ग्राउंड रिपोर्ट: नोटबंदी ने पहले से ही बेहाल किसानों को बर्बाद कर दिया

मोदी सरकार भले ही नोटबंदी की सफलता का डंका पीट रही है लेकिन मध्य प्रदेश में किसानों का कहना है कि नोटबंदी ने उन्हें तबाह कर दिया है.

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होशंगाबाद ज़िले के चपलासर गांव किसान नर्मदा प्रसाद यादव की आत्महत्या के बाद गांव में उदासी का माहौल है. (फोटो: द वायर)

मोदी सरकार भले ही नोटबंदी की सफलता का डंका पीट रही है लेकिन मध्य प्रदेश में किसानों का कहना है कि नोटबंदी ने उन्हें तबाह कर दिया है.

होशंगाबाद ज़िले के चपलासर गांव किसान नर्मदा प्रसाद यादव की आत्महत्या के बाद गांव में उदासी का माहौल है. (फोटो: द वायर)
होशंगाबाद ज़िले के चपलासर गांव किसान नर्मदा प्रसाद यादव की आत्महत्या के बाद गांव में उदासी का माहौल है. (फोटो: द वायर)

अपने को किसान हितैषी दिखाने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री धरना देकर उठ गए हैं. पुलिस की गोली से मारे गए किसानों के परिवार राज्य सरकार को गोली चलवाने के लिए कोस रहे हैं. लेकिन मध्य प्रदेश के किसानों की समस्या जस की तस बनी हुई है. उनकी बातों में वे सारी समस्याएं मौजूद हैं जो उन्हें बर्बाद कर रही हैं, चाहे वह फ़सल का कम मूल्य हो, ख़रीद को लेकर फैली अव्यवस्था हो या नोटबंदी से ध्वस्त हो चुकी गांवों की अर्थव्यस्था हो.

ग्रामीणों से बातचीत में हर किसी की शिकायत में एक बात शामिल थी कि ‘नोटबंदी के बाद से किसानों की हालत ख़राब है या नोटबंदी ने किसानों को बर्बाद कर दिया.’

जो परिवार पुलिस की गोली से मारे गए अपने किसी परिजन की मौत का शोक मना रहा है उसकी भी शिकायत सिर्फ़ ये नहीं है कि उसने अपने किसी अजीज़ को खो दिया. उसकी शिकायतों में वे सारे तथ्य हैं जो किसानों की ज़िंदगी दूभर कर रहे हैं. इन तथ्यों में एक तथ्य है नोटबंदी.

उज्जैन के ज़िला पंचायत उपाध्यक्ष भरत पोरवाल कहते हैं, ‘नोटबंदी जबसे हुई है, किसान परेशान हैं. कोई एक हज़ार रुपये तक उनको उधार नहीं दे रहा है. लोग व्यापारी से, सेठ से, किसी से भी दो-चार-दस हज़ार ले लेते थे अपना काम चलाते थे. आज उस व्यापारी के ही पास कुछ नहीं है तो देगा कहां से. अभी तक ये था कि हर आदमी की जेब में दस-पांच हज़ार रुपये पड़े रहते थे. आज आदमी दस बार सोचता है. कैश मिलता नहीं है, न बैंक में, न एटीएम में.’

मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में ज़्यादातर किसान क़र्ज़ में डूबे हैं. किसानों की समस्याएं घटने की जगह बढ़ रही हैं. बीते कुछ समय में केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था में जो बदलाव किए हैं, वे किसानों की मुसीबत बनकर सामने आए हैं. नोटबंदी इन्हीं में से एक है जिसने पूरी ग्रामीण अर्थव्यस्था को ध्वस्त कर दिया है.

भरत पोरवाल कहते हैं, ‘गांव की व्यवस्था ऐसे चलती थी कि गांव के कुछ पाटीदार या सेठ लोगों के पास पैसा होता है, किसी को आधी रात भी ज़रूरत लगी तो जाकर ले आया और अपना काम कर लिया. आज उस सेठ के पास भी पैसा नहीं है किसी को देने के लिए. जिसके पास भी लाख पचास हज़ार रुपये पड़े थे, इन्होंने उसको चोर साबित कर दिया. जिसके पास दो लाख रुपये पड़े हैं वह इनकम टैक्स के दायरे में आ गया. नोटबंदी के बाद ग्रामीण बाज़ार की और ग्रामीणों की अर्थव्यस्था बर्बाद हो गई है. न आपके बैंक में पैसा है, न प्लास्टिक कार्ड में पैसा है. बेवकूफ़ बनाने का धंधा चल रहा है इस देश में.’

महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में सड़क पर उतरे किसानों ने अपनी उपज सड़कों पर फेंकी और दस दिन तक प्रदर्शन किया. मंदसौर में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमें छह किसान मारे गए. गोलीबारी की घटना के बाद दो हफ़्ते के अंदर ही राज्य में 15 और किसानों ने आत्महत्या कर ली.

किसानों के आंदोलन के दौरान मध्य प्रदेश के किसानों और ग्रामीणों से उनकी समस्या पूछने पर हर किसान और मंडी व्यापारी नोटबंदी का ज़िक्र कर रहा था. आश्चर्य की बात है कि नोटबंदी को सरकार के एक बेहतरीन फ़ैसले के तौर पर अब भी प्रचारित किया जा रहा है.

मंदसौर के लोध गांव के किसान मांगीलाल का बड़ा बेटा सत्यनारायण पुलिस की गोलीबारी में मारा गया था. उनके घर पर बातचीत में ग्रामीण धनराज बताते हैं, ‘किसानों ने प्रदर्शन इसीलिए रखा था क्योंकि उन्हें उचित मूल्य नहीं मिल रहा है. दूसरे, कैश पेमेंट नहीं मिल रहा है. चेक से पैसा मिलता है. अब किसी के पास खाता नहीं है तो वह पैसा कैसे भुनाए. दस दिन-पंद्रह दिन भटकना पड़ता है. पहले पैसा कैश में मिलता था. जबसे नई करंसी चालू हुई, पुराने नोट बंद हुए तबसे सबसे ज़्यादा दिक्कत किसानों को हो रही है. इससे हम लोगों को बहुत दिक्कत हो रही है. महीने महीने बीत जाते हैं, पैसे नहीं मिलते.’

धनराज नोटबंदी से आई परेशानी बताते हुए कहते हैं, ‘हमारे यहां एक ने मक्का बेचा तो उसको आठ महीने तक पैसे नहीं मिल पाए. बहुत चक्कर लगाने के बाद व्यापारी ने पैसे दिए. जिनका खाता शहर में है उनको कुछ सहूलियत होती है, लेकिन जिनका खाता गांव में है, उनके पैसे आने में बहुत समय लग जाता है.’

लोध गांव के ही रामचंदर कहते हैं, ‘किसानों को समस्या तो पहले से थी, लेकिन नोटबंदी के बाद समस्या और बढ़ गई. भाव भी नहीं मिला और पैसे भी नहीं मिले. किसानों के छोटे छोटे खाते हैं, उसमें पैसे आते ही नहीं हैं. हमें नहीं पता कि क्या चक्कर है, लेकिन खाते में पैसे ही नहीं आते. आते हैं तो बहुत दिन लग जाते हैं, आठ दिन, दस दिन, पंद्रह दिन.’

धनराज बातचीत में टोकते हुए कहते हैं, ‘जैसे कोई छोटा किसान है, बोरी दो बोरी गेहूं लेकर गया, या सोयाबीन लेकर गया. अब उसको चेक दे दिया, लेकिन उसे ज़रूरत तो आज थी न! अब वो क्या करे? अपना अनाज बेचकर अपना काम चलाना चाहता है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकता. उसे पैसा चाहिए, उसको पैसा की जगह चेक दे दिया तो अपना गुज़ारा कैसे करेगा?’

तो क्या नोटबंदी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तोड़ दिया? इस सवाल के जवाब में रामचंदर कहते हैं, ‘एकदम सही है. कोई किसान एक बोरी अनाज लेकर मंडी जाता है तो उसका एक दिन पूरा जाएगा. फिर दूसरे दिन बैंक में चेक लगाने गया. फिर चौथे दिन या आठवें दिन पैसे निकालने गया. एक हज़ार का चेक है और वो चार दिन दौड़ दौड़ कर शहर गया तो उसका सारा पैसा तो इसी भाग-दौड़ में ख़त्म हो गया. एक हज़ार के लिए अगर वो चार दिन चक्कर लगा रहा है तो उस एक हज़ार का क्या मतलब रह गया? उसका तो सब काम बिगड़ गया. ये नहीं होना चाहिए न!’

आगे की बातचीत में रामचंदर कहते हैं, ‘जो छोटा किसान है, मज़दूर है, वह इधर से भी गया और उधर से भी गया. उसका पैसा बैंक और व्यापारी लेकर बैठ जाएंगे तो वह क्या करेगा? उपर से उतना पैसा तो उसका आने-जाने में ख़र्च हो जा रहा है. उधर, वो आने-जाने के चक्कर में कहीं और काम या मज़दूरी भी नहीं कर सकता.’

धनराज कहते हैं, ‘चार बार शहर आने जाने में 500 तो किराया लग जाता है. एक हज़ार की फ़सल बेची तो 500 किराया हो गया. मज़दूरी गई अलग से. तो उसकी फ़सल का जो दाम मिला, उसका तो उसे कोई लाभ ही नहीं मिला.’

मंदसौर के बड़वन गांव के घनश्याम पुलिस लाठीचार्ज में घायल हुए थे. उनके परिजनों का कहना है कि पुलिस ने घनश्याम को इतना मारा था कि उनके हाथ-पैर की हड्डियां टूट गई थीं. बाद में अस्पताल में उनकी मौत हो गई.

घनश्याम के घर पर ग्रामीण कारूलाल ने बताया, ‘किसानों की ये हालत नोटबंदी होने के बाद हुई है. उसमें लोग पिसे हैं. किसान बेचारा माल बेचने जाता है तो उसका पैसा सरकार के पास जमा हो जाता है खाते में. दो-दो महीने पैसा नहीं मिलता. किसान बेचारा बहुत मजबूर हो गया है. ये आंदोलन मजबूरी में हो रहा है. 15- 15 दिन, दो-दो महीने पैसे क्लियर नहीं हो रहे. किसान चक्कर लगाकर परेशान है.’

बातचीत के दौरान एक अन्य ग्रामीण ने कहा, ‘500 का माल ले जाओ, चाहे 5000 का ले जाओ, सब पैसा बैंक में जा रहा है. किसान माल कमा रहा है और सरकार के पास जमा हो रहा है फिर हमें मिल रहा है. ये कौन सी सरकार है? ये नोटबंदी के बाद किसान की हालत ख़राब हो गई है. सबसे मूल बात यही है. नोटबंदी से सारा देश हिल गया, हमारा किसान भी हिल गया.’

कारूलाल कहते हैं, ‘सरकार के नोटबंदी के निर्णय के बाद सबसे ज़्यादा परेशान ग़रीबों किसानों को हुई. लेकिन सरकार ये बात क़बूल नहीं कर रही है. जबकि किसान आज भी बहुत परेशान है. अब तो पैसा भी कट जा रहा है. व्यापारी कैश देता है तो उसमें से भी पैसा काट लेता है. मंडी में ये भी हो रहा है. जबकि पहले एक पैसा नहीं कटता था. पहले हम एक लाख का माल बेचें तो भी कैश मिलता था, वह भी तुरंत. अब दो हज़ार का भी माल बेचें तो चेक ले के आओ. माल बेचने जाओ तो घर से जेब में पैसा लेकर जाना पड़ता है, क्योंकि वहां ख़र्च लगता है. बैंक वाले अलग चक्कर लगवाते हैं. बैंक वाले और बनिये सब मिले हुए हैं. किसानों की हालत ख़राब है.’

ग़ौरतलब है कि किसानों के आंदोलन के बीच किसानों पर पुलिस की गोलीबारी से 6 किसान मारे गए. इसके बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अनशन पर बैठे. अनशन तोड़ने के साथ उन्होंने घोषणा की कि व्यापारी किसान से अनाज ख़रीदेगा तो उसे कुल राशि का 50 प्रतिशत नक़द देगा और 50 प्रतिशत चेक में देगा. जो व्यापारी ऐसा नहीं करेगा उसे जेल भेजा जाएगा. इसके बाद व्यापारियों ने हड़ताल कर दी. व्यापारियों का कहना था कि अगर हम नक़दी में पैसा देंगे तो इनकम टैक्स विभाग हम पर शिकंजा कसेगा. व्यापारियों की हड़ताल के बाद शिवराज सिंह ने अपना आदेश वापस ले लिया और कहा कि दस हज़ार तक रुपये नक़द में दिया जाए बाक़ी चेक में दिया जाए.

ग्रामीणों और किसानों की अर्थव्यवस्था जिस तरह से चलती है, वह बरसों से चलती आई है. वहां पर क़र्ज़ उधार भी चलता है, अनाज के बदले सामान भी चलता है, और रुपये का नोट भी चलता है. सरकार ने किसानों की छोटी-छोटी पूंजी में बैंकों को घुसा दिया है, जिससे किसानों के सामने मुसीबत खड़ी हो गई है. सरकार ने किसान को पूंजीपति समझ लिया है, लेकिन किसानों को अपनी जान भी बचाने का संकट है.

यही वजह है कि एक जून से अब तक देश भर में क़रीब 35 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. साल 2015 में किसानों की आत्महत्या की दर 42 प्रतिशत बढ़ गई है. आख़िर में सवाल उठता है कि क्या सरकार किसानों को इतनी राहत दे सकती है कि वे क़र्ज़ और कंगाली की वजह से आत्महत्या करना बंद कर दें?

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