यह समय सरकारों के लिए असाधारण काम करने का है, नागरिकों पर ही ज़िम्मेदारी डाल देने और नियोजकों की सदाशयता के भरोसे रहने का नहीं.
महामारी और पलायन में गहरा रिश्ता है. इतिहास में जब कभी कहीं भी महामारी फैली है, आबादी में बड़े पैमाने पर भगदड़ मची है.
1994 में जब गुजरात के सूरत शहर में प्लेग फैला था तब हजारों की संख्या में बिहार के मजदूर शहर छोड़कर भागे थे जिससे बिहार में भी उस महामारी की आशंका पैदा हो गई थी.
एक हद तक लॉकडाउन तब भी हुआ था. स्कूल, कॉलेज, सिनेमाघर, उद्योग, बैंक, कार्यालय, पर्यटन समेत सार्वजनिक स्थल, आदि बंद किए गए थे. लेकिन यह 1994 नहीं है.
तब और आज में, एक बड़ा बदलाव यह है कि बिहार से दूसरे शहरों में पलायन करने वालों की संख्या कई गुना बढ़ गई है. तब प्लेग सूरत से शुरू होकर कुछ राज्यों तक में सिमट गया था और उस पर दो हफ़्तों में काबू पा लिया गया था.
यह प्लेग भी नहीं है. प्लेग के बारे में मेडिकल साइंस में काफी जानकारी उपलब्ध थी, टेट्रासाइक्लीन के रूप में दवा भी थी. कोरोना एक तो वैश्विक महामारी बन गया है और न इसके बारे में पूरी जानकारी है न दवा है.
संपूर्ण लॉकडाउन, स्वच्छता, शारीरिक दूरी, और संदेहास्पद केसों को एकांत में रखने को प्रतिरोधी रणनीति के तौर पर आजमाया जा रहा है. इस रणनीति का पलायन से निश्चित ही गहरा रिश्ता है और बिहार तो पलायन के पर्याय के रूप में ख्यात हो चुका है.
पलायन करने वाले कितने?
लॉकडाउन की घोषणा होते ही हर शहरों में बाहर से आकर अस्थाई रूप से रहने वालों में अपने मूल गांव या शहर लौटने की भगदड़ मच गई, बिहार के लोग उनमें प्रमुख थे.
जरा संख्या को समझने की कोशिश करते हैं क्योंकि ऐसे संकट के समय आंकड़ो का महत्त्व बढ़ जाता है. अफसोस कि विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
पलायन के लिए जनगणना का सहारा नहीं लिया जा सकता, खासकर एक साल से कम अवधि के पलायन के लिए. लेकिन इसके कारणों में जाने की बजाय हम कुछ अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं.
उदाहरण के लिए, मान लें कि 2019 के अंत में बिहार की आबादी 12.48 करोड़ थी. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा 2007-2008 में पलायन पर किए गए विशेष सर्वे के अनुसार इस आबादी का 8.4 प्रतिशत, यानी एक करोड़ के आसपास लोग अपने गांव और शहरी वार्ड के बाहर एक माह से लेकर किसी भी अवधि के लिए पलायन करते हैं.
इसमें राज्य के भीतर और बाहर तथा देश के बाहर पलायन करने वाले शामिल हैं. इसमें से 2.8 प्रतिशत, यानी लगभग 35 लाख लोग एक महीने से लेकर छह महीने तक की अल्प-अवधि के लिए पलायन करते हैं.
उनका करीब 44.6 प्रतिशत बिहार से बाहर पलायन करता है जिसकी संख्या लगभग 15-16 लाख होगी.
मान लेते हैं कि ग्रामीण-से-ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन करने वाले 23 प्रतिशत में से ज्यादातर अपने गांव में ही रह रहे होंगे क्योंकि लॉकडाउन के वक्त उत्तरी भारत में गेहूं की कटनी शुरू नहीं हुई थी और बाकी पलायन करनेवालों में से संभवतः 10-12 प्रतिशत भी कई कारणों से गांव में ही रह गए हों.
इस तरह अल्पकालिक अंतरराज्यीय प्रवास करने वालों की संख्या 10 लाख तक हो सकती है.
छह माह से ज्यादा और दीर्घ अवधि के लिए पलायन करने वालों में से भी बड़ी संख्या में लोग चक्रीय पलायनकर्ता ही हैं, इसलिए उनमें से कम से कम 5 से 10 लाख तक ऐसे लोग हो सकते हैं जो किसी भी संकट की स्थिति में अपने गांव-शहर लौटने को मजबूर होंगे.
इनमें से सीमावर्ती राज्यों- बंगाल, झारखंड और उत्तर प्रदेश के पास के क्षेत्रों, जहां से आवाजाही आसान है- में पलायन करने वाले 35 प्रतिशत को न भी गिनें तब भी हम कम से कम 12-15 लाख लोगों की बात कर रहे हैं.
शायद आपको ऐसा लगे कि यहां संख्या को कम दिखाने की कुछ ज्यादा ही कोशिश की जा रही है, लेकिन यकीन मानिये असल संख्या इससे कहीं ज्यादा है.
खैर, तो जो लॉकडाउन के पहले आ सके वे आ गए. 30 प्रतिशत तो इतने दूर-दराज में होंगे कि लौटने की सोच भी नहीं सकते.
यदि 5-7 लाख में भी घर लौटने की एक साथ भगदड़ मचे तो क्या हो सकता है इसका ह्रदय-विदारक दृश्य हमने टीवी पर देखा.
फिर बड़े शहरों में सिर्फ बिहार के ही लोग तो नहीं हैं. घर लौटने की अफरा-तफरी में कई लोगों की जानें चली गईं और क्या पता कितनों को महामारी ने चुपचाप अपनी चपेट में ले लिया हो.
लॉकडाउन की राजनीति
लॉकडाउन के राजनीतिक पहलू पर कम ही चर्चा हुई है. आखिरकार लॉकडाउन जैसे निर्णय सरकारें लेती हैं तो लोगों की जिम्मेदारी भी सरकार की है.
सरकारों ने आम तौर पर विदेशों से लोगों को लौटा लाने में जैसी मुस्तैदी दिखाई है वैसी अपने देश के गरीब श्रमिकों के मामले में नहीं दिखती.
पिछले कई सालों से भारत में सार्वजनिक माध्यमों व मंचों से गरीबी पर चर्चा गायब हो चुकी है. भारत को आकांक्षाओं का समाज बताया जा रहा है.
गरीबी ही नहीं गरीबों को भी छुपाने का प्रयोग हम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अहमदाबाद आगमन के समय देख चुके हैं. इस बार सभी से शारीरिक दूरी बनाने को कड़ाई से कहा गया है. लेकिन शारीरिक दूरी की सहूलियत मध्य वर्ग तक ही सीमित है.
वैसे भी ज्यादातर मध्यवर्गीय जमीनी सच्चाइयों से कोसों दूर हैं. हमारे शहर जिस प्रकार उच्च व मध्य वर्ग केंद्रित हो गए हैं और श्रमिकों के आवास, उचित मजदूरी, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा की जिस प्रकार उपेक्षा की गई है, कोरोना जैसी महामारी के समय असमानता की यही स्थिति अपने विराट रूप में प्रकट हो गई है.
लॉकडाउन में श्रमिकों का संकट
असंगठित क्षेत्र के कामगारों, जिनमें पलायन करने वाले मजदूर भी शामिल हैं, के लिए आज तक जितनी भी योजनायें बनायीं हैं वे तीन तरह की हैं- पेंशन, मेडिकल बीमा और मृत्यु या विकलांगता की स्थिति में मुआवजा.
लॉकडाउन या आर्थिक मंदी जैसे संकट की स्थिति में वर्तमान के आर्थिक संकटों का मुकाबला करने के लिए एक भी योजना नहीं है.
निर्माण और उनसे जुड़े कार्यों में लगे मजदूरों के लिए राज्यवार बने कल्याण बोर्ड में बहुत थोड़े मजदूरों का ही रजिस्ट्रेशन हो पाया है जबकि वे अकेले अल्पकालिक पलायन करनेवालों के आधे से ज्यादा हैं. क्यों?
जो सरकार पूरे देश में एक निश्चित अवधि के भीतर एक अरब से ज्यादा लोगों का आधार कार्ड बना सकती है वह निर्माण मजदूरों का नामांकन क्यों नहीं कर सकती?
क्या सभी बयालीस करोड़ असंगठित कामगारों की पहचान और उनके बैंक खातों की शिनाख्त करने के लिए कोई ऐसा सूचना तंत्र विकसित हुआ है ताकि खास आपात हालात में उनकी मदद की जा सके?
क्या पलायन करने वालों के अधिकारों के स्थानांतरण (पोर्टेबिलिटी) का प्रावधान किया गया है? जवाब है- नहीं. ऐसे में हमारी सरकार की हालत आग लगने पर कुआं खोदने वाली हो गई है.
अब सरकारें क्या करें?
देश के करीब 42 करोड़ असंगठित मजदूरों के ऊपर इस लॉकडाउन का सीधा और मारक प्रभाव पड़ा है. ये कमोबेश दैनिक मजदूर हैं जिनका काम बंद हो गया है.
इनमें स्थानीय मजदूर भी हैं और राज्य के भीतर और बाहर पलायन करने वाले मजदूर भी.
बिहार की कार्यशक्ति, जो लगभग पांच करोड़ होगी, का बड़ा हिस्सा इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ है. इस असाधारण स्थिति से निपटने के असाधारण उपाय क्या हैं?
यहां कुछ मूल सिद्धांतों की बात ही की जा सकती है. सबसे प्रमुख सिद्धांत होना चाहिए कि किसी को भूख और कुपोषण का सामना न करना पड़े.
सरकारों को पूरे देश में सबके लिए राशन और भोजन की व्यवस्था करनी ही चाहिए चाहे किसी के पास राशन कार्ड हो या न हो.
हमारे सामने उदाहरण है ब्रिटेन का जहां राशनिंग के कारण द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में भी पोषण में सुधार हुआ था. राशनिंग के तहत चावल-आटा के साथ-साथ दाल, तेल, नमक, चीनी, और साबुन भी मिलना चाहिए.
अगला सिद्धांत होना चाहिए जगह-जगह फंसे प्रवासियों की विशेष देखभाल जिसमें अनाज या तीन समय के पके हुए पौष्टिक भोजन के साथ-साथ नकद मदद शामिल हो.
नकद मदद के दायरे को बड़ा करना तीसरा सिद्धांत हो जिसके दायरे में मनरेगा और बाकी मजदूरों के साथ-साथ वृद्ध, विकलांग, बीमार या निराश्रितों को लाना चाहिए.
काम-काज की स्थिति में सुधार होने तक मनरेगा मजदूरों को हर माह कम से कम 10 दिनों का पारिश्रमिक एडवांस में नकद दिया जाना चाहिए.
इसके बाद जो प्रवासी अपने घरों को लौटना चाहते हैं उन्हें वापस लाने की व्यवस्था करना अगला सिद्धांत होना चाहिए.
स्वास्थ्य के मोर्चे पर जांच, क्वारंटाइन, इलाज और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए सुरक्षा उपक्रमों की व्यवस्था के साथ-साथ स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों का नियमित परिचालन एक और जरूरी उसूल है क्योंकि कोरोना के अलावा दूसरी जानलेवा बीमारियों का इलाज कहीं से कम महत्वपूर्ण नहीं है.
यह समय सरकारों के लिए असाधारण काम करने का है, नागरिकों पर ही जिम्मेदारी डाल देने और नियोजकों की सदाशयता के भरोसे रहने का नहीं. क्या सरकारें इस महामारी से सबक लेकर प्रवासियों के लिए बेहतर शहर और देश बनाने की पहल करेंगी?
(लेखक टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना केंद्र के निदेशक हैं.)