मध्य प्रदेश में भाजपा की सत्ता वापसी तो हो गई है, लेकिन शिवराज सिंह चौहान के लिए यह कार्यकाल उनके पिछले कार्यकालों की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण रहेगा. विश्लेषकों के अनुसार, उन्हें पार्टी में आए बाग़ी विधायकों को साधने से लेकर उन मुद्दों से भी निपटना है, जिन पर वे कांग्रेस को घेरते आए हैं.
भोपाल के श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री आवास में वह शिवराज सिंह चौहान का आखिरी दिन था. लगातार 13 सालों से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर वे वहां रह रहे थे. लेकिन सत्ता कभी स्थायी नहीं होती.
2018 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार के बाद शिवराज को मुख्यमंत्री आवास खाली करना था. आखिरी दिन उनके विधानसभा क्षेत्र बुदनी के लोग उनसे यहां मिलने आए थे.
मुलाकात के दौरान शिवराज भावुक हो गये और बोले, ‘कोई इस बात की चिंता मत करना कि हमारा क्या होगा. मैं हूं न शिवराज सिंह चौहान… टाइगर अभी जिंदा है.’
जब लोगों ने उनसे पूछा कि पांच साल बाद क्या आप फिर यहां होंगे? तो शिवराज ने कहा, ‘हो सकता है कि पांच साल भी पूरे न लगें.’
उस समय शिवराज के इन बयानों ने काफी तूल पकड़ा था. लेकिन 15 महीनों में ही उनका कहा सच हो गया.
अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करने से पहले ही कांग्रेस की कमलनाथ सरकार अपने अंदरूनी मतभेदों के चलते अल्पमत में आ गई और भाजपा व शिवराज को फिर से सरकार बनाने का मौका मिला.
करीब दो हफ्ते कांग्रेस और भाजपा के बीच चले सियासी जोड़-तोड़ के बाद 23 मार्च को शिवराज सिंह चौहान ने चौथी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली.
इस तरह शिवराज मध्य प्रदेश के ऐसे पहले नेता बन गये जो कि चार बार राज्य के मुख्यमंत्री बने हैं. हालांकि, इस बार ऐसी भी खबरें सामने आ रही थीं कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व किसी और के सिर पर ताज पहना सकता है.
केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा और थावरचंद गहलोत के नाम विकल्प के तौर पर सामने आ रहे थे.
इन कयासों को बल इसलिए मिला क्योंकि तोमर और मिश्रा की भूमिका कमलनाथ सरकार गिराने में अहम रही थी, वहीं गहलोत भाजपा का दलित चेहरा हैं.
साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि मोदी-शाह की आंखों में शिवराज खटकते हैं. इसलिए 20 तारीख को कमलनाथ के इस्तीफा देने के बाद से भाजपा में अगले तीन दिन मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर बैठकों का दौर चला. अंतत: मुहर शिवराज के ही नाम पर लगी.
वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘तोमर का मुख्यमंत्री बनना तय लग रहा था. लेकिन मोदी की तमाम नापसंदगी के बावजूद वर्तमान हालातों में शिवराज से बेहतर उम्मीदवार उनके पास कोई नहीं है. क्योंकि शिवराज 13 साल मुख्यमंत्री रहे हैं और हर विधानसभा, हर विधायक एवं पूरे प्रदेश में उनसे अधिक प्रभाव किसी का नहीं है.’
वे आगे कहते हैं, ‘बड़ी बात ये भी है कि सिंधिया की आमद से सामने आने वाले अंतर्विरोध संभालने के लिए आर्थिक व्यवस्था बैठानी होगी. यह अनुभवी शिवराज के अलावा किसी के बस का नहीं. नया व्यक्ति असफल रहता. वहीं, नरोत्तम ई-टेंडरिंग घोटाले के कारण छवि खराब है. शिवराज पर कोई आरोप नहीं है. व्यापमं से बरी हो चुके हैं. अहम यह भी है कि शिवराज लचीले स्वभाव के हैं, वे सिंधिया को भी एडजस्ट कर लेंगे और दूसरों को भी.’
एक मसला यह भी है कि आने वाले समय में प्रदेश की 24 सीटों पर उपचुनाव होने हैं और भाजपा के पास शिवराज से बड़ा वोट बटोरने वाले चेहरा कोई और नहीं है. वे सभी छह अंचलों में लोकप्रिय हैं.
बहरहाल, शिवराज के मुख्यमंत्री बनाए जाने के पीछे वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग भी सिंधिया फैक्टर को अहम मानते हैं.
वे कहते हैं, ‘सिंधिया ग्वालियर-चंबल के पावर सेंटर हैं. तोमर या नरोत्तम के मुख्यमंत्री बनने से क्षेत्र में दूसरा पावर सेंटर बनता. इससे सिंधिया के प्रभाव पर नकारात्मक असर होता. बागी 22 विधायकों में से 16 इसी क्षेत्र के हैं. वे सिंधिया के प्रति निष्ठावान हैं. दूसरा पावर सेंटर बनने की स्थिति में वे मझधार में होते. उन्हें कभी समस्या होती तो सिंधिया के पास जाते और फिर सिंधिया अपने से कद में छोटे नरोत्तम के पास उनकी शिकायत लेकर जाएं, यह उनका कैरेक्टर नहीं है.’
वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी कहते हैं, ‘तोमर ग्वालियर-चंबल से ही हैं और सिंधिया भी. सिंधिया को अहम पद मिलना तय है. इसलिए हो सकता है कि तोमर पर दांव खेलकर भाजपा एक ही क्षेत्र के दो लोगों को वरिष्ठ स्थान पर न बिठाना चाहती हो.’
वे आगे कहते हैं, ‘दूसरी बात कि सरकार गंवाने के बाद शिवराज सिर्फ विधायक थे. वे चाहते तो दिल्ली की राजनीति कर लेते, पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बनाया था. लेकिन उन्होंने भोपाल को चुना. इस दौरान उन जितना सक्रिय कोई भी भाजपा विधायक नहीं रहा.’
यहां सक्रियता वाली बात सही है. विधानसभा चुनाव की हार के बाद कयास लगाए जा रहे थे कि शिवराज केंद्र से मध्य प्रदेश भेजे गये थे और अब वे वापस केंद्र में जाकर ही राजनीति करेंगे.
लेकिन हार के कुछ दिन बाद ही उन्होंने मीडिया के सामने अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए कह दिया, ‘मैं केंद्र की राजनीति में नहीं जाऊंगा. मैं मध्य प्रदेश में रहूंगा और यहीं पर मरूंगा.’
इसके बाद शिवराज ने प्रदेश भर में ‘आभार यात्रा’ निकालनी शुरू कर दी. जहां वे गांव-गांव, शहर-शहर जाकर भाजपा को चुनावों में वोट करने के लिए मतदाताओं का आभार जता रहे थे.
लेकिन यह यात्रा पार्टी संगठन की बिना अनुमति के उन्होंने शुरू की थी, इसलिए बीच में ही रोकनी पड़ी. यहां पहली बार सामने आया कि शिवराज सिंह और भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राकेश सिंह के बीच सब-कुछ ठीक नहीं चल रहा है.
चुनावी हार के अगले ही महीने शिवराज को भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर केंद्र में जिम्मेदारी सौंपी. लेकिन अधिकतर समय उनका मध्य प्रदेश में बीतता था.
प्रदेश की कांग्रेस सरकार के खिलाफ भाजपा का शायद ही ऐसा कोई आयोजन रहा हो, जिसकी अगुवाई शिवराज सिंह ने न की हो. सदन में भी नेता प्रतिपक्ष तो गोपाल भार्गव थे लेकिन विधायको को निर्देश शिवराज ही देते रहे.
लोकसभा चुनावों में प्रदेश में शिवराज ही पार्टी के सबसे बड़े प्रचारक रहे. उन्होंने सबसे अधिक सभाएं कीं और हर सभा में कमलनाथ सरकार को घेरने में कोई कमी नहीं छोड़ी.
जनता को वे कांग्रेस के वचन-पत्र की वादाखिलाफियां गिनाते हुए अपना कार्यकाल याद कराते. कांग्रेस को घेरने में वे सफल भी हुए और भाजपा ने प्रदेश में इतिहास का अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन करते हुए 29 में से 28 लोकसभा सीटें जीतीं.
इससे शिवराज की राजनीति को संजीवनी मिली. इस दौरान किसानों के बीच अपनी खोई जमीन हासिल करने के लिए उन्होंने जोरों-शोरों से किसानों के मुद्दे उठाए.
बात चाहे यूरिया की कमी की हो, बाढ़ और अतिवृष्टि से फसलों का मुआवजा और सहायता राशि न मिलने की, अधूरी किसान कर्ज़माफी की या फसलों पर बोनस न मिलने की.
जब कमलनाथ और उनके मंत्री मंत्रालय में बैठे होते थे, शिवराज प्राकृतिक आपदा में फसलों का नुकसान उठाने वाले किसानों से गांव-गांव जाकर मिल रहे होते थे.
गर्मियों में जब प्रदेश में बिजली संकट पनपा, तब भी शिवराज ने सरकार को घेरने में कमी नहीं छोड़ी. प्रदेश में ‘लालटेन यात्रा’ निकाली. एक मौके पर तो जनता से यह तक कह गये, ‘इनवर्टर मत खरीदना, मामा आ रहा है.’
इस बयान और उपरोक्त वर्णित ‘पांच साल से पहले सरकार में वापसी’ वाले बयान से स्पष्ट है कि कहीं न कहीं शिवराज इस बात को लेकर शुरू से आश्वस्त थे कि वे कांग्रेसी सरकार गिराकर सत्ता हथियाएंगे.
बहरहाल, शिवराज अपनी सक्रियता, जमीनी पकड़, शासन चलाने का अनुभव और पार्टी के आंतरिक संगठानिक समीकरण से मुख्यमंत्री तो बन गये लेकिन इस बार उनके लिए शासन चलाना उतना आसान नहीं होगा जितना कि 13 सालों के पिछले कार्यकाल में था.
राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘किसी भी मुख्यमंत्री के सामने दो तरह की चुनौतियां होती हैं. पहली संगठन साधने की और दूसरी सरकार चलाने की. मसलन कमलनाथ के सामने पार्टी संगठन में दिग्विजय सिंह और सिंधिया चुनौती थे. तीनों बराबर कद के थे. लेकिन शिवराज के सामने ऐसी कोई चुनौती नहीं है क्योंकि प्रदेश भाजपा में सिंधिया जैसा नेता कोई नहीं है जो 22 विधायक तोड़ सके.’
वे आगे कहते हैं, ‘सरकार चलाने में बड़ी चुनौती होगी कांग्रेस का किसान कर्ज़ माफी का वचन जो अधूरा रह गया. अब शिवराज को तय करना है कि कर्ज़ माफी चालू रखना या बंद या उसके स्ट्रक्चर में बदलाव करना है?’
श्रवण गर्ग कहते हैं, ‘शिवराज के सामने हालात पिछले कार्यकाल जैसे नहीं हैं कि एकतरफा बहुमत था. अब सीटों में ज्यादा फर्क नहीं है. लेकिन कोरोना क्राइसिस के समय मुख्यमंत्री बनना उनके लिए वरदान है. अभी न तो कांग्रेस सिर उठाएगी और न भाजपा के अंदर से कोई आवाज उठेगी. ये हालात दो-तीन महीने चले तो शिवराज तब तक अपनी जगह मजबूत कर लेंगे.’
राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘बागी कांग्रेसी आरएसएस के पिट्ठुओं-सा व्यवहार नहीं करेंगे बल्कि ब्लैकमेल करेंगे. पहले मंत्रिमंडल बनाने में, फिर विभागों में बंदरबांट होगी. फिर जो चार निर्दलीय, 2 बसपा और एक सपा के विधायक हैं वो कांग्रेस पर बहुत गुर्राते थे, भाजपा में आकर बैरागी तो बन नहीं जाएंगे. भाजपा इनका समर्थन लेती है तो शिवराज को इनकी मांगों के आगे झुकना होगा. 13 साल मजे में शिवराज ने राज किया था, अब नहीं.’
राकेश का मानना है कि सत्ता गंवाकर कांग्रेस भी शांत नहीं बैठेगी. 15 महीने की सरकार में भाजपा कार्यकालीन 13 सालों के तमाम घोटालों की फाइलें वे देख चुके हैं.
लेकिन शिवराज के सामने हालिया सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस के बागी विधायकों को सरकार में स्थापित करने की है.
इन 22 में से 6 विधायक मंत्री थे, तीन विधायक ऐसे हैं जो सिंधिया गुट के नहीं थे लेकिन मंत्री पद न मिलने के कारण कांग्रेस छोड़ आए. यानी कुल 9 बागी मंत्री पदों पर नजरे गढ़ाए बैठे हैं.
सात अन्य विधायकों (निर्दलीय, सपा और बसपा) ने भी भाजपा सरकार को समर्थन दे दिया है. पहले ये कांग्रेस को समर्थन दे रहे थे. इनमें भी एक विधायक मंत्री थे जबकि तीन-चार विधायक लगातार कमलनाथ पर मंत्री बनाए जाने का दबाव बनाते थे.
इस तरह शिवराज मंत्रिमंडल के 12 से 14 पदों पर तो भाजपा के बाहर से आए विधायकों की निगाहें हैं.
प्रकाश कहते हैं, ‘पहले शिवराज अपना पसंदीदा मंत्रिमंडल बनाते थे. अब उन्हें अपनों के अवसर छीनकर बाहरियों को देने होंगे. सिंधिया का भी दबाव उन पर होगा. शिवराज ने पहले ऐसी किसी चुनौती का सामना नहीं किया.’
मंत्रिमंडल में क्षेत्रीय संतुलन की बात करें तो शिवराज ने अपने आखिरी कार्यकाल में इंदौर से कोई मंत्री नहीं बनाया था ताकि कैलाश विजयवर्गीय के प्रभाव वाले क्षेत्र में वे कैलाश को हाशिए पर डाल सकें.
अब शिवराज के लिए ऐसी तिकड़म भिड़ाना आसान नहीं होगा. राकेश कहते हैं, ‘अधिकांश बागी विधायक ग्वालियर-चंबल के हैं. इनमें अगर सात-आठ मंत्री बना दिए तो इंदौर या अन्य क्षेत्रों से रमेश मेंदोला जैसे चार-पांच बार के भाजपा विधायक खफा होंगे. सिंधिया समर्थक तुलसी सिलावट को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की संभावना है तब तो नाराजगी और बढ़ेगी.’
दो लाख करोड़ के कर्ज में डूबी सरकार के सामने आर्थिक चुनौतियां भी हैं. शिवराज को उन सभी आर्थिक मुद्दों पर फैसला लेना होगा, जिन पर कि वे कमलनाथ को घेरते रहे थे.
इन मुद्दों में किसान कर्ज़ माफी, फसल बोनस, फसल मुआवजा, अतिथि विद्वानों और शिक्षकों का नियमितीकरण, रुके हुए वेतन भत्ते और बदहाल सड़कें जैसे अनेक मुद्दे शामिल हैं.
गौरतलब है कि कमलनाथ सरकार आर्थिक तंगी के चलते अनेकों योजनाओं को फंड नहीं कर रही थी. उसने 15 महीनों में करीब 20,000 करोड़ का कर्ज़ बाजार से उठाया था. शिवराज ने भी सरकार में आते ही 750 करोड़ का बाजार कर्ज़ लिया है.
हालांकि गिरिजा शंकर मानते हैं, ‘यदि मुख्यमंत्री अच्छा प्रशासक है तो खाली खजाने का कोई सवाल नहीं उठता. 13 सालों में शिवराज ने आखिरी मिनट तक कभी नहीं कहा कि सरकारी खजाना खाली है. आर्थिक तंगी के चलते उनका कोई भी कार्यक्रम नहीं रुका. खाली खजाने का रोना तो सरकार में आने के पहले ही दिन से कांग्रेस ने शुरू किया था ताकि अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ ले.’
इस सबके बावजूद संभावना जताई जा रही है कि इस बार शिवराज उतने स्वतंत्र होकर काम नहीं कर सकेंगे जितना वे अपने पिछले कार्यकाल में करते थे.
श्रवण कहते हैं, ‘शिवराज को फ्री हैंड मिलना मुश्किल है क्योंकि अब पावर सेंटर बढ़ गए हैं. उन्हें काम करने का अपना तरीका बदलना होगा. वे बदलेंगे भी क्योंकि वे केंद्रीय नेतृत्व की पहली पसंद नहीं रहे हैं. विधानसभा चुनावों में भी उन्हें मोदी-शाह का खास समर्थन नहीं मिला था. पहले शिवराज अपने चेहरे से भाजपा को जिताते थे. लेकिन अब केंद्रीय नेतृत्व ने कांग्रेस से सत्ता छीनकर उन्हें सौंपी है. शिवराज के दबदबे में कमी तो रहेगी ही.’
बहरहाल, पहली बार जब शिवराज 9 नवंबर 2005 को मुख्यमंत्री बने थे तब भाजपा सरकार अस्थिरता के दौर से गुजर रही थी.
2003 में उमा भारती की अगुवाई में भाजपा ने दस सालों बाद प्रचंड बहुमत पाकर कांग्रेस से सत्ता तो छीन ली थी लेकिन अगले दो सालों में उसे तीन मुख्यमंत्री बदलने पड़े. शिवराज सिंह चौहान आखिरी बदलाव साबित हुए.
तब भाजपा की सत्ता संभालने की काबिलियत कटघरे में थी और दोबारा चुनाव जीतने की संभावनाएं कम. लेकिन तब कोई नहीं जानता था कि भविष्य में शिवराज इतिहास रचकर प्रदेश में पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा बनेंगे.
इसलिए राजनीतिक इतिहास बताता है कि विपरीत परिस्थितियों में शिवराज माहौल को अपने पक्ष में ढालना जानते हैं.
उनके पहले कार्यकाल के वक्त उन्हें विपरीत परिस्थितियों में अधूरा कार्यकाल मिला था और संयोग से इस बार भी कार्यकाल अधूरा है और परिस्थितियां भी विपरीत. तब भी पार्टी के अंदर कई दिग्गज उनके पर काटने बैठे थे और आज भी हालात वही हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)