अब तक तीन तलाक़, हलाला, बहुविवाह, मुता निक़ाह जैसी कुप्रथाएं चली आ रही हैं. उनके ख़िलाफ़ आपने कभी आवाज़ नहीं उठाई. जब अति प्रताड़ित मुसलमान औरतें ख़ुद बाहर निकलीं तो सेक्युलरिज़्म याद आ रहा है!
आमतौर पर हम जानते हैं कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है और औरतों के साथ अन्याय हमारे समाज के स्थायी लक्षणों में अव्वल दर्जे पर है. तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई में भी क़दम क़दम पर हमें इस बात का एहसास होता रहा कि कैसे धर्मगुरु हो या राजनेता, विद्वान हो या विशेषज्ञ, वकील हो या जन प्रतिनिधि सभी पुरुष प्रधान मानसिकता के साधारण धागे से बंधे हुए हैं!
फिर यह सारे चाहे देश के किसी भी कोने में स्थित हों, उर्दू-हिंदी में बोल रहे हों या फिर अंग्रेज़ी में, इनकी पहचान धार्मिक हो या सेक्युलर, लेकिन सभी का सुर मिलता जुलता नज़र आया.
तीन तलाक़ के मुद्दे पर बहुत सारी दलीलें सुनने या पढने में आईं. कई लोग टीवी चर्चाओं में बोलते रहे, कुछ ने अख़बारों में लेख लिखे, कुछ ने अपनी विद्वता के हवाले से बातें कहीं, एकाध ने इंटरनेट अध्ययन का भी दावा किया.
लेकिन कुल मिलाकर इन सभी ने आख़िर में यही निष्कर्ष निकाला कि तीन तलाक़ कोई बड़ा मुद्दा नहीं है और ये चंद औरतें खामखां शोर मचा रही हैं. गौर करने लायक है कि इसमें ऐसे भी लोग शामिल हैं जो अपने सेक्युलर या धर्म निरपेक्ष होने का दावा करते आए हैं.
इनमें ऐसे भी लोग शामिल हैं जिन्होंने आज तक मुसलमान औरतों के किसी भी सवाल पर कभी न ही आवाज़ उठाई है, न ही कोई काम किया है. लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि जिसका कोई नहीं उसका ख़ुदा होता है और ख़ुदा हर कोशिश करने वाले का साथ देता है. साझी कोशिश के तौर पर हज़ारों साधारण मुस्लिम औरतें सामने आईं जिन्होंने ख़ुद अपने मुद्दे की अगुआई की.
एक तरह से पाउलो फ्रेइरे और अन्य समाज वैज्ञानिकों की परिकल्पना जीते जागते रूप में देखने को मिली. जिसकी लड़ाई उसकी अगुआई का प्रत्यक्ष स्वरूप उभर के सामने आया. साधारण परिवारों से निकलकर शायरा बानो, आफ़रीन, इशरत जहां, गुलशन परवीन जैसी हिम्मत वाली और अनोखी औरतें इंसाफ़ की गुहार लगाते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गईं. गौरतलब है कि उन्हें किसी भी दारुल कज़ा या पर्सनल लॉ बोर्ड से इंसाफ़ नहीं मिल सका.
यहां संक्षेप में कुछ बातें कहना ज़रूरी है. सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक़ पर सुनवाई ख़त्म हो चुकी है और सभी को फ़ैसले का इंतज़ार है. बावजूद इसके कि पवित्र क़ुरान में तीन तलाक़ का कोई ज़िक्र नहीं है, हमारे देश में ये तरीक़ा साधारण है.
हमारे देशव्यापी अध्ययन में 4710 मुसलमान औरतें शामिल हुईं जिनमें 525 तलाक़शुदा थीं. 525 में से 346 या 65 प्रतिशत औरतों का ज़ुबानी तलाक़ हुआ था, 40 या 7.6 प्रतिशत को पत्र द्वारा तलाक़ मिला था, 18 या 3.4 प्रतिशत को फ़ोन पर तलाक़ मिला था, 3 को ईमेल के द्वारा, 1 को एसएमएस पर, 117 को अन्य तरीक़ों से एकतरफ़ा तलाक़ दिया गया था. यानी 78 प्रतिशत औरतों को एकतरफ़ा ज़ुबानी तलाक़ का शिकार होना पड़ा था.
बावजूद इसके कि पवित्र क़ुरान में तलाक़ से पहले कम से कम 90 दिनों तक बातचीत एवं आपसी संवाद की प्रक्रिया पर ज़ोर दिया गया है. यहां दोनों परिवारजनों की ओर से मध्यस्थता की कोशिश पर भी ज़ोर दिया गया है.
लेकिन पर्सनल लॉ बोर्ड कहता है कि ज़ुबानी तीन तलाक़ वैध है और इस पर रोक लगाना इस्लामी मज़हब में हस्तक्षेप या दख़ल होगा. एक रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक इदारे के इस रवैये से किसी को भी आश्चर्य नहीं है.
धर्म की आड़ में पुरुष प्रधानता और महिला विरोधी सोच सदियों से चली आ रही है. सभी मज़हब, देश और समाज इस बदी का शिकार रहे हैं. लेकिन आश्चर्य तब होता है जब अपने आपको ज्ञानी और शिक्षित दिखाने वाले लोग भी जब उतनी ही रूढ़िवादी, दकियानूसी और पितृसत्तात्मक मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं.
तीन तलाक़ मज़हब की रोशनी में ग़लत है और देश के संविधान के मुताबिक भी ग़लत है. संविधान में लिंग न्याय एवं लिंग समानता के प्रावधान हैं और लिंग भेद के ख़िलाफ़ भी आर्टिकल्स हैं. फिर सवाल ये उठता है कि आज़ादी के 70 सालों के बाद भी तीन तलाक़ जैसी बर्बरतापूर्ण चीज़ क्यों चलन में है?
क्यों हमारी सरकारों एवं चुने हुए प्रतिनिधियों ने इस पर ग़ौर नहीं किया? हमारा संविधान इंसाफ़, समानता, धर्मनिरपेक्षता जैसे उसूलों पर खड़ा है. फिर मुसलमान औरत के साथ लगातार अन्याय क्यों हो रहा है?
क्या पर्सनल लॉ बोर्ड या कोई भी संस्था क्या क़ानून से ऊपर है? और जब क़ुरान में तीन तलाक़ नहीं है तो फिर पर्सनल लॉ बोर्ड की मनमानी क्यों चल रही है? और अपने आपको विद्वान समझने वाले जाने-माने पुरुष क्यों घुमा-फिरा कर दलीलें दे रहे हैं कि तीन तलाक़ असल में मुद्दा है ही नहीं!
क्या उन्हें कहीं औरत से ख़तरा तो नहीं लग रहा? क्या उन्हें कहीं मर्दों के एक-तरफ़ा तलाक़ के अधिकार के छिन जाने की फ़िक्र है? या फिर धार्मिक हस्तियों की ही तरह वे भी पुरुष-प्रधानता में विश्वास रखते हैं?
अगर नियत साफ़ रखें और अपने आसपास नज़र डालें तो उन्हें अपने ही महकमों में तीन तलाक़ की शिकार औरतें नज़र आएंगी. उन्हें अपने परिवार में, मोहल्ले में, क़स्बे में रातों रात तीन तलाक़ के बाद बेघर हो गई बेटियां नज़र आएंगी. या फिर उनकी आंखों पर लगा पितृसत्ता का चश्मा उन्हें देखने ही नहीं देता!
इन विद्वानों का कहना है कि मौजूदा सरकार की राजनीति के चलते तीन तलाक़ नाबूदी आंदोलन ने सेक्युलरिज़्म पर ख़तरा खड़ा कर दिया है. हमारा कहना है कि मोदी सरकार को तो सिर्फ़ तीन साल हुए हैं. 1985 में जब शाहबानो का गला घोंट दिया गया था तब क्या सेक्युलरिज़्म ख़तरे में नहीं आया था?
शुरू से लेकर अब तक तीन तलाक़, हलाला, बहुविवाह, मुता निक़ाह जैसी कुप्रथाएं चली आ रही हैं. उनके ख़िलाफ़ आपने कभी आवाज़ उठाना ज़रूरी नहीं समझा और जब अति प्रताड़ित होकर मुसलमान औरतें ख़ुद बाहर निकलीं तो सेक्युलरिज़्म याद आ रहा है!
अगर उन्हें वाकई में मौजूदा सरकार की राजनीति से उतना भय-शंका होती तो फिर वे औरतों को उनके क़ुरानी अधिकार दे क्यों नहीं देते? ये बात सोचने लायक है. क्या हमेशा के लिए औरत ही बलिदान देती आएगी? औरत के लिए न्याय और समानता का मुहूर्त कब निकलेगा?
संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी नागरिकों को बराबर मिला है. औरत और मर्द दोनों को. इस अधिकार के नाम पर किसी भी पति को पत्नी के साथ अन्याय करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
पति मात्र तीन शब्द बोलकर पत्नी से पल्ला झाड़ ले, ये कैसे हो सकता है? पत्नी रातोरात कहां जाएगी, किस घर में रहेगी, उसका जीवनयापन कैसे होगा, उसके बच्चों का क्या होगा- ये सभी गंभीर सवाल हैं जो ज़बानी तीन तलाक़ से खड़े होते हैं.
ये कह देना कि हम ऐसा निक़ाहनामा बना देंगे कि ये समस्या ख़त्म हो जाएगी, इस गंभीर मसले का हल नहीं है. हमारे अध्ययन में पाया गया था कि 47 प्रतिशत औरतों के पास उनका अपना निक़ाहनामा था ही नहीं.
भारतीय मुसलमान समाज ग़रीबी और अशिक्षा का शिकार है और वैसे में यह कह देना कि निक़ाहनामा तीन तलाक़ के मर्ज़ की अक्सीर दवा है, एक मज़ाक भर होगा.
लड़की और उसका परिवार जब सशक्त नहीं हैं तो फिर निक़ाहनामा का महत्व बढ़-चढ़ कर बताना एक पितृसत्तात्मक साज़िश के अलावा और कुछ नहीं!
दरअसल ये कोशिश कोर्ट की करवाई से बचने के लिए की जा रही है. इतनी सारी अड़चनें और चुनौतियों के बावजूद आम मुसलमान औरतों को पूरी उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय से उन्हें न्याय ज़रूर मिलेगा. भारतीय मुस्लमान समाज में सामाजिक सुधार की दिशा में ये एक ऐतिहासिक क़दम होगा.
(ज़किया सोमन और नूरजहां सफ़िया नियाज़ भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की संस्थापक हैं.)