कोरोना संक्रमण की भयावहता के चलते इसकी वैक्सीन के मानव परीक्षणों के लिए एक अमेरिकी महिला के सामने आने के बाद कई वालंटियर्स सामने आए हैं. यह उस समय के बिल्कुल उलट है जब जीवविज्ञानी वाल्देमार हाफकिन को प्लेग के टीके का सबसे पहला प्रयोग स्वयं पर करना पड़ा था क्योंकि कोई और इसके लिए तैयार ही नहीं था.
मार्च के चौथे सप्ताह की शुरूआत में अमेरिका के सीएटेल की रहने वाली 43 साल की जेनिफर हालेर- जो दो बच्चों की मां है तथा किसी छोटी-सी टेक कंपनी में काम करती हैं- की तस्वीर विश्व मीडिया की सुर्खियां बनीं.
वजह थी कि वे उन वालेंटियर्स में अग्रणी थी जिन्होंने कोरोना के खिलाफ विकसित किए जा रहे एक ड्रग के उनके ऊपर परीक्षण के लिए अनुमति दी.
याद रहे किसी बीमारी के लिए एक नए वैक्सीन विकसित करने के लिए सालों साल लग जाते हैं क्योंकि सबसे पहले जानवरों पर ऐसी दवाइयों का परीक्षण किया जाता है और उसके बाद ही मानव शरीर पर उसको आजमाया जाता है.
इस बात को देखते हुए कि कोरोना ने दुनियाभर में महामारी का रूप धारण किया है, समय सबसे कीमती कारक के तौर पर है, इसलिए इस प्रक्रिया को त्वरित रूप से करना जरूरी है.
अब कई अन्य लोगों ने इस नए वैक्सीन के परीक्षण के लिए वालंटियर के तौर पर अपना नाम दर्ज किया है.
जेनिफर हालेर और नई दवा की परीक्षण के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले कई अन्य वालंटियर्स की ख़बरें पढ़ते हुए बरबस 19वीं सदी की आखिरी दहाई के एक ऐसे पन्ने की याद ताज़ा हो गयी, जिसके बारे में अधिकतर लोग नहीं जानते हैं.
यह वही वक्त़ था जब प्लेग की महामारी का तांडव भारत में अपने रौद्र रूप में था. पहले यह कहावत भी चलती थी कि प्लेग सिंधु नदी नहीं पार कर सकता, मगर 19 वीं सदी में प्लेग का तांडव भारत में भी पहुंत गया.
पहले देश के पश्चिमी हिस्सों में फिर देश के अन्य हिस्सों में वह फैला. 19 वीं सदी के आखिरी दशक से लगभग दो दशक तक उसने बंबई प्रांत और बंगाल सूबे में कहर बरपा किया.
एक मोटे अनुमान के हिसाब से इसमें एक करोड़ लोगों की जान गई थी. प्लेग द्वारा होने वाली मौतों में तभी कमी आ सकी जब उसके लिए टीका विकसित किया गया.
इसका श्रेय वाल्देमार मोरदेचाई वोल्फ हाफकिन (5 मार्च 1860-26 अक्तूबर 1930) नामक महान जीवविज्ञानी को जाता है, जिन्होंने मुंबई में अपने सेवा काल के दौरान इसे विकसित किया.
मालूम हो कि कॉलेरा (हैजा) के लिए सफल टीका विकसित करने वाले हाफकिन ने इस टीके का सबसे पहला प्रयोग अपने ऊपर ही किया क्योंकि लोग इसके लिए तैयार नहीं हो रहे थे.
मूलतः यूक्रेन (तत्कालीन रूस) के रहने वाले हाफकिन जीवविज्ञान के अध्ययन के लिए बाद में पेरिस पहुंचे थे, जहां उन्होंने कॉलेरा का टीका विकसित किया था.
इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि भारत जैसे मुल्क में हैजे से काफी लोग मरते थे, वह इस टीके के प्रयोग के लिए भारत पहुंचे थे. (1893)
हैजा के टीके के प्रयोग के दौरान जब इलाके में प्लेग की महामारी फैली, तब सरकार की तरफ से उनसे गुजारिश की गयी कि वह प्लेग के लिए कोई टीका विकसित करे.
प्लेग की महामारी का दूसरा पहलू था- लोगों में मची जबरदस्त भगदड़ और अपना घर छोड़ कर उनका कहीं खुले में रहने जाना, ताकि वह संक्रमण से बच सकें.
फुले साहित्य के अध्येता प्रोफेसर हरी नरके बताते हैं, ‘अगर हम पुणे नगरपालिका का उन दिनों का रिकॉर्ड देखें तो बेहद भयावह तस्वीर सामने आती है. एक-एक दिन में 800 से 900 लोग मरते थे.’
लोगों को हौसला दिलाने और उनके रिहायशी इलाकों में स्वास्थ सेवाएं उपलब्ध करना कोई कम चुनौतीपूर्ण काम नहीं था.
पश्चिमी भारत के उस हिस्से में उन दिनों सत्यशोधक समाज- जिसकी स्थापना महात्मा ज्योतिबा फुले ने की थी- के कुछ अग्रणियों की भूमिका कम रोमांचक नहीं हैं जिसमें उसके दो अग्रणी कार्यकर्ताओं का बलिदान हुआ था.
जनता की सेवा में समाज के अग्रणी कार्यकर्ता नारायण मेघाजी लोखंडे 8 फरवरी 1897 को गुजर गए थे. लोखंडे को भारत के कामगार आंदोलन का जन्मदाता कहा जाता है. वह ‘दीनबंधु’ नाम की पत्रिका का संचालन भी किया करते थे.
मुंबई के बाद पुणे में जब यह महामारी फैलने लगी तो लोगों में घबराहट बढ़ती गयी और आम लोगों के अलावा नेतागण भी शहर छोड़कर कहीं रहने चले गए.
सावित्रीबाई के पास भी यह विकल्प था, लेकिन उन्होंने वह विकल्प नहीं चुना बल्कि अपने बेटे यशवंतराव फुले, जो ब्रिटिश फौज में नौकरी कर रहे थे, को पुणे बुला लिया.
यशवंतराव की सलाह थी कि चूंकि यह बीमारी बेहद संक्रामक है, लिहाजा उनकी मां को इसमें हाथ नहीं बंटाना चाहिए, यह उनके लिए जोखिम भरा हो सकता है.
पर सावित्रीबाई का कहना था कि अगर आज महात्मा फुले जिंदा होते, तो वे खामोश नहीं बैठते तो मैं क्यों खामोश रहूं. पुणे के पास हड़पसर के पास यशवंतराव ने कुछ झोपड़ियां डलवाकर अपने दवाखाने का काम शुरू किया.
सावित्रीबाई को पहली भारतीय महिला शिक्षिका कहा जाता है जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ उन्होंने जिंदगी भर अपने आप को जनजाग्रति व सामाजिक कामों के लिए समर्पित किया.
पुणे में लड़कियों का पहला स्कूल खोलने में उनकी एक सहयोगी थी फातिमा शेख- जो स्कूल में पढ़ाती थी. सावित्री एवं ज्योतिबा दोनों ने मिलकर ऐसी विधवाओं एवं परित्यक्ताओं की सहायता के लिए ‘बाल हत्या प्रतिबंधक ग्रह’ खोला, जिन पर गर्भ लाद दिया गया था.
इसी ग्रह में जन्मे एक बच्चे को उन्होंने बाद में गोद भी लिया. पति के गुजर जाने के बाद महिलाओं के सिर मुंडन की प्रथा के खिलाफ इलाके के नाइयों की हड़ताल संगठित करने में वह आगे रहीं.
1890 में ज्योतिबा के निधन के पश्चात उन्होंने फुले द्वारा स्थापित ‘सत्यशोधक समाज’ के काम को आगे बढ़ाया.
प्रो. नरके के मुताबिक अगर पुराने दस्तावेजों को पलटें तो उसमें इस बात का प्रमाण उपलब्ध है कि किस तरह सावित्रीबाई ने महार जाति के पांडुरंग बाबाजी गायकवाड नाम के प्लेग के मरीज को बचाया.
लेकिन पांडुरंग को बचाने के प्रयास में सावित्रीबाई को भी प्लेग का संक्रमण हुआ और 10 मार्च 1897 को उन्होंने अंतिम सांस ली.
बीबीसी को दिए अपने साक्षात्कार में प्रो. नरके एक और अहम तथ्य की तरफ इशारा करते हैं. वर्ष 1905 में पुणे में प्लेग की महामारी फिर एक बार फैली.
यशवंतराव फुले उस दौरान भी मरीजों की सेवा में जुटे रहे, जिसके बाद उन्हें भी संक्रमण हुआ और 13 अक्तूबर 1905 को उनका भी इंतक़ाल हो गया.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)