प्रवासी मज़दूरों का सामूहिक पलायन भुखमरी के तात्कालिक भय से कहीं ज़्यादा, ग़रीब हिंदुस्तानियों के सामूहिक अवचेतन में सदियों से बैठी इस धारणा का प्रमाण है कि उन्हें सत्ता, उसकी व्यवस्था और समाज के संपन्न वर्ग से कभी कोई आशा नहीं करनी चाहिए और यह कि ‘अंत में ग़रीब की कोई नहीं सुनेगा.’
कोरोना लॉकडाउन के बाद देश के अनेक भागों से प्रवासी मज़दूरों के यूपी, बिहार आदि में अपने गांवों के लिए पलायन की जो हृदयविदारक तस्वीरें और इंटरव्यू सामने आए हैं, उन्होंने कलेजा ऐंठकर रख दिया है.
दुनिया में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि कंधों पर बच्चे और हाथों में बैग और गठरियां उठाये, स्त्रियों और अपने पांवों चलने में सक्षम छोटे बच्चों के साथ लोग सैकड़ों मील लंबे सफर को तय करने के इरादे से निकल पड़े हों.
यह अभूतपूर्व बात है और इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए. ये लोग एक ऐसे सफर पर निकल पड़े जो अब तक किसी ने नहीं किया है और जिसमें रास्ते में ही दम तोड़ देने की पूरी पूरी संभावना है. बाईस आदमी अब तक मर भी चुके हैं.
बेशक हमने कांवरियों को भी लंबी राहों पर चलते देखा है. लेकिन उनके लिए पूरे रास्ते खाने-पीने, आराम करने के लिए शिविर बने होते हैं.
सबसे बड़ी बात कि वे तंदुरुस्त लोग होते हैं, ख़ुशी-ख़ुशी गाते-बजाते जा रहे होते हैं और उनके दिमाग़ पर यह बोझ नहीं होता कि जेब में फूटी कौड़ी नहीं है और बीवी-बच्चे कल को भूख से मर भी सकते हैं.
वैसे आपको याद होगा कि कांवरियों पर हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा भी होती है और कभी-कभी अधिकारी उनके पांव भी दबाते देखे जाते हैं.
भूखे पेट, सिर पर बोझ और पांवों में फटे जूते-चप्पलों के साथ ऐसा दुस्साहस दुनिया में आज तक किसी ने नहीं किया था. ज़रा सोचिए, सैकड़ों मील पैदल चलने की कोई हिम्मत भी कैसे कर सकता है?
बड़े-बड़े एथलीट इतना न चले हों. और अगर हज़ारों लोग ऐसा करने पर आमादा हो गए, तो उसके पीछे कोई ऐसे कारण ज़रूर रहे होंगे जिनका हम अमूमन क़यास भी नहीं लगा सकते.
माना रिक्शे रुक गए, फैक्ट्रियां, काम-धंधा और रोज़ की कमाई बंद हो गए, लेकिन चार दिन में ही फाक़ाकशी या भुखमरी की नौबत आ गयी हो, ऐसा नहीं था.
फिर वो कौन-सा डर था जो इतने सारे लोगों को एक साथ इस कदर सताने लगा कि वे अगर तुरंत नहीं भागे तो यहां बहुत भारी मुश्किल हो जायेगी?
हो सकता है कि जब तक यह लेख छपे तब तक सरकार या तो ऐसे लोगों को घरों के बाहर निकलने से ही रोक दे. जो लोग निकल चुके हैं उन्हें अस्थायी कैंपों में रख दिया जाए, या कुछ को बसों आदि में बैठा कर उनकी मंजिल की तरफ रवाना कर दे.
सूरत में प्रवासी मजदूरों को रोकने के लिए आंसू गैस छोड़ी गई और 90 लोग गिरफ्तार भी कर लिए गए.
लेकिन इन प्रवासी मज़दूरों को फिलहाल रोक देने से, वापस भेज देने से या कहीं कैंपों में खिचड़ी खिला देने, यानी किसी भी तरह से लॉकडाउन को सफल बना लेने या कोरोना के खतरे को कम कर लेने से हमें इसका जवाब नहीं मिलेगा कि आख़िरकार वो कौन-सा ख़ौफ था जो हज़ारों लोगों के दिलोदिमाग़ पर यक ब यक इस कदर तारी हो गया.
वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी का ज्ञान छोड़ दें, तो ऐसा किसी अफवाह से नहीं हुआ था. जब सैकड़ों मील दूर बैठे, एक दूसरे से अनजान लोग भी एक जैसा आचरण करें तो ये समझ लेना चाहिए कि ऐसा इन सभी हिंदुस्तानियों के सामूहिक अवचेतन (Collective Subconscious) में सदियों से बैठी हुई किसी बात की वजह से है.
वो बात यह है कि गरीब हिंदुस्तानी सदियों से ये देखते और मानते आ रहे हैं कि उन्हें सत्ता और उसकी व्यवस्था से कोई आशा नहीं रखनी चाहिए.
इतिहास गवाह रहा है कि राज चाहे राजे-महाराजों का रहा हो, सुल्तानों का, बादशाहों का, कंपनी बहादुर का या गोरी सरकार का, राज्य का अस्तित्व मूलतः शासक के लिए होता था, शासित के लिए नहीं.
बहस के लिए एकाध अपवादों को छोड़ भी दें तो भी ज़्यादातर शासकों का उद्देश्य गरीब जनता का शोषण करना होता था.
प्राचीन काल से मान्यता रही है कि राजा प्रजा से इसलिए टैक्स या कर लेता है कि वो उसके बदले में प्रजा की बाहरी आक्रमणों से और आतंरिक अपराधियों से रक्षा करेगा. प्रजा की जो रक्षा इन लोगों ने की वो तो सब जानते हैं.
सिकंदर से शुरू कर, हूण, शक, मंगोल, अरबी, तुर्की, अफगानी, मुगल, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेज़ आदि सभी सदियों तक हमले करते रहे, जनता को लूटते रहे और उनके तथाकथित रक्षक ये राजे-महाराजे लोग बड़ी बड़ी मूंछों पर ताव देने के बाद भी निरंतर ‘शान से’ हारते रहे.
प्राइमरी स्कूलों की किताबों में बच्चों को बहला दिया जाता है कि राजा ने सड़कें बनवाईं, तालाब खुदवाए, सरायें बनवाईं, धर्मशालाएं बनवाईं, आदि आदि. हकीकत में जनता की जो बदहाली थी वो जनता ही जानती है.
शासक का मुख्य कार्य होता था कि ऐशो-आराम करे, मुजरे देखे, नाच-गाने से मन बहलाए, शिकार करे, बेहिसाब खाए-पिए और राज्य में भले कुछ हो जाए, अकाल पड़ जाए, बाढ़ आ जाए, महामारी फैल जाए, मगर जनता से लगान वसूलना न भूले.
शासक जो फौज या पुलिस टाइप की चीज रखता था, वो किसी भी बाहरी आक्रांता से लड़ने के काम की नहीं होती थी. वो इतना ही कर सकती थी कि जनता लगान देने में कोताही करे तो कोड़े मारकर या हाथ-पैर तोड़कर लगान वसूल ले.
आज भी जनता के लिए शासन किसी न किसी प्रकार की दंडात्मक व्यवस्था का ही प्रतीक है. बच्चे भी जानते हैं कि पुलिस पकड़ लेगी या मारेगी. पुलिस मदद करेगी, ऐसा न उसने देखा है न वो मानता है.
आपने कभी सोचा है कि हमारे यहां जनता कभी भी अपने ‘राष्ट्र’ के लिए बाहरी हमलावरों के खिलाफ विद्रोह में या किसी राजा के साथ युद्ध में सामूहिक रूप से क्यों नहीं उठ खड़ी हुई थी?
उस युग में तोपों को छोड़कर जनता भी वही तीर-तलवार-भाले उठा सकती थी जो हमलावरों की सेनाओं के पास होते थे. हमारा संख्या बल इतना भारी था कि यदि हम उठ खड़े होते तो कोई सेना उनके सामने न टिकती.
लेकिन जनता इसलिए नहीं खड़ी होती थी क्योंकि उन्हें मालूम था कि उन पर राज करने वाला चाहे उनकी अपनी जाति-धर्म-देश का हो या बाहर वाला, उनके हाल में कोई फर्क़ नहीं पड़ने वाला.
सभी उनका एक ही तरह से शोषण करते. इसलिए, ‘कोउ नृप होए हमें का हानि’ उनकी अचल मान्यता रही है!
शासकों के ऐसे आचरण के कारण ही हमारे यहां जनता में राज्य और ‘राष्ट्र’ के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न हो गया था. सदियों की विरक्ति के कारण हमारे लोग भाग्यवादी विचारधारा या फेटलिज़्म के समर्थक हो गए.
हमारे भाग्य में भगवान ने जो लिख रखा है, वही होगा, शासन गरीब की कोई सुध नहीं लेगा. यही भाव आज भी जनता के अवचेतन में विद्यमान हैं और उसके आचरण को प्रभावित करते हैं.
जो लोग सैकड़ों मील पैदल चलने की नीयत से निकल पड़े, उनका मानना था कि काम-धंधा तो बंद ही है, अगर वे ‘परदेस’ में बीमार पड़े तो उन्हें कोई नहीं पूछेगा.
वे हर साल डेंगी, चिकनगुनिया, मलेरिया, स्वाइन फ्लू आदि के समय ये देखते आए हैं कि क़ानून के बावजूद अस्पताल बेड न होने का बहाना बना कर उन्हें दफा कर देते हैं.
यहां एक और बात ग़ौर करने की है. भले ही ये प्रवासी मज़दूर दिल्ली, मुंबई में बरसों से रहते आए हों, उनका इन जगहों से, वहां के उन बाशिंदों से जिनके लिए वो काम करते हैं, कोई भी भावनात्मक संबंध नहीं है.
ये संबंध पूरी तरह व्यावसायिक है. काम करो, पैसा लो, आगे हमसे क्या? इसलिए वे संकट में उनसे किसी भी प्रकार की सहानुभूति या मदद की अपेक्षा नहीं करते.
ये बात साबित ही हो गयी जब सरकार के आदेश के बावजूद तमाम मालिकान ने उन्हें तनख़्वाह देने से मना कर दिया. सोचिये, अगर उनके मालिकान उन्हें पैसे देने का पक्का आश्वासन दे दिए होते तो वे क्यों भागते भला?
‘परदेस’ में हमदर्दी के अभाव के कारण ही वे अपने गांव लौट जाना चाहते हैं जहां उन्हें कम से कम अपनों की हमदर्दी तो मिल सके और वे उन्हें हमदर्दी दे सकें.
कृश्न चंदर ने दशकों पूर्व ‘एक गधे की आत्मकथा’ में लिखा था कि जब रामू धोबी एक हादसे में मर गया तो कुछ देर तो उसके ग्राहकों ने सहानुभूति जताई पर फिर उन्हें चिंता हुई कि उनके कपड़ों का क्या होगा जो रामू धोबी के पास दिए हुए थे… ‘माना रामू धोबी अच्छा आदमी था पर हमारी शिफॉन की साड़ी कौन-सी बुरी थी?’
हिंदुस्तान में गरीब आदमी अपने राजनीतिक विचार ठीक से अभिव्यक्त या आर्टिक्युलेट नहीं कर पाता. वो वोट किसी भी पार्टी को देता हो, किसी भी पार्टी की योजनाओं का लाभ उठाता हो, पर उसे यह मालूम है कि वह सब अस्थायी है.
उसे इसमें कोई शक नहीं कि ‘अंत में गरीब की कोई नहीं सुनेगा.’ उसे अच्छी तरह मालूम है कि किसी एक वक्त पर शासन की मंशा शासन की अवसरवादिता का प्रतीक और परिणाम दोनों होती है.
वोट लेना है या किसी और काम के लिए फुसलाना है, उस समय सरकारी मदद लॉलीपॉप के रूप में मिल जाएगी. बाकी समय तुम जानो, तुम्हारा काम जाने, तुम्हें बैठा कर खिलाने का सरकार ने ठेका ले रखा है क्या?
वह किसी जाति का हो, किसी पार्टी को वोट देता हो, उसके राजनीतिक रहनुमा किसी पार्टी के हों, उसे मालूम है कि गरीबी एक अलग ही जाति है.
अपने घर जाने को व्याकुल, सड़कों पर चले जा रहे हज़ारों लोग पचासों जातियों के रहे होंगे. हो सकता है कि जाति-धर्म के आधार पर लड़ते-झगड़ते भी रहे हों. लेकिन संकट के समय केवल एक जाति रह गई… गरीबी.
और रह गया उनके पास केवल कुएं के तले पर पड़े आदमी का ‘डेस्परेट करेज’ कि अब इससे नीचे कहां जा सकता है? मरना यहां भी है और सड़क पर भी. तो सड़क पर ही क्यों न मरें?
कम से कम ये अफसोस तो नहीं होगा कि हमने अपनी तरफ से कोशिश नहीं की.
आज़ादी के 73 साल बाद भी गरीब जनता के अवचेतन की यह धारणा ज्यों की त्यों है और यह हमारे ‘महान’ प्राचीन सभ्यता और संस्कृति वाले और जल्द ही दुनिया के उन्नत, अमीर देशों की श्रेणी में आ जाने वाले,शक्तिशाली राष्ट्र जिसके दुश्मन थर-थर कांपते हैं, उसकी कटु वास्तविकता है.
(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और केरल के पुलिस महानिदेशक और बीएसएफ व सीआरपीएफ में अतिरिक्त महानिदेशक रहे हैं.)