विभिन्न राज्यों में एक के बाद एक विधानसभा चुनाव हारने के बाद राज्यसभा में भाजपा के सदस्यों की संख्या घटने वाली है, जिसके चलते अहम विधेयक पास कराने में मोदी सरकार को समस्याएं आएंगी. यही वजह है कि भाजपा एक-एक सीट जीतने के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ रही है.
जब से मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने सरकार बनाई थी, तब से ही लगातार प्रदेश भाजपा के बड़े नेता जल्द ही कांग्रेसी सरकार गिरने के दावे करते दिखते थे. लेकिन कमलनाथ की सरकार गिरी तो नहीं, उल्टा समय के साथ और मजबूत होती गई.
जब-जब सदन में वोटिंग के समय बहुमत साबित करने की नौबत आई, कांग्रेस ने भाजपा को पटखनी लगाई.
विधानसभा चुनावों में वह 114 सीटें जीतकर बहुमत से सिर्फ दो सीटें पीछे रह गई थी. भाजपा को 109 सीटें मिली थीं.
छिंदवाड़ा के उपचुनाव में भाजपा द्वारा पूरा जोर लगाने के बाद भी मुख्यमंत्री कमलनाथ ने जीत दर्ज की और सदन में कांग्रेसी विधायकों की संख्या 115 हो गई और भाजपा की घटकर 108 रह गई.
कांग्रेस ने एक निर्दलीय विधायक प्रदीप जायसवाल को मंत्री बना रखा था, इसलिए बहुमत के लिए जरूरी 116 का आंकड़ा पाकर कांग्रेस की सरकार सुरक्षित स्थिति में पहुंच गई.
इसके अलावा तीन और निर्दलीय, दो बसपा और एक सपा के विधायक के समर्थन से सरकार के पक्ष में 122 विधायक हो गए.
केंद्र में प्रचंड बहुमत से भाजपा ने वापसी की तो प्रदेश भाजपा के नेताओं ने फिर से राज्य में कांग्रेस सरकार गिरने संबंधी बयान देने शुरु कर दिए.
कांग्रेस ने फिर पलटवार किया और विधनासभा के मानसून सत्र में एक विधेयक पर वोटिंग के दौरान भाजपा के दो विधायक (नारायण त्रिपाठी और शरद कौल) अपने खेमे में खींच लिए.
इस तरह भाजपा सदन में और अधिक कमजोर हो गई. उसके विधायकों की संख्या 106 रह गई जो बहुमत से दस विधायक दूर थी.
हालांकि, सदन में कांग्रेस का समर्थन करने वाले विधायकों ने भाजपा से इस्तीफा नहीं दिया और न ही भाजपा ने उन्हें पार्टी से निकाला.
वे लगातार कांग्रेस के पक्ष में भाजपा विरोधी बयान देते रहे. इस बीच कांग्रेस और भाजपा के एक-एक विधायक का निधन हो गया. जिससे सदन में सदस्यों की संख्या घटकर 228 रह गई.
इसमें 121 कांग्रेस के पास थे, 105 भाजपा के पास और 2 विधायक (नारायण त्रिपाठी और शरद कौल) असमंजस में थे.
कांग्रेस सरकार सुरक्षित स्थिति में थी और सरकार को संकट में लाने के लिए भाजपा को बड़ी जोड़-तोड़ की जरूरत थी. भाजपा नेताओं के सरकार गिरने-गिराने के दावे थम गए थे
लेकिन विवाद की स्थिति तब उत्पन्न हुई जब 9 अप्रैल को खाली हो रहीं मध्य प्रदेश की तीन राज्यसभा सीटों पर चुनावों की घोषणा हुई.
इन सीटों पर वर्तमान में दो पर भाजपा और एक पर कांग्रेस का कब्जा है. भाजपा से प्रभात झा और सत्यनारायण जटिया तो कांग्रेस से दिग्विजय सिंह राज्यसभा सांसद हैं.
उक्त तीनों सीटों पर 26 मार्च को चुनाव होना है. 6 तारीख से उम्मीदवारों के नामांकन शुरू हुए और 13 तारीख उम्मीदवारों के नामांकन की अंतिम तारीख है.
सारा विवाद नामांकन प्रक्रिया शुरु होने के तीन दिन पहले यानी 3 मार्च को तब शुरु हुआ जब दिग्विजय सिंह ने मीडिया के सामने आकर भाजपा द्वारा कांग्रेस के विधायकों को 35-35 करोड़ रुपये में खरीदे जाने के आरोप लगाए.
हालांकि विवाद की पूरी पटकथा तो तब से लिखी जा रही थी जब भाजपा ने घोषणा की कि वह दो राज्यसभा सीटों पर अपनी दावेदारी पेश करेगी.
यहां राज्यसभा चुनावों का चुनावी गणित समझने की जरूरत है कि मध्य प्रदेश में कुल 230 विधानसभा सीटें हैं. एक सीट जीतने के लिए 25 फीसदी विधायकों का समर्थन होना जरूरी होता है.
हालांकि वर्तमान में मध्य प्रदेश विधानसभा में दो विधानसभा सीटें रिक्त हैं इसलिए सदन संख्या 228 पर ठहर जाती है और एक राज्यसभा सीट पाने के लिए 57 विधायकों के समर्थन की जरूरत होती है.
इस लिहाज से कांग्रेस के पास सदन में 121 विधायकों का समर्थन था जबकि भाजपा के पास सिर्फ 105 का. इसका अर्थ था कि दो सीटों के लिए जरूरी 114 विधायक कांग्रेस के पास थे.
जबकि भाजपा 57 विधायकों के साथ अपना एक उम्मीदवार तो आसानी से राज्यसभा भेज देती लेकिन दूसरे उम्मीदवार के लिए उसे कम से कम सरकार समर्थक 9 विधायकों से क्रॉस वोटिंग करानी पड़ती.
इस तथ्य के बावजूद भी भाजपा नेतृत्व ने प्रदेश में दो सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी.
इसका साफ अर्थ था कि भाजपा जोड़-तोड़ का मन बना चुकी थी और एक-एक सीट निर्विवाद तौर पर कांग्रेस और भाजपा को मिलनी थीं जबकि दूसरी पर टकरा यानी वोटिंग की नौबत आनी थी.
दिग्विजय सिंह ने जब 3 तारीख को भाजपा पर अपने विधायक खरीदने के आरोप लगाए तो उसी रात सरकार को समर्थन देने वाले तीन निर्दलीय, दोनों बसपा और एक सपा विधायक सहित चार कांग्रेस के विधायक भी लापता हो गए.
यानी कुल दस विधायकों के भाजपा के खेमे में जाने की बातें कही जाने लगीं. गायब हुए विधायकों में कांग्रेस के हर गुट के नेता थे.
इन विधायकों के गुड़गांव और बेंगलुरु के होटलों में रुकने की पुष्टि हुई. बाद में मुख्यमंत्री कमलनाथ, उनके मंत्री और दिग्विजय सिंह की सक्रियता से सभी विधायक कांग्रेसी खेमे में वापस लौटने लगे.
हरदीप सिंह डंग और रघुराज कंषाना को छोड़कर 8 विधायकों ने घर वापसी की. लेकिन साथ में कांग्रेस ने भी भाजपा के घर में सेंध लगा दी.
नारायण त्रिपाठी और शरद कौल तो उसका समर्थन पहले से ही करते थे, अब एक और भाजपा विधायक पीएल तंतुवाय के भी कांग्रेस के खेमे में जाने की चर्चा होने लगी क्योंकि अब वे भाजपा की पहुंच से दूर हो गए थे, यानी लापता हो गए थे.
कांग्रेस ने भाजपा विधायक संजय पाठक, जो कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने में अहम भूमिका निभा रहे थे, की खदानों के आवंटन रद्द कर दिए. संजय पाठक के भी कांग्रेसी खेमे में जाने की चर्चा होने लगी.
ये सभी घटनाक्रम प्रदेश में चलते रहे लेकिन प्रदेश कांग्रेस के एक बड़े धड़े के अगुवा ज्योतिरादित्य सिंधिया चुप रहे.
लेकिन प्रदेश की राजनीति की सबसे बड़ी उठापटक की नींव बीते सोमवार को तब रखी गई जब अबकी बार सिंधिया गुट के 19 विधायक जिनमें 6 मंत्री शामिल थे, लापता हो गए.
अगले दिन सिंधिया ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मिलने के बाद कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और उसके दूसरे दिन बुधवार को भाजपा की सदस्यता ले ली.
हालांकि, सिंधिया के इस्तीफे के पीछे लंबे समय से उनकी पार्टी और प्रदेश नेतृत्व से नाराजगी रही क्योंकि उनकी अनदेखी की जा रही थी. लेकिन राज्यसभा चुनावों ने इस नाराजगी को निर्णायक अंजाम तक पहुंचाया.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद सिंधिया भी राज्यसभा जाना चाहते थे, वहीं दिग्विजय की भी नजर तीसरी बार राज्यसभा जाने पर थी. लेकिन, कमलनाथ और दिग्विजय सिंधिया की राह में रोड़ा बने हुए थे.
इसका पहला कारण था कि कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी सिंधिया को मजबूत नहीं होने देना चाहती थी.
दूसरा कारण था कि दिग्विजय और सिंधिया दोनों ही निर्विवाद सीट से राज्यसभा पहुंचने के इच्छुक थे क्योंकि दूसरी सीट पर भाजपा अपना उम्मीदवार खड़ा करने वाली थी, इसलिए उस पर चुनावों की नौबत आती.
पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी और निर्दलीय व अन्य दलों के समर्थक विधायकों के डांवाडोल रुख के चलते दोनों ही नेता दूसरी सीट पर चुनाव हारने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे.
इसलिए ऐसे भी कयास लगाए गए किपिछले मंगलवार को भाजपा द्वारा अपने विधायकों को खरीदे जाने के जो आरोप दिग्विजय ने लगाए थे और उसके बाद विधायकों का गायब होना, फिर वापस आ जाना दिग्विजय की एक सोची-समझी चाल थी.
वे स्वयं को सरकार का संकटमोचक साबित करना चाहते थे ताकि तीसरी बार राज्यसभा सीट पर उनका दावा मजबूत हो और सरकार में उनकी अहमियत को देखते हुए उन्हें निर्विवाद सीट से राज्यसभा पहुंचाया जाए.
इन कयासों को बल प्रदेश सरकार के मंत्री उमंग सिंघार के उस ट्वीट से भी मिला जहां उन्होंने लिखा, ‘कमलनाथ सरकार पूर्ण रूप से सुरक्षित है. यह राज्यसभा में जाने की लड़ाई है. बाकी आप सब समझदार हैं.’
दिग्विजय सिंह के भाई और कांग्रेस विधायक लक्ष्मण सिंह की पत्नी रुबिना शर्मा सिंह ने भी उमंग सिंघार की बात से सहमति जताई.
गौरतलब है कि उमंग सिंघार और दिग्विजय सिंह के बीच संबंध कड़वे हैं. पिछले दिनों दोनों का विवाद खुलकर सामने भी आ गया था. इन हालातों में सिंधिया के लिए राज्यसभा की डगर मुश्किल होती जा रही थी.
वहीं, सिंधिया को राज्यसभा में पहुंचने से रोकने की कवायद भी लंबे समय से चल रही थी.
कांग्रेस से राज्यसभा पहुंचने की रेस में पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, पूर्व कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव और मीनाक्षी नटराजन जैसे और भी नाम थे जो अपने-अपने चुनाव हारकर लंबे समय से लूप लाइन में पड़े थे.
सिंधिया का कद इन सबसे बड़ा था इसलिए सिंधिया को रोकने के लिए अरुण यादव सहित अन्य पार्टी नेताओं ने प्रियंका गांधी को मध्य प्रदेश की एक सीट से राज्यसभा भेजने की मांग कर डाली.
अपने खिलाफ बनी इन विपरीत परिस्थितियों से सिंधिया के मन में महीनों से भड़की उपेक्षा की आग और तेज हो गई.
वैसे तो हर ओर कहा जा रहा है कि सिंधिया लंबे समय से इस योजना पर काम कर रहे थे. लेकिन अगर सिंधिया के पिछले कुछ ट्वीट और राजनीतिक गतिविधियों पर नजर दौड़ाएं तो तस्वीर कुछ और ही नजर आती है.
फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में भड़के दंगों पर सिंधिया ने बेबाकी से अपनी राय रखते हुए केंद्र की भाजपा सरकार को आड़े हाथों लिया था.
वहीं बीते सप्ताह वे मध्य प्रदेश में कांग्रेस की किसान कर्ज माफी योजना के तहत किसानों को ऋण माफी के प्रमाण पत्र भी बांटते नजर आए थे.
इसलिए ही इन संभावनाओं को बल मिल रहा है कि राज्यसभा सीटों पर नामांकन की अंतिम तारीख करीब आते देख जब उनके हाथ से राज्यसभा का टिकट फिसलने लगा तो वे कांग्रेस से छिटक गए.
वैसे भी प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी कह चुके हैं कि मध्य प्रदेश की वर्तमान सियासी उठापटक राज्यसभा चुनावों की कवायद है. सरकार गिराने के बारे में हमने नहीं सोचा है.
इस बीच सिंधिया को पाला पदलने के इनामस्वरूप भाजपा ने राज्यसभा का टिकट दे दिया है. राज्यसभा उम्मीदवारों की पहली सूची में मध्य प्रदेश से उनका नाम है.
बहरहाल, विभिन्न राज्यों में एक के बाद एक विधानसभा चुनाव हारने के बाद राज्यसभा में भाजपा के सदस्यों की संख्या घटने वाली है, जिसके चलते अहम विधेयक पास कराने में मोदी सरकार को समस्याएं आएंगी, इसलिए भाजपा एक-एक सीट जीतने के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ रही है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)