पिछले 70 साल में कोयलांचल की आग बुझाने, रेललाइन की वैकल्पिक व्यवस्था करने और झरिया-सिंदरी बचाने का कोई काम क्यों नहीं हुआ?
धनबाद-झरिया कोयलांचल उजड़ने की कगार पर है. देश के इस सबसे पुराने कोयलांचल के सामने अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ है.
कोयला खदानों की भूमिगत आग को ख़तरे की सीमा से ऊपर मान लिया गया है. इस आधार पर भारतीय रेलवे बोर्ड में धनबाद-चंद्रपुरा मार्ग से रेल परिचालन 15 जून से पूरी तरह रोक दिया गया है.
रेल सेवा रुकने के कारण कोयलांचल में काफी जनाक्रोश है. इसे देखते हुए 15 जून को धनबाद में आयोजित ‘विकास पर्व’ को टाल दिया गया. इसमें केंद्रीय कोयला मंत्री पीयूष गोयल को आना था.
उन्हें मोदी सरकार की तीन साल की उपलब्धियां बताने के लिए ‘मोदी फेस्ट’ में शामिल होना था. लेकिन खुफिया विभाग ने बड़े असंतोष की सूचना देकर अंतिम समय पर इस कार्यक्रम को स्थगित करा दिया.
विडंबना देखिए कि जिस 15 जून को धनबाद में ‘विकास पर्व’ का आयोजन होना था, उसी दिन स्थानीय जनता ‘विनाश पर्व’ के रूप में मनाने को बाध्य हुई.
धनबाद-चंद्रपुरा रेल मार्ग पर 26 जोड़ी महत्वपूर्ण ट्रेनों का आवागमन होता था. ऐसी ट्रेनों में हावड़ा से जबलपुर और धनबाद से एलेप्पी तक की ट्रेनें शामिल थी.
यह रेल मार्ग असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार सहित कई अन्य राज्यों को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण रेल मार्ग है.
जिन रेल सेवाओं को रोका गया है, उनमें कोलकाता से अहमदाबाद, हावड़ा से भोपाल, कोलकाता से अजमेर शरीफ़, रांची से गुवाहाटी जाने वाली ट्रेनें भी शामिल हैं. दरभंगा से सिकंदराबाद जाने वाली ट्रेन का भी परिचालन बाधित हुआ है.
15 जून से इस रेल सेवा को बंद करने के कारण भयावह स्थिति उत्पन्न हुई है. इसे लेकर कोयलांचल में काफी असंतोष है. 15 जून को नागरिकों ने जगह-जगह अन्य रेल मार्गों को धनबाद ज़िले में रोककर अपना गुस्सा दिखाया.
कोयलांचल की बेबसी भयावह है. हरेक की ज़िंदगी पर इसका बुरा असर होगा.
70 साल में कोयलांचल कभी इतना बेबस नहीं हुआ. दुनिया के सामने यह एक मिसाल है कि किस तरह कीमती कोयला निकाल लिया और बड़ी आबादी को तिल-तिल कर मरने को छोड़ दिया.
लोग पूछ रहे हैं कि समय रहते 70 साल में कोयलांचल की आग बुझाने, रेललाइन की वैकल्पिक व्यवस्था करने, झरिया-सिंदरी बचाने का कोई काम क्यों नहीं हुआ?
झरिया कोयलांचल के उजड़ने का सिलसिला तेज़ी से जारी है. झरिया में स्थित आरएसपी कॉलेज को तत्काल खाली करने का आदेश दिया गया है.
झारखंड की मुख्य सचिव राजबाला वर्मा के आदेश को देखते हुए स्थानीय प्रशासन ने इसकी वैकल्पिक व्यवस्था की है. इस कॉलेज को जियलगोरा स्थित क्षेत्रीय अस्पताल भवन और बनियाहीर के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में तत्काल स्थानांतरित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है.
हालांकि स्थानीय लोगों का मानना है कि इस कॉलेज के नीचे आग नहीं है. इससे संबंधित रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है कॉलेज के स्थानांतरण के ख़िलाफ़ विद्यार्थी सड़कों पर हैं.
विद्यार्थियों ने 100 यात्रा प्रदर्शन निकालकर धमकी दी कि अगर कॉलेज का स्थानांतरण करने की कोशिश की गई तो विद्यार्थी सिर मुंडन करके संबंधित अधिकारियों और सरकार का श्राद्ध करेंगे.
कोलफील्ड बचाओ समिति ने झरिया को उजाड़ने के बजाए भूमिगत आग को बुझाने का प्रयास करने की मांग की है. समिति के अनुसार, झरिया में रैयतों की ज़मीन छोड़ दी जाए तो बाकी ज़मीन पर भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) का कब्जा है.
समिति के अनुसार, बीसीसीएल की ज़मीन पर मालिकाना अधिकार केंद्र सरकार का है. झरिया में भूमिगत आग को बुझाने की ज़िम्मेदीरी बीसीसीएल तथा राज्य सरकार की है.
सरकार इस भूमिगत आग को बुझाने के लिए अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करे. समिति की ओर से सीटू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा माकपा के केंद्रीय सदस्य ज्ञानशंकर मजूमदार ने कहा कि केंद्र सरकार झरिया को उजाड़ने की साजिश कर रहा है. बीसीसीएल की लापरवाही के कारण धनबाद-चंद्रपुरा रेल मार्ग का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया.
झरिया को देश के सबसे पुराने कोयलांचल के तौर पर जाना जाता है. यहां 1894 में माइनिंग आरंभ हुई थी. यह देश में कोकिंग कोल का एकमात्र भंडार है जो स्टील उत्पादन में उपयोगी माना जाता है.
पहली बार 1916 में भौंराडीह कोलियरी में भूमिगत आग का पता चला था. पहले प्राइवेट कोलियरी मालिकों द्वारा कोयला खनन का काम होता था, जो काफी अवैज्ञानिक तरीका था.
भूमिगत खदानों से कोयला निकालने के बाद बालू भराई का काम नहीं करने के कारण कोयले में आग के फैलाव का सिलसिला तेज़ हुआ.
1972-73 में कोलियरियों का राष्ट्रीयकरण हुआ. उम्मीद थी कि वैज्ञानिक तरीके से कोयला खनन करके भूमिगत आग पर नियंत्रण किया जाएगा लेकिन कोयला अधिकारियों, माफिया और ठेकेदारों के गठबंधन ने बेतरतीब तरीके से कोयला खनन का सिलसिला जारी रखा.
कीमती कोयला निकाल लिया गया, बदले में मामूली बालू की भराई जैसे काम में भी भारी घोटाला हुआ. आग बुझाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया.
कोलियरियों के राष्ट्रीयकरण के बाद अध्ययन से ज्ञात हुआ कि 17.32 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लगभग 70 स्थानों पर भूमिगत आग थी. उसके बाद अन्य सात स्थानों पर भूमिगत आग का पता चला.
इस तरह कुल 77 स्थानों में भूमिगत आग की समस्या पाई गई. 1976 से 1988 के बीच आग बुझाने की 22 परियोजनाओं पर काम हुआ और 10 स्थानों पर आंशिक सफलता भी मिली. लेकिन कोयले की आग बुझाने के लिए कोई दीर्घकालीन और ठोस प्रयास नहीं करने के कारण यह समस्या बढ़ती चली गई.
वर्ल्ड बैंक की सहायता से आग बुझाने के लिए की गई स्टडी भी कागज़ी कार्रवाई बनकर रह गई. वर्ष 2008 में 45 प्रोजेक्ट के 67 स्थानों पर आग को नियंत्रित करने के लिए एक मास्टर प्लान बनाया गया था.
इसके तहत 595 ख़तरनाक स्थलों के स्थानांतरण और रेल लाइन व सड़क के वैकल्पिक मार्ग की योजना बनाई गई थी. लेकिन इसे भी कार्य रूप नहीं दिया जा सका.
कोकिंग कोल के इतने कीमती भंडार को जलकर ख़ाक होने देने और कोयलांचल को उजड़ता छोड़ देने की यह लापरवाही एक गंभीर अपराध है.
धनबाद स्थित संस्था कोल माइंस रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा कोयले की आग बुझाने के लिए प्रस्तुत एक गंभीर रिपोर्ट पर भी काम नहीं हुआ.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में झरिया के लिए उपाय तलाशने की घोषणा की थी. इसका कोई नतीजा सामने नहीं आया.
अप्रैल 2015 में जर्मनी की एक कंपनी के साथ धनबाद में कोयला अधिकारियों की एक बैठक हुई थी. उस कंपनी को जर्मनी और चीन में कोयले की आग बुझाने का अनुभव था.
कंपनी ने स्पष्ट कहा था कि आबादी को हटाए बग़ैर भूमिगत आग आसानी से बुझाई जा सकती है. लेकिन इस प्रस्ताव को बीसीसीएल ने आगे नहीं बढ़ाया. डीएमटी ग्रुप नामक इस कंपनी ने इस संबंध में प्रधानमंत्री को भी प्रस्ताव भेजा था.
वहां से कोल इंडिया से संपर्क करने का निर्देश दिया गया. कंपनी के अधिकारियों ने लगभग एक साल से भी ज़्यादा समय यूं ही बर्बाद कर दिया. उनके प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लिया जाना भी आश्चर्य की बात है.
ज्ञात हो कि धनबाद के सिंदरी में सार्वजनिक क्षेत्र का एक बड़ा कारखाना सिंदरी खाद कारखाना भी है. दो दशक से बंद पड़े इस कारखाने को खोलने के संबंध में बार-बार घोषणा की गई है लेकिन आज तक इसका भी कोई नतीजा सामने नहीं आ पाया है.
फिलहाल धनबाद-चंद्रपुरा रेल लाइन को अचानक रोक देने से इस पूरे संकट का व्यापक रूप दिखने लगा है. हैरानी की बात यह है कि भारतीय रेलवे बोर्ड को इस रेल लाइन पर ट्रेन चलाने में किसी भी ख़तरे का अंदेशा नहीं है.
रेलवे ने इस प्रस्ताव का लगातार विरोध किया. जबकि डीजीएमएस की सलाह पर कोल इंडिया द्वारा इस रेल लाइन को बंद करने का प्रस्ताव भेजा गया. रेलवे बोर्ड द्वारा मना किए जाने पर यह मामला प्रधानमंत्री कार्यालय भेजा गया.
पीएमओ के आदेश पर रेलवे का परिचालन अचानक रोक दिया गया. स्थानीय लोगों का मानना है कि इस रेल लाइन पर ऐसा कोई खतरा नहीं दिख रहा था. ऐसी कोई आपातकालीन स्थिति भी नहीं आई थी जिससे अचानक सारी ट्रेनों का परिचालन रोक दिया जाए. इसके बजाय योजनाबद्ध तरीके से वैकल्पिक रास्ते निकाले जा सकते थे.
ऐसे में स्थानीय लोग इसके पीछे किसी बड़ी साजिश मानते हैं. कहा जा रहा है कि रेल सेवा को रोकने के बाद इस पूरे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कोयला खनन की तैयारी है.
संभवतः किसी प्राइवेट कंपनी को कोयले के खनन का कार्य देने की योजना है. इसके लिए इस पूरे रेल मार्ग को बंद कर देना तर्कसंगत नहीं दिखता है.
रेल लाइन से सिर्फ़ लोगों का आवागमन नहीं जुड़ा है, बल्कि इससे बड़ी आबादी की आजीविका और शहरों की जीवंतता भी जुड़ी है. रेल परिचालन बंद होने से इस पूरे क्षेत्र में बेरोज़गारी बढ़ने का भी ख़तरा सामने है.
विडंबना यह है कि झरिया कोयलांचल के पुनर्वास के लिए बनने वाली बड़ी-बड़ी योजनाएं बड़े घोटाले का शिकार हुई हैं. झरिया क्षेत्र में ही एक बड़ी कॉलोनी का निर्माण लंबे समय से चल रहा है, जहां वर्तमान आबादी को स्थानांतरित करने की बात है.
लेकिन अरबों रुपये ख़र्च होने के बाद भी यह परियोजना अधर में लटकी हुई है. भूमिगत आग से फैलती ज़हरीली गैस से विभिन्न प्रकार की पर्यावरण और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी बढ़ रही हैं.
लोग पूछ रहे हैं कि जिस पृथ्वी का अस्तित्व हज़ारों साल से है, उसे महज़ एक सौ साल के भीतर कोयला निकाल कर इस तरह बर्बाद कर देना और यहां की लाखों की आबादी को ज़हरीली गैस के हवाले कर देना आख़िर कौन सा विकास है? ऐसे में 15 जून को ‘विकास पर्व’ के बजाय ‘विनाश पर्व’ मनाया जाना एक त्रासदी ही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)