इस देश का दुर्भाग्य है कि इतने बड़े संकट में घिरे होने के बाद भी हम भारतीय अपनी कट्टरता, अंधविश्वास और पूर्वाग्रह से बाहर न निकलकर एक वैश्विक महामारी को भी हिंदू-मुसलमान का मुद्दा बनाए दे रहे हैं.
आजाद भारत अपनी विविधता को लेकर शायद ही कभी इतना असहज रहा हो. आज जबकि कोरोना जैसे संकट से लड़ने के लिए हमें पहले से कहीं अधिक एकजुटता की जरूरत थी लेकिन दुर्भाग्य से इस संकट का उपयोग भी धार्मिक बंटवारे के लिए किया जा रहा है.
देश में आपसी नफरत और अविश्वास तो पहले भी था लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान हमने मानो इसे हलक तक ठूंस लिया है.
जिस तरह कोरोना जैसी महामारी को सांप्रदायिक रंग दिया गया है उसे देखकर लगता है कि भारत में सांप्रदायिक विभाजन और आपसी नफरत कयामत के दिन ही खत्म होंगीं.
दिल्ली में तबलीगी जमात का मामला सामने आने के बाद पहले से ही जल रहे इस आग में सांप्रदायिक राजनीति और मीडिया ने आग में घी डालने का काम किया है.
जमातियों की जाहिलाना और आत्मघाती हरकत सामने आने के बाद टीवी स्क्रीन पर अंताक्षरी खेल रहे स्टार एंकरों को जैसे अपना पसंदीदा खेल खेलने का मौका मिल गया.
वे तुरंत हरकत में आ गए और उनके साथ सांप्रदायिक राजनीति के पैदल सेनानी भी अपने काम में जुट गए.
तबलीगी जमात की दकियानूसी और तर्कहीन धर्मांधता ने हजारों लोगों को खतरे में डालने का काम किया है. उनकी यह हरकत नाकाबिले बर्दाश्त है और इसका किसी भी तरह से बचाव नहीं किया जा सकता है.
लेकिन जिस तरह से इस पूरे मामले को हैंडल किया है उसे क्या कहा जाए, क्या इसे उचित ठहराया जा सकता है?
इस पूरे मसले को सांप्रदायिक रंग देते हुए जिस तरह से जमातियों के बहाने पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा करने का काम किया गया, उससे किसका हित सधा है?
इस घटना के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से मीडिया को जो ब्रीफिंग दी गयी उसमें जमातियों से जुड़े कोरोना के केस को अलग से पेश किया गया, इससे भी अलग तरह का संदेश गया.
सोशल मीडिया के साथ मुख्यधारा की मीडिया ने इस पूरे मसले को इस तरह से पेश किया है कि तबलीगी जमात की वजह से ही कोरोना पूरे देश में फैला है नहीं तो इसे नियंत्रित कर लिया गया था.
कई चैनलों द्वारा इस मसले को ‘कोरोना जिहाद’ का नाम दे दिया गया और इसे देश के खिलाफ जमात की साजिश के तौर पर पेश किया गया.
इसके बाद चैनलों द्वारा सिलसिलेवार तरीके से जमात को केंद्र में रखते हुए कई ऐसी खबरें चलायी गयीं जो बाद में झूठ साबित हुई हैं.
इन सबसे पूरे देश में एक अलग तरह का माहौल बना. नतीजे के तौर पर देश भर में कोरोना के नाम पर मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ दुर्व्यवहार और हमले के कई मामले सामने आ रहे हैं.
भारत सहित पूरी दुनिया में मुसलमानों को एक तरह के स्टीरियोटाइप में पेश किया जाता है. हिंदुस्तान में मुसलमानों को एक रूप में नहीं देखा जा सकता है.
अपने देश की तरह ही उनमें भाषाई क्षेत्रीय और जाति-बिरादरियों के आधार पर बहुत विविधता है, लेकिन जब मुस्लिम समुदाय की बात होती है तो आमतौर पर इस विविधता को नजरअंदाज कर दिया जाता है.
भारतीय मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण के प्रोजेक्ट पीपुल्स आफ सीरिज के तहत केएस सिंह के संपादन में प्रकाशित ‘इंडियाज कम्युनिटीज’ के अनुसार भारत में कुल 584 मुस्लिम जातियां और पेशागत समुदाय हैं.
इसके साथ ही भारत में मुस्लिम समुदाय कई फिरकों में भी बंटे हुए हैं. इसलिए यह समझना होगा कि तबलीगी जमात भारत के सभी मुसलामानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.
तो क्या है तबलीगी जमात
तबलीगी जमात मुसलामानों के बीच एक धार्मिक आंदोलन की तरह है और जरूरी नहीं है कि इससे भारत के सभी मुसलमान सहमत हों.
इसकी स्थापना साल 1926 में मौलाना मुहम्मद इलियास कांधलावी द्वारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक कस्बे में ‘गुमराह’ मुसलमानों को इस्लाम के तरफ वापस लाने के उद्देश्य के साथ की गयी थी.
आज तबलीगी जमात की पहुंच सैकड़ों मुल्कों में है. मुस्लिम समुदाय में ही जमात के काम करने के तरीके और उद्देश्यों को लेकर विवाद रहा है.
जमात द्वारा अपने सदस्यों से घर-परिवार और दुनियादारी से दूर होकर पूरी तरह से इबादत और तबलीग के कामों में लगने की अपेक्षा की जाती हैं.
साथ ही उनसे 1400 साल पहले की इस्लामी जीवन पद्धति अपनाने की अपेक्षा की जाती है. जमात अपने सदस्यों को सिखाता है कि दुनिया तुच्छ है और असली जिंदगी मरने के बाद है.
फरवरी 2017 में दारुल उलूम देवबंद द्वारा तबलीगी जमाअत पर कुरआन व हदीस की गलत व्यख्या करने और मुसलामानों को गुमराह का आरोप लगाते हुए उसके खिलाफ फतवा जारी किया गया था.
साथ ही दारुल उलूम ने अपने कैंपस के अंदर में तबलीगी जमात की हर तरह की गतिविधि पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.
तबलीगी जमात के मौजूदा प्रमुख मौलाना मोहम्मद साद इसके संस्थापक मौलाना मुहम्मद इलियास कांधलावी के पोते हैं और काफी विवादित रहे हैं.
उन पर परिवारवाद के साथ इस्लामी सिद्धांत की गलत व्याख्या के आरोप लगते रहे हैं. कोरोना वायरस को लेकर भी उनका रवैया बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना और लाखों लोगों को खतरे में डालने वाला रहा है.
सामने आए ऑडियो में वे कोरोना से बचाव के लिए सामाजिक दूरी बनाने के अपील के तहत मस्जिद में नमाज न पढ़ने की अपील को गलत ठहराते हुए यह आह्वान करते सुनाई पड़ते हैं कि ‘मस्जिद में नमाज पढ़कर ही कोरोना से बचाव किया जा सकता है.’
जाहिर है तबलीगी जमात मुसलामानों के बीच एक बुनियादपरस्त और अंधविश्वासी अभियान है जो उन्हें समय से पीछे ले जाना चाहता है.
कोरोना को लेकर जमात का अनुभव बताता है कि किस तरह यह अपने कट्टर और अतार्किक विचारों से लोगों के जान-माल के लिए खतरा साबित हो सकता है. आस्था तभी तक निजी होती है जबतक कि इससे किसी दूसरे का नुकसान न हो.
तबलीगी जमात के इस हरकत ने इसके सदस्यों के साथ पूरे देश में बड़ी संख्या में लोगों की जान को जोखिम में डाला है बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय को निशाने पर ला दिया है.
लेकिन सिर्फ जमाती या मुसलमान ही नहीं हैं, हम सभी की अपनी दकियानूसी और सीमाएं हैं. भारत तो वैसे भी अपने पुरातनपंथ और टोटकों के लिए विख्यात रहा है.
इस मामले में हम भारतीय जाति, पंथ, मजहब से परे होकर एक समान हैं. अंधविश्वासी और कर्मकांडी होने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है और अब तो इसे मौजूदा हुकूमतदानों का संरक्षण भी मिल गया है.
भारत में सत्ताधारियों द्वारा कोरोना से निपटने के लिए जो टोटके सुझाये गए हैं वो शर्मसार करने वाले हैं.
शुरुआत में जब ठोस कदम उठाये जाने की जरूरत थी तब भारत सरकार के स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ‘धूप में बैठकर कोरोना से बचाव‘ का मंत्र दे रहे थे. बंगाल में भाजपा के नेता जनता को ‘गौमूत्र पिलाकर’ कोरोना से बचा रहे थे.
इसी प्रकार से भारत के आयुष मंत्रालय द्वारा 29 जनवरी को जारी किए गए विज्ञापन में दावा किया गया था कि कोरोना वायरस को होम्योपैथी, आयुर्वेदिक और यूनानी दवाइयों से रोका जा सकता है.
हालांकि बाद में 1 अप्रैल को मंत्रालय द्वारा इस विज्ञापन को वापस लिए जाने संबंधी बयान जारी किया गया.
इस दौरान दबे-छुपे तरीके से ग्रह नक्षत्रों की चाल और प्रकाश के सहारे कोरोना वायरस के भस्म करने के उपाय भी आजमाए जा चुके हैं.
प्रधानमंत्री की जो भी मंशा रही हो उनके समर्थकों द्वारा ‘थाली बजाने’ को लेकर जिस प्रकार से इसकी व्याख्या की गयी वो अंधविश्वास नहीं तो और क्या था?
इसी प्रकार से दीया, मोमबत्ती जलाने की प्रधानमंत्री मोदी की अपील के भी सिर चकरा देने वाले फायदे गिनायए गए और इस काम में बहुत पढ़े-लिखे लोग शामिल रहे.
जैसे इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष पद्मश्री से सम्मानित डॉक्टर केके. अग्रवाल द्वारा बाकायदा एक वीडियो जारी करके प्रधानमंत्री के 5 अप्रैल के आह्वान के ‘वैज्ञानिक’ फायदे गिनाये गए.
दुर्भाग्य से इस वीडियो को भारत सरकार के पोर्टल द्वारा भी ट्वीट किया गया. कई और लोगों द्वारा ताली और थाली बजाने से उत्पन्न आवाज के तंरग से कोरोना वायरस के खत्म होने का दावा किया गया.
इस संबंध में भाजपा के उपाध्यक्ष प्रभात झा द्वारा किए गए ट्वीट भी काबिलेगौर है जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘भारतीयों ने दीप जलायी, कोरोना की हुई विदाई.’
भारतीयों ने दीप जलायी , कोरोना की हुयी विदायी । @narendramodi @AmitShah @rajnathsingh @JPNadda @ChouhanShivraj @BJP4India
@BJP4MP#IndiaFightsCorona— Prabhat Jha (@jhaprabhatbjp) April 5, 2020
अपने एक और ट्वीट में झा लिखते हैं ‘कोरोना, तुम्हे नरेंद्र मोदी जी के भारत में होगा रोना, यह भारत है, यह आध्यात्मिक देश है, नरेंद्र मोदी जी सिर्फ राजनीतिज्ञ नहीं, वह एक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक पुरुष हैं.’
एक और भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने तो इंदौर में कोरोना मरीजों की बढ़ती संख्या को दीप नहीं जलाने से जोड़ दिया इस संबंध में उन्होंने कहा कि ‘रविवार को दीप जलाए, लेकिन इंदौर में कुछ लोगों ने दीप नहीं जलाए, उन्ही के कारण इंदौर में कोरोना के मरीज बढ़े हैं.’
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतने बड़े संकट में घिरे होने के बाद भी हम भारतीय अपनी कट्टरता, अंधविश्वास और पूर्वाग्रह से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. हम एक वैश्विक महामारी को भी हिंदू-मुसलमान का मुद्दा बनाए दे रहे हैं.
विविधता हमेशा से ही हमारी खासियत रही है और यह हमारी सबसे बड़ी ताकत हो सकती थी लेकिन हम बहुत तेजी से इसे अपनी सबसे बड़ी कमजोरी बनाते जा रहे हैं.
तबलीग़ी जमात के लोगों ने एक गंभीर गलती की है लेकिन एक महामारी का सांप्रदायीकरण भी छोटा अपराध नहीं है.
भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पार्टी नेताओं को ठीक ही सलाह दी है कि वे इस महामारी का सांप्रदायीकरण ना करें.
इस संबंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी अपील की गयी है कि ‘हमें कोविड-19 के मरीजों को नस्लीय, जातीय और धार्मिक आधार पर वर्गीकृत नहीं करना चाहिए.’
मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी चाहिये कि अगर इस संकट के समय में भी ‘पत्रकारिता’ नहीं कर सकते हैं तो अपने आप को अंताक्षरी खेलने में ही व्यस्त रखें.
खुद को दुनिया की प्राचीन सभ्यता और सबसे बड़ा लोकतंत्र मानने वाले देश भारत से इतनी समझदारी और परिपक्वता की उम्मीद तो की ही जा सकती है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)