कि गृह मंत्रालय ही दिल्ली चला रहा था. दिल्ली के नेता पुलिस कमिश्नर नहीं थे बल्कि नॉर्थ ब्लॉक में बैठे लोग थे. पहले जामिया में एक घटना हुई. वहां पुलिस ने अति सक्रियता दिखाई और कई बिंदुओं पर ऐसा लगा था कि नियम-कानून की धज्जियां उड़ाई गईं.
इसके कुछ ही दिन बाद जब जेएनयू में हमला हुआ तब यही पुलिस गेट पर खड़ी होकर पूरी तरह से निष्क्रिय दिखाई दे रही थी. अंदर जो कुछ घट रहा था उसको पूरा देश क्या पूरी दुनिया देख रही थी. दिल्ली पुलिस यह बहाना बना रही थी कि वाइस चांसलर की मंजूरी न मिलने के कारण वह अंदर नहीं घुस सकी जो कि एक निरर्थक बात है क्योंकि मैं खुद वाइस चांसलर रहा हूं और मुझे पता है कि कैंपस में घुसने के लिए वाइस चांसलर या रजिस्ट्रार किसी की मंजूरी की जरूरत नहीं होती है.
सीआरपीसी में इस संबंध में साफ प्रावधान हैं. आपकी आंखों के सामने संगीन अपराध हो रहा था और आप खड़े होकर देख रहे थे. यह शायद इसलिए हो रहा था क्योंकि गृह मंत्रालय दोनों परिस्थितियों में उनसे अलग-अलग कार्रवाई की उम्मीद कर रहा था.
इसके बाद सीएए और एनआरसी को लेकर शाहीन बाग में कुछ लोग सड़क रोककर बैठ गए. पहले तो मुझे लगा कि लोगों के मन में रोष है और उनको अपना दुख व्यक्त करने का लोकतांत्रिक अधिकार मिलना चाहिए लेकिन बाद में मैंने देखा कि इसका राजनीतिक फायदा उठाया जा रहा है. चुनावी भाषणों में कहा जा रहा था कि बटन पोलिंग बूथ पर दबाओ तो उसका झटका शाहीन बाग तक पहुंचे.
साफ था कि पूरी स्थिति को सांप्रदायिक करने के लिए शाहीन बाग का इस्तेमाल किया जा रहा था. उसका फायदा भाजपा को हुआ. उसका वोट प्रतिशत कुछ बढ़ गया और कुछ ज्यादा विधायक जीत गए लेकिन उतना फायदा नहीं हुआ, जितना ये देख रहे थे.
इसके साथ ही भाजपा के बहुत सारे मंत्री और बहुत सारे नेता भड़काऊ भाषण दे रहे थे और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही थी. चुनाव आयोग पूरी तरह से निष्क्रिय दिखाई दे रहा था. इन्ही कारणों से तनाव बढ़ता जा रहा था. मैं मानता हूं कि सांप्रदायिक हिंसा एक पिरामिड की शक्ल में बढ़ती है और बढ़ते-बढ़ते एक ऐसा बिंदु आ जाता है जब एक छोटी-सी भी घटना बड़ी-सी आग में तब्दील हो सकती है.
शाहीन बाग की ही नकल एक अन्य जगह दोहराने की कोशिश की गई. मेट्रो बंद करा दिया गया और सड़क बंद करा दिया गया. स्वाभाविक था कि प्रभावित लोग उसको खाली कराने आए. भाजपा के एक नेता इसमें कूद पड़े कि दो-तीन के अंदर नहीं खाली होगा तो वो आकर निपटेंगे. जब वास्तविक घटना घटी तब दिल्ली पुलिस को कुछ नहीं पता था कि उसे क्या करना है. सारे फैसले नॉर्थ ब्लॉक में हो रहे थे.
उसी समय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आए हुए थे. ट्रंप की यात्रा का मतलब था कि दिल्ली पुलिस के सभी अधिकारी उनकी यात्रा को सुगम बनाने में लगे हुए थे. उनके पास कोई दूसरी योजना नहीं थी कि ट्रंप के रहते अगर कोई दूसरी घटना होगी तो उससे कैसे निपटें.
किसी भी बंदोबस्त में लगने के दौरान पुलिस को अपनी फोर्स रिजर्व भी रखनी चाहिए. दंगे की जगह अगर भूकंप आ जाता, आग लग जाती या रेल दुर्घटना हो जाती तो आपको उसके लिए इंतजाम रखना चाहिए था लेकिन उसके लिए दिल्ली पुलिस नहीं तैयार थी.
आपने नॉर्थ ब्लॉक और गृहमंत्री अमित शाह का जिक्र किया, ऐसे में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आज केंद्र की सत्ता में वही दो लोग बैठे हैं जो 2002 में गुजरात दंगों के दौरान वहां की सत्ता के केंद्र में थे. उन पर दंगे करवाने के आरोप लगे थे. क्या ऐसा लग रहा है कि दिल्ली में गुजरात मॉडल लागू करने की कोशिश की गई है?
जिस दिन दंगे शुरू हुए उस दिन तो कोई यह नहीं कह सकता है कि जो सरकार में लोग बैठे हैं वो दंगे चाहते थे. इसका कारण है कि राष्ट्रपति ट्रंप उस दिन दिल्ली में थे. यह बहुत ही दूर की बात होगी अगर यह सोचा जाए कि सरकार में बैठे लोग उस दिन दंगे चाहते थे. दंगों की शुरुआत अपने आप हुई, हमें यह मान लेना चाहिए.
हालांकि, स्वत: स्फूर्त शुरू हुए दंगों की स्थिति तक पहुंचाने के लिए पिछले कुछ महीनों की कार्रवाइयां जिम्मेदार रही थीं… जिनमें जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना, राम मंदिर का फैसला, तीन तलाक, सीएए और फिर एनआरसी की धमकी जैसी चीजें धीरे-धीरे दंगे के माहौल को बना रही थीं. इ
सके बाद एक ऐसा बिंदु आता, जिसमें एक चिंगारी आग लगा सकती थी और ऐसा मौका आया जिसमें जाफराबाद में महिलाओं ने सड़क रोक दी और मेट्रो बंद कर दिया और कपिल मिश्रा ने आकर धमकी दी कि तीन दिन तक हम इंतजार करेंगे और फिर आकर आपको हटा देंगे. इसके बाद जरा-सी उत्तेजना से दंगे हो सकते थे और दंगे हुए, इसलिए कह सकते हैं कि सरकार में बैठे लोगों ने सांप्रदायिक माहौल बनाकर ऐसे बिंदु तक पहुंचा दिया.
दिल्ली चुनाव से पहले, उसके दौरान और बाद में भी केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, भाजपा नेता कपिल मिश्रा, भाजपा सांसद परवेश वर्मा के साथ कई अन्य भाजपा नेता लगातार भड़काऊ भाषणबाजी करते रहे. इन सभी पर एफआईआर दर्ज न किए जाने पर दिल्ली हाईकोर्ट ने खासी नाराजगी जताई लेकिन दिल्ली पुलिस का कहना है कि इन नेताओं पर एफआईआर दर्ज करने से माहौल खराब हो सकता है. आखिर दिल्ली पुलिस ऐसा क्यों कह रही है कि कार्रवाई करने का यह सही समय नहीं है? क्या भड़काऊ भाषणों पर कार्रवाई करने से इनमें कमी नहीं आएगी?
यह कहना तो बहुत ही हास्यास्पद बात है कि भड़काऊ भाषणों पर कार्रवाई करने से स्थिति बिगड़ जाएगी. भड़काऊ भाषणों के बाद जो स्थिति बिगड़ सकती है उसको रोकने के लिए यह जरूरी है कि उन पर कार्रवाई की जाए.
दिल्ली चुनावों से ही यह सिलसिला शुरू हो गया था कि बहुत ही जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोग ऐसी बातें कह रहे थे कि लोग चकित रह जाते थे कि ये ऐसी बातें भी कह सकता है. चुनाव आयोग को क्या करना चाहिए था और वह क्या कर रहा था यह तो पूरा देश देख रहा था. भड़काऊ भाषण पर कार्रवाई करने से स्थिति सुधरेगी.
आपके अंदर राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति भड़काऊ भाषण करेगा तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी और कानून के अंदर इसके लिए प्रावधान हैं.
दिल्ली पुलिस की भूमिका के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को सड़कों पर उतरना पड़ा और दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा करना पड़ा. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के ऐसे दंगाग्रस्त और हिंसा वाले इलाकों में जाकर आश्वासन दिए जाने को आप कैसे देखते हैं? यह कितना सही है?
यह तो पूरी तरह से गलत है. जिस तरह से नॉर्थ ब्लॉक का हस्तक्षेप गलत है उसी तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का ऐसे मामलों में सड़कों पर उतरना भी गलत है. इससे वे दिल्ली पुलिस को हतोत्साहित कर रहे हैं.
दिल्ली पुलिस एक यूनिफॉर्म्ड सिविल फोर्स है और उसके पास कमांड की एक चेन है जिसे ध्वस्त नहीं करना चाहिए. आपको दिल्ली पुलिस कमिश्नर को मजबूत करना चाहिए. आपको उसके अधिकारियों को संसाधन देना चाहिए, फैसला करने की छूट देनी चाहिए.
अगर एनएसए जाते हैं और खुद एक डीसीपी के दफ्तर में बैठते हैं तो इसका क्या संदेश जाएगा? आपने एक खराब पुलिस कमिश्नर लगाया था और यह आपकी जिम्मेदारी है. उन्हें हटाकर आपको एक अच्छा नेतृत्व देना चाहिए था. सही फैसले लेने के लिए आपको विभिन्न कमांड यूनिट को प्रोत्साहित करना चाहिए था ताकि वे दंगे रोक सकें.
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार को लेकर दिशानिर्देश दिए थे लेकिन आज तक वह पूरी तरह से लागू नहीं हो पाए हैं. उसके बारे में हमेशा बातें ही होती हैं. सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान उत्तर प्रदेश में जिस तरह से पुलिसिया बर्बरता के मामले सामने आए और राजधानी दिल्ली में तो लगातार तीन-चार महीनों से ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं. इन हालातों को देखते हुए अब उन सुधारों को लागू करने के लिए किस स्तर पर पहल की जा सकती है?
दिल्ली में जो कुछ हुआ है उसको अगर सरकार गंभीरता से लेगी, सिविल सोसाइटी गंभीरता से लेगी और न्यायपालिका गंभीरता से लेगी, तो निश्चित तौर पर व्यापक पुलिस सुधारों की शुरुआत होनी चाहिए. हर बात यही होता है कि पुलिस की नाकामी कुछ दिनों के चर्चा में रहती है और उसके बाद फिर खत्म हो जाता है.
आज जो आधुनिक संस्था के रूप में पुलिस है, वह 1860 में बने कानून पर है. उस जमाने में पुलिस के लिए एक दूसरी भूमिका सोची गई थी और उसने उसको बखूबी निभाया. उस जमाने के शासकों को लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के लिए पुलिस ने उनकी मदद की, पुलिस की ही मदद से अंग्रेज 90 साल तक बने रहे.
आजादी के बाद तो पुलिस को अपनी औपनिवेशिक मानसिकता बदलने की जरूरत है. उसको जनता के मित्र की तरह सामने आने की जरूरत है. पुलिस के पास संसाधनों की कमी नहीं है. मेरा मानना है कि जो लोग संसाधनों का रोना रोते हैं, वे गलत हैं.
जरूरत है कि पुलिस का नेतृत्व मजबूत हो, उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप कम से कम हो और पुलिस की मानसिकता ठीक की जाए. अभी दंगों के बाद जब लोग अपने घरों से बाहर निकलेंगे तब तरह-तरह की कहानियां सामने आएंगी और पता चलेगा कि पुलिस को जो करना चाहिए उसने वह नहीं किया.
18-20 करोड़ की आबादी वाली देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी के मन में हर दंगे के बाद यह कसक रह जाती है कि उसके साथ न्याय नहीं हुआ. इस बार भी यही हुआ है. जब बाहर निकलकर लोग कहानियां बताएंगे तब पता चलेगा कि पुलिस ने उनके साथ इंसाफ नहीं किया.
पुलिस सुधार का यह मतलब नहीं होता है कि महानिदेशक के पद का कार्यकाल दो साल कर दिया. इससे कुछ नहीं होता है. सुधार का मतलब पुलिस का मन बदलने और उसके चारित्रिक बदला से है. दुर्भाग्य से इस पर हमारे हुक्मरानों का ध्यान नहीं जा रहा है.
1947 के बाद जितने हुक्मरान आए हैं उन्होंने उसी ढांचे को बनाए रखा जिसे अंग्रेज बहादुर खड़ा करके गए थे. एक मुख्यमंत्री को उसी तरह का दगोगा पसंद आता है जो उसके विरोधियों की टांग तोड़ दे, जो उसके समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई न करे.
मैं किसी पार्टी का नाम नहीं ले रहा हूं बल्कि 1947 के बाद किसी राजनीतिक दल ने गंभीरता से पुलिस सुधारों की कोशिश ही नहीं की. जब पुलिस सुधारों की बात आती है तब उन्हें बढ़िया हथियार देने, बढ़िया गाड़ी देने या सर्विलांस सिस्टम देने की बात की जाती है. ये पुलिस सुधार नहीं हैं. पुलिस सुधार तब है जब पुलिस जनता की मित्र बन जाए. आज दुर्भाग्य से यह स्थिति नहीं है.
सिस्टम में रहने के दौरान और बाहर आने के बाद भी आपने दंगों पर काफी काम किया है. समाज, सांप्रदायिकता और दंगों पर काफी कुछ लिखा है. 1987 के हाशिमपुरा दंगों के दौरान आप वहां के पुलिस अधीक्षक थे और 2002 के गुजरात दंगों पर भी आपने किताब लिखी है. राष्ट्रीय राजधानी में हुए इस दंगे को देखकर क्या लगता है कि समाज में दंगों की प्रवृत्ति को लेकर कोई बदलाव आया है?
दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज में जो धार्मिक आधार पर विभाजन है वह और गहरा होता जा रहा है. 1947 में दोराष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर देश का बंटवारा हुआ था जो कि गलत साबित हो गया था. 1971 में बांग्लादेश बनने से पहले ही 1947 में ही भारतीय राजनेताओं ने इसे खारिज कर दिया था.
उन्होंने कहा था कि हम नहीं मानते हैं कि हिंदू-मुसलमान साथ नहीं रह सकते हैं. उन्होंने एक ऐसा संविधान बनाया जिसमें धर्मनिरपेक्षता एक मजबूत स्तंभ था. दुर्भाग्य से बीच-बीच में हाशिमपुरा, गुजरात या दिल्ली जैसी घटनाएं हिंदुओं और मुसलमानों को पास लाने के प्रयासों को असफल कर देती हैं. दुर्भाग्य से दिल्ली के दंगे भी उसी तरह हैं.
आप देखेंगे कि दूरियां बढ़ गई हैं. जिनके घरों में लोग मरे हैं या जिनका संपत्ति जलाई गई है वे सालों तक इस दर्द को नहीं भूल सकेंगे. यह एक ऐसा जख्म है जिसे भूल पाना मुश्किल होगा. पुलिस सुधार तो एक तरीका है लेकिन इसके अलावा हमें अपनी किताबों, शिक्षा पद्धति और न्यायपालिका को संवेदनशील बनाना होगा और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई को पाटना होगा.