कोरोना: मोदी सरकार के पास न रणनीति है, न ही मानवता

बीते छह सालों में मोदी सरकार के कई फ़ैसले दिखाते हैं कि उसे जनता में डर और दहशत पैदा करने का विचार पसंद है. नोटबंदी में लंबी लाइनों में लगकर पुराने नोटों को बदलना हो, नागरिकता साबित करने के लिए कागज़ जुटाना या अचानक हुए लॉकडाउन में अनहोनी के डर पलायन, सरकार के फ़ैसलों की मार समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके पर ही पड़ी है.

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New Delhi : A migrant family carry their belongings as they walk to their village, amid a nationwide lockdown in the wake of coronavirus pandemic, near Delhi-UP Border in New Delhi, Sunday, March 29, 2020. (PTI Photo/Ravi Choudhary)(PTI29-03-2020 000020B)

बीते छह सालों में मोदी सरकार के कई फ़ैसले दिखाते हैं कि उसे जनता में डर और दहशत पैदा करने का विचार पसंद है. नोटबंदी में लंबी लाइनों में लगकर पुराने नोटों को बदलना हो, नागरिकता साबित करने के लिए कागज़ जुटाना या अचानक हुए लॉकडाउन में अनहोनी के डर पलायन, सरकार के फ़ैसलों की मार समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके पर ही पड़ी है.

New Delhi : A migrant family carry their belongings as they walk to their village, amid a nationwide lockdown in the wake of coronavirus pandemic, near Delhi-UP Border in New Delhi, Sunday, March 29, 2020. (PTI Photo/Ravi Choudhary)(PTI29-03-2020 000020B)
(फोटो: पीटीआई)

नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर और नागरिकता (संशोधन) कानून की कवायद के कारण कई लाख लोग स्टेटलेस यानी बिना किसी देश के हो सकते थे, मगर अचानक की गई तालाबंदी (लॉकडाउन) की घोषणा ने अनगिनत भारतीयों बेघर ही कर दिया है.

वे जहां हैं, वहीं फंस गए हैं और उनके पास जाने के लिए कोई ठौर नहीं है. उन्होंने अपने पुराने आशियाने को छोड़ दिया है और वे गांव के अपने घर तक नहीं पहुंच सकते हैं.

राज्यों ने अपनी सीमाएं सील कर दी हैं. कोई नेता उन्हें गोली से उड़ा देना चाहता है. सत्ताधारी दल का एक नेता का मानना है कि वे गैरजिम्मेदार हैं और घर जाकर परिवार से मिलने के लिए अचानक मिल गई छुट्टी का फायदा उठा रहे हैं.

इन प्रवासी मजदूरों के पास न खाना है, न सिर पर छत है, न कोई उम्मीद बाकी है. इनमें से कई अपनी नौकरी गंवाकर आए हैं, क्योंकि उनके मालिक उन्हें वेतन दे पाने की हालत में नहीं थे.

उनके लिए खाना और घर का किराया दे पाना काफी मुश्किल होता. उन्हें बीमार पड़ जाने का भी डर था.

ऐसे में वे धरती पर बची उस इकलौती जगह पर किसी भी तरह से पहुंच जाने के लिए निकल पड़े, जहां उन्हें सुरक्षा का एहसास होता- और यह जगह थी उनका घर.

लेकिन सीमाएं सील हैं और वे कब अपने घरों को पहुंच पाएंगे, यह पता नहीं है. भीड़ बढ़ रही है. एक बड़े मानवीय संकट भूमिका तैयार हो रही है.

सत्ता में वापसी करने के एक साल के भीतर यह तीसरी बार है जब सरकार के किसी आधिकारिक कदम ने बहुत बड़ी आबादी को एक साथ मुसीबत और तकलीफ में डाल दिया है.

कुछ साल पीछे जाएं, तो हम नोटबंदी को भी इस फेहरिस्त में डाल सकते हैं. इन सभी मामलों में जो एक बात साझा है वह है फैसले लेने का तानाशाही तरीका, योजना का अभाव और खराब क्रियान्वयन.

इनमें एक और चीज और साझा है और वह है मानवीय जीवन की कीमत की रत्ती भर परवाह न करना, जो इन मामलों में बहुत ज्यादा रही है.

मनरेगा जैसी एकाध पहलों को छोड़ दें, तो भारत में कभी भी एक कारगर सामाजिक कवच नहीं रहा है. थोड़ा-बहुत जो कुछ था भी, आज उसकी भी हालत खराब है.

नीतियां बनाते वक्त गरीबों की जरूरत का शायद ही कभी ध्यान रखा जाता है, लेकिन अब उनके प्रति संवेदना का भी पूर्ण अभाव दिखता है.

लॉकडाउन का सबसे ज्यादा खामियाजा जिन्हें उठाना पड़ा, उन्हें ही सामूहिक हितों की ज़रा भी परवाह न करने वाले एंटी नेशनल खलनायक के तौर पर पेश किया जा रहा है.

सरकार के समर्थक ये तर्क दे सकते हैं कि ये सारे फैसले अनिवार्य थे और आखिरकार ये सब देश के लिए फायदेमंद थे. ये अनिवार्य थे या नहीं, इस पर अंतिम निर्णय अभी तक नहीं हुआ है, लेकिन चलिए हम इनकी एक-एक करके तफ़्तीश करते हैं.

यह कहा गया कि नोटबंदी काला धन को निकालने के लिए जरूरी थी (साथ में यह भी कहा गया था कि यह कैसे आतंकवाद की कमर तोड़ देगी). हम यह देख चुके हैं कि इसका अंजाम कैसा रहा- सिर्फ लघु अवधि में नहीं, बल्कि दीर्घ अवधि में भी.

इसकी सबसे ज्यादा मार गरीबों को झेलनी पड़ी, लेकिन दावे के उलट नकद लेन-देन और काला धन दोनों की वापसी हो गई है.

कश्मीर में अनुच्छेद 370 के कई प्रावधानों को ख़त्म करना- जहां पूरे राज्य को तालाबंद कर दिया गया और बुनियादी इंटरनेट तक लोगों से छीन लिया गया.

इस फैसले का स्वागत उन लोगों के द्वारा भी किया गया जो मोदी सरकार के कोई खास प्रशंसक नहीं थे. लेकिन इस कदम ने सत्तर लाख लोगों के जीवन को कठिन बना दिया.

अतिदेशभक्त अप्रवासी भारतीयों ने इसका स्वागत करते हुए यह ऐलान किया कि ‘कश्मीर आखिरकार भारत का हिस्सा बन गया है.’ लेकिन दुनियाभर में इसकी व्यापक भर्त्सना की गई.

कश्मीर पर भारत के दावे पर दुनिया कभी भी पूरी तरह से एकमत नहीं रही है, लेकिन लगातार होने वाले चुनावों और लोकतांत्रिक संस्थानों ने भारत के पक्ष को मजबूत करने का काम किया है.

लेकिन निर्वाचित नेताओं को महीनों तक बिना किसी आरोप के कैद करके रखने के बाद हमारे दावे का क्या नैतिक आधार बचा रह जाएगा?

जहां तक असम में कोर्ट के निर्देश पर चलाई गई एनआरसी की पूरी प्रक्रिया का सवाल है, इससे फैली अफरा-तफरी को देखते हुए मोदी सरकार को इसके नतीजों का अंदाजा हो जाना चाहिए था.

लेकिन इसकी जगह इसने पूरे भारत के लिए यह रजिस्टर बनाने की योजना का ऐलान कर दिया. इसलिए अभी सिर्फ असम के 19 लाख लोगों की नागरिकता पर ही तलवार नहीं लटक रही है, आने वाले समय में इससे कई गुना ज्यादा लोग इस स्थिति में होंगे.

पूरे भारत में हुए आंदोलनों के बाद सरकार को न सिर्फ ठहर जाना चाहिए था बल्कि इस नुकसानदेह कदम को भी वापस ले लेना चाहिए था. लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह कोई कदम उठा लेने के बाद उस पर दोबारा विचार नहीं करते हैं.

और अब घातक कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले ने, जिससे निपटने के लिए एक सुव्यवस्थित और ज्यादा मानवीय प्रतिक्रिया की दरकार थी, एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि यह सरकार कोई काम करने से पहले कोई योजना बनाने की जहमत नहीं उठाती है.

एक अचानक की जाने वाली तालाबंदी कोई योजना नहीं है और जाहिर तौर पर थाली पीटने की अपील को कोई योजना नहीं कहा जा सकता है.

इसमें से दूसरा जबरदस्त तरीके से सफल रहा और इसने उंगली के इशारे पर देश की जनता को नचाने की मोदी की क्षमता का एक बार फिर प्रदर्शन किया.

वॉट्सऐप पर फॉरवर्ड किए जाने वाले छद्म आध्यात्मिकता से भरे कई संदेशों में कहा गया कि थाली पीटने से होने वाला कंपन और साथ में ओम का मंत्रोच्चार वायरस को भगा देगा.

सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर देशव्यापी तालाबंदी के ऐलान का विनाशकारी प्रभाव पड़ा- खासतौर पर गरीबों पर.

Ghaziabad: Migrants board a bus to their native villages during a nationwide lockdown, imposed in the wake of coronavirus pandemic at Kaushambi, in Ghaziabad, Saturday, March 28, 2020. (PTI Photo/Manvender Vashist) (PTI28-03-2020 000285B)
(फोटो: पीटीआई)

मध्यवर्ग धीरे-धीरे एक दिनचर्या में रम गया है और भले उन्हें भी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वे घर से काम कर सकते हैं और उनके पास समय बिताने के कई विकल्प मौजूद हैं- सोशल मीडिया नेटफ्लिक्स आदि पर देखने लायक अच्छी फिल्मों की सिफारिशों से गुलजार है.

लेकिन सड़क पर उतरे हुए लोगों पर रासायनिक छिड़काव करने के बाद, उन्हें जानवरों की तरह बाड़े में ठूंसा जा रहा है और स्टेडियमों में हांका जा रहा है.

उन्हें एकांत में रखा जाएगा. लेकिन इसके आगे क्या? उनकी मेडिकल जांच कौन करेगा? उनको खाना कौन खिलाएगा और एक समय के बाद उन्हे उनके शहर या गांव में उनके घर तक कौन पहुंचाएगा?

क्या उनकी नौकरियां बची होंगी, क्योंकि आशंका यह है कि तालाबंदी से छोटे कारोबारों को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने और तालाबंदी के धक्के से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए सरकार के पास क्या योजना है?

फिलहाल मामलों और मौतों की संख्या बढ़ने की सूरत में पैदा होनेवाले मेडिकल आपातकाल से निपटना सबसे पहली प्राथमिकता है और हमारे डॉक्टर और नर्स दिन-रात मोर्चे पर डटे हुए हैं.

लेकिन इतना ही महत्वपूर्ण है आपूर्ति में रुकावट की समस्या से निपटना, जो सीधे तौर पर अचानक लॉकडाउन की घोषणा से पैदा हुई है.

ट्रक हाईवे पर खड़े हैं. माल चढ़ाने ओर उतारने का काम करनेवाले मजदूर गायब हैं और आपूर्ति दुकानों तक नहीं पहुंच रही है. और राज्यों द्वारा अपनी सीमाओं को खोलने को लेकर की जा रही आनाकानी को देखते हुए हालात और खराब होने की ही आशंका है.

थोड़ी-सी योजना बनाकर इस सबको टाला जा सकता था. सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या इतने कम समय के नोटिस पर तालाबंदी करना जरूरी था?

अभी भी सरकार इस महामारी और इसके बाद की स्थिति से निपटने के लिए एक स्पष्ट और सुविचारित रणनीति बनाकर इस आपदा का सामना कर सकती है. लेकिन अब तक ऐसी किसी रणनीति पर काम किए जाने का कोई संकेत नहीं है.

फैसले लेने के ऐसे पैटर्न को देखते हुए यह सवाल किसी के भी मन में आ सकता है कि क्या मोदी सरकार में कोई भी- और खुद नरेंद्र मोदी भी- ऐसे फैसलों का लोगों पर पड़ने वाले असर के बारे में नहीं सोचते हैं?

ये दंभपूर्ण फरमान जैसी घोषणाएं उन्हें शायह भाती हों- उनके भक्तों को यह निश्चित तौर पर खूब पसंद आता है. निश्चित ही उन्होंने लोगों पर आने वाली मुसीबत के बारे में सोचा होगा?

और अगर उन्होंने नहीं सोचा है- और पिछले कुछ साल की घटनाओं को देखते हुए ऐसा शक पैदा होना वाजिब है- तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उन्हें जनता में डर और दहशत पैदा करने का विचार पसंद है.

क्योंकि भले यह नोटबंदी के दौरान पुराने नोटों को बदलने का मामला हो या अपनी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज जमा करने का या अब भोजन खरीद कर जमा करने के लिए सरपट भागने का, हर बार लाखों-करोड़ों लोगों को डर और आशंका ने घेर लिया.

लेकिन सबसे ज्यादा मार हमेशा गरीबों पर पड़ती है. उन्हें ही अपनी मामूली नकद बचतों को बदलने के लिए लाइन में खड़ा होना पड़ा था और अब वे ही हैं, जिन्हें इस संकट के बाद अपनी नौकरियां गंवानी पड़ेंगी.

यह हमारे समय के अनुरूप ही है कि सैकड़ों मील की दूरी तय करके किसी भी तरह अपने घर पहुंचने के लिए पैदल ही निकल जाने वाले लोगों को ही गालियां दी जा रही हैं और उन पर गैरजिम्मेदार होने का आरोप लगाया जा रहा है.

अगर कोविड-19 फैलता है, तो इसका आरोप उन पर ही लगाया जाएगा. सरकार द्वारा त्याग दिए गए और समाज द्वारा ठुकरा दिए गए ये लोग अपनी ही जमीन पर बेघर शरणार्थी बनकर रह जाएंगे.

(इस लेख अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)