तकनीक के अधकचरे इस्तेमाल ने दरअसल एक अधकचरी पढ़ी-लिखी हिंसा को भी जन्म दिया है. इस हिंसा का शिकार हर वैसा वर्ग और व्यक्ति हो रहा है, जो एक मदमाती सत्ता से सवाल पूछता है.
इस देश के सांस्कृतिक मूल्यों पर बात करते हुए हम ‘अहिंसा परम धर्म’ का प्रयोग धड़ल्ले से करते आए हैं. हम शान से यह भी कहते आए हैं कि यह भूमि ऋषि, मुनियों, साधु-संतों, बुद्ध और महावीर की भूमि है जिनके मूल में अहिंसा रही है.
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के पीछे भी बहुत हद तक इसी मूल्य का हाथ रहा है. उसे अपूर्व कौशल से महात्मा गांधी ने देश के हक़ में इस्तेमाल किया.
इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि यह मूल्य, यह जज़्बा देश की आत्मा में बसता रहा है. फिर एकाएक ऐसा क्या हो जाता है कि इक्कीसवीं सदी का यह देश एकदम से पलटी खाता है और एक समाज बतौर हम न सिर्फ़ हिंसा में अगाध निष्ठा जताने लगते हैं बल्कि उसका दिनों-दिन मुज़ाहिरा भी करते चलते हैं.
सार्वजनिक जगहों और सोशल मीडिया पर बढ़ती हिंसा की वारदातों के पीछे कौन से कारण हैं, यह टटोलने पर कुछ अजीबोगरीब बातें सामने आतीं हैं, जैसे भारत मदारियों, बाबाओं, चमत्कारिक उद्घोषों–सलीक़ों, संपेरों, मोगलियों, बिग फैट इंडियन वेडिंग, हाथियों और विदूषक राजाओं का अलौकिक देश है.
आपको आश्चर्य होगा कि यह एनआरआई और विदेशी ही नहीं, यह संपन्न मध्य वर्ग, यूनिवर्सिटी में पढ़ते युवा और फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलती युवती की भी रोमांटिक धारणा और अदम्य विश्वास हो सकते हैं.
एक युवा से यह सवाल करने पर कि आख़िर इस समाज को, ख़ासतौर से युवा समाज को आजकल इतना गुस्सा क्यों आ रहा है, जवाब मिलता है, (एक भोली दिल तोड़ने वाली मुस्कुराहट के साथ) ‘हिंसा करना फैशनेबल है’.
यह जवाब अद्भुत है और समाज की बदलती मानसिकता और चलन दोनों का आईना है.
हम जानते हैं कि भारत तथाकथित पहली दुनिया में स्थान पाने की महत्वाकांक्षा से भरा देश है जबकि दुनिया उसे अभी भी तथाकथित तीसरी दुनिया का सरगना मानने से अधिक दर्ज़ा नहीं देना चाहती है.
यह भी ग़ुस्सा दिलाने वाली बात है और राष्ट्रीयता के दर्प को आहत करती है और ज़ाहिर है ग़ुस्सा दिलाती है. फिर हम बहाने तलाशते हैं हिंसा को, तरह-तरह के चोलों से व्यक्त करने को.
कोई बात जो साधारण अर्थों वाली हो सकती है, हमें बहुत मानीख़ेज लगने लगती है और हम उसे बड़ा अर्थ देने के ख़्याल से व्यवस्था और राष्ट्र प्रेम से जोड़ देते हैं. लाज़मी है किसी और बड़े स्लोगन, कारण और आइकॉन के अभाव में हमें बातें चुभती हैं और हम हिंसक हो जाते हैं.
जैसे थ्योरी में इस देश की औरतों को देवी टाइप दर्ज़ा हासिल है, पूज्य और वंदनीय है और उनसे हिंसा वर्जित है. धार्मिक टेक्स्ट ऐसा ही कहते हैं लेकिन सामाजिक व्यवहार वाले टेक्स्ट जो बरस दर बरस संशोधित होते रहे हैं औरतों को निकृष्ट मानते रहे हैं.
मनुस्मृति एक उदहारण है. शायद इसीलिए हम करना नहीं चाहते लेकिन हमसे हिंसा हो जाती है. लड़कियों, बच्चियों, औरतों पर हुए शोषण की लंबी फेहरिस्त है लेकिन अभी मेरी आंखों के सामने बिहार की अबोध बच्ची नैन्सी के क्षत विक्षप्त चित्र दौड़ रहे हैं.
हालिया दिनों में उस पर हुई क्रूरतम हिंसा के भी कुछ तर्क ज़रूर होंगे और बिला शक समाज का एक वर्ग उन्हें उचित भी ठहरा देगा.
गुजरात में दलितों पर गोहत्या के शक के आधार पर हिंसा और राजस्थान में गोरक्षकों का गोरक्षा के नाम पर गायों से भरी ट्रकों को जलाना जिसमें गाय जैसा निरीह पशु थे, ‘रक्षा में हत्या’ का सटीक उदाहरण है.
यह राष्ट्रीयता के गर्व के साथ जोड़ा गया मनबढ़पना भी है जो नए तरह की आक्रामकता को पोषित करता है.
महान दर्शन ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को जीने वाले देश में उस अन्य/दूसरे के प्रति असहिष्णुता के इस तरह धधकने के पीछे भी निस्संदेह कुछ ठोस तर्क होंगे, यूं ही नहीं लोग बेवफ़ा होते ख़ासतौर से कई हज़ारों साल से साथ रहते हुए.
लिहाज़ा मुंबई जैसी स्वप्न नगरी में इमानुल हक़ नाम के अभिनेता को किराये का घर नहीं मिलता क्योंकि इतने सालों से यहां के होने के बावजूद उस जैसे अन्य को आज यह साबित करना है कि उसकी निष्ठा इस देश की राष्ट्रीयता से जुडी हुई है.
उस गर्भनाल को वह कभी नहीं काटने देगा इसकी शपथ उसे लेने ही होगी. कई अभिनेताओं और क्रिएटिव लोगों और आम जनों ने भी इस तरह की हिंसा को झेला है पिछले कुछ वर्षों में जहां उनका नाम, धर्म और जाति ही उनके सामाजिक बहिष्कार के कारक होते हैं.
यह जो दूसरे का कांसेप्ट है, एक नई परिभाषित अवधारणा है यह बहुत सारी तकनीकों के घालमेल की उपज भी है और शायद इसीलिए इसकी आक्रामकता भीषण है. एक दम आग लगाने वाली.
तकनीक के अधकचरे इस्तेमाल ने दरअसल एक अधकचरी पढ़ी-लिखी हिंसा को भी जन्म दिया है. इस हिंसा का शिकार हर वैसा वर्ग और व्यक्ति हो रहा है, जो एक मदमाती पितृसत्तात्मक (माचो) सत्ता से सवाल पूछता है या उसकी वस्तुस्थिति में फेरबदल पैदा करने की कूव्वत रखता है.
इस तरह की सत्ता परिवार की संरचना और उसके तथाकथित पारंपरिक दायित्वों में अपनी जड़ को गहरे रोपे हुए है. घर के छोटे सदस्यों और बच्चों को संस्कारी (पालतू) बनाने की कवायद प्राकृतिक ग़ुस्से जैसी स्वस्थ प्रतिक्रिया को बेहद पेचीदा बना देती है.
ग़ुस्सा एक स्तर पर खुल कर परवान चढ़ता है और दूसरी ओर दब कर ज़हर समान मन के अंधेरे कोनों में इकठ्ठा होता रहता है और अवसरों की कमी और अधकचरे ज्ञान के नाम पर हिंसक प्रतिक्रियाओं में तब्दील हो जाता है.
इस तर्क से एक मामूली स्कूल का छात्र भी तथाकथित शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध कुछ कह, बाग़ी क़रार दिया जा सकता है. यहां उस छात्र को बाग़ी ठहराना हिंसा है और वह भी आजकल समाज के द्वारा मान्य होती जा रही है. हालिया दिनों में जेएनयू समेत तमाम शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों ने राज्य और समाज की हिंसा झेली. वह हिंसा भी जायज़ क़रार दी गयी.
किसानों पर हुई हिंसा भी उसी प्रवृत्ति की एक कड़ी है. किसान जैसे दमित वर्ग को भी संभावनाशील शत्रु समझ उस पर बौद्धिक (सोशल मीडिया इत्यादि पर) हमला बोलना और शारीरिक प्रताड़ना देना और उसे विकास एवं संस्कृति के नाम पर जायज़ ठहराना उसी मानसिकता को दर्शाता है जो बार-बार अपने नए गढ़े हुए सच को मूल सच के विरूद्ध खड़ा कर दे रही है.
इसी तर्क से गांधी उपहास के पात्र हो जाते हैं और इतिहास के अधकचरे ज्ञान की आड़ में उनके पक्ष में बोलने वाले या हिंसा के विरूद्ध बोलने वाले साधारण आम जन, देशद्रोही और कभी-कभी आतंकवादी भी करार दे दिए जाते हैं.
देश की सेना डरे हुए ग़ुस्सैल लोगों को रक्षक होने का आश्वासन देती है और उनकी नज़रों में एक दैवीय अवतार अख़्तियार कर लेती है. उससे सवाल करना नए प्रकार की हिंसा को जन्म देता है. अभी ट्विटर और फेसबुक पर सेना के आचरण पर बोलने वाले हिंसक घृणा के शिकार हुए हैं.
इसमें दो राय नहीं कि यह विकट समय है. जहां ज्ञान को आम जनों से बचा के रखने की रणनीति भी चालाक ढंग से जारी है. यह जघन्य हिंसा है लेकिन उसका मेरिट देखिए कि वह साथ ही साथ बहुत लोगों को आनंदित और पोषित भी कर रही है.
गांधी ने कहा था,’जब हम दूसरे पर आक्रमण कर रहे होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि बड़ा शत्रु हमारे भीतर बैठा है.’
क्या इस दीवाने समय में, प्रेम और उसके हिंसक दमन के समय में, हम अपने शत्रु को ठीक से पहचान पाएंगे? आज सच की फ़ोटोशॉप करने वाली इन्टरनेट कार्यशालाओं और फैक्ट्रियों ने इतने नए सचों का उत्पादन कर दिया है कि लगने लगा है कि उन तक पहुंचने का मार्ग हिंसा के रास्ते ही जाता है.
समाज को यह सुलभ भी लगता है और उसे इससे कोई उज्र नहीं. उन्माद से टकराना ख़ुद हिंसक होना भी है क्या? जवाब सभी को मिलकर ढूंढ़ने ही होंगे.
इस मोड़ पर तो जाने क्यों ज़फर की यह पंक्तियां याद आयीं:
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी.
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी.
(लेखिका साहित्यकार हैं.)