हम वो देश हैं जो जुगाड़ पर नाज़ करता है, 5000 साल पहले की तथाकथित उपलब्धियों के ख्वाबों की दुनिया में रहता है. उससे यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने में इतनी मेहनत करेगा कि वे बिना किसी रुकावट के और सक्षम तरीके से काम कर सकें.
गरीबों को कुछ बेहद बुनियादी सवाल पूछने के ‘जुर्म’ में पीटा जा रहा है, अस्पताल भारी दबाव में चरमरा रहे हैं.
डॉक्टरों को कामचलाऊ मास्क से काम चलाना पड़ रहा है. सोशल मीडिया नफरत उगल रहा है, भारतीय टेलीविजन चैनल मुस्लिमों को सबसे खतरनाक दुश्मन के तौर पर पेश कर रहे हैं और सरकारें स्वतंत्र पत्रकारों के पीछे पड़ी हैं.
यह भारत के स्वर्ग का एक सामान्य दिन है.
कोई कह सकता है कि नए भारत में यह एक आम हो गई बात है.
नहीं, यह कोई नयी चीज नहीं है. पुराने फैशन के परंपरागत भारत का यह सामान्य नजारा है.
हम हमेशा से ऐसे ही रहे हैं और हमेशा ऐसे ही रहेंगे. यह हमें विरासत में मिली चीज है और और संकट के काले बादल छंट जाने के बाद हम लौटकर इसी स्थिति में आ जाते हैं.
एक ऐसा देश जो जुगाड़ पर नाज़ करता है और 5000 साल पहले की तथाकथित उपलब्धियों के ख्वाबों की दुनिया में रहता है, उससे यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह व्यवस्था और प्रक्रियाओं को दुरुस्त करने में इतनी मेहनत करेगा कि वे बिना किसी रुकावट के और सक्षम तरीके से काम कर सकें.
यह हमारी तहजीब का हिस्सा नहीं है.
किसी भयावह संकट के दौर में- वर्तमान समय में यह संकट एक महामारी के रूप में आया है, लेकिन अतीत में यह कभी भूकंप, कभी बाढ़ आदि के रूप में आता था- हमारे रहनुमाओं में ‘कार्रवाई करते हुए दिखने’ की होड़ लगी रहती है.
आदेश दिए जाते हैं, बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती हैं और जब संकट का प्रकोप कम होने लगता है, तब और धन आवंटन और चीजों को बेहतर बनाने के वादे किए जाते हैं.
जैसा कि हमने अतीत में कई बार देखा है- इस बात की उम्मीद मत लगाइए कि स्वास्थ्य के क्षेत्र मे भारत का निवेश बढ़ जाएगा.
लेकिन इस बार सत्ता व्यवस्था ने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी है, वह पहले से काफी अलग है. लोगों तक, खासतौर पर जो सबसे ज्यादा गैर-महफूज हैं, उन तक पहुंचने की रस्मअदायगी भी नहीं दिखाई दे रही है.
सहानुभूति का कोई संकेत नहीं है. स्पष्ट हिदायतें और दिशा-निर्देश देनेवाली संकल्पवान निर्णय क्षमता का आभास नहीं मिल रहा है.
न ही किसी कार्य-योजना की भनक है, जो भले दीर्घाकालिक समाधान की बात न करे, लेकिन जिन्हें मदद की तत्काल जरूरत है, कम से कम उन्हें तो मदद पहुंचाए.
निश्चित तौर पर अपवाद भी हैं. केरल, राजस्थान, ओडिशा और कुछ हद तक महाराष्ट्र की सरकारें अपने नागरिकों को मदद पहुंचाने के लिए काम कर रही हैं.
ऐसा नहीं है कि इन रणनीतियों में कमियां नहीं हैं- महाराष्ट्र में संसाधनों के अक्षम प्रयोग के कारण मृत्यु दर ज्यादा है और बड़ी संख्या में लोगों- गरीब और प्रवासी मजदूर- को मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है.
कहने का मतलब यह भी नहीं है कि यह स्थिति पूरी तरह से काबू में है, लेकिन हालात को बेहतर बनाने का एक संकल्प दिखाई दे रहा है.
मुख्यमंत्रियों द्वारा लगातार किया जाने वाला संवाद और उनका आचरण नागरिकों में एक आश्वस्ति का भाव जगा रहा है.
गुजरात, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तो व्यवस्था चरमरा-सी गई दिखाई देती है. मध्य प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग खस्ता हालत में है और जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, तो वहां के संत मुख्यमंत्री लाठी से आगे नहीं सोच सकते हैं.
यह तथ्य कि ऐसे संकट के बीच में उनकी पुलिस एक पत्रकार को तीन दिन बाद एक पुलिस थाने में हाजिर होने का नोटिस थमाने के लिए 700 किलोमीटर की यात्रा करके आ सकती है, हास्यास्पद हो सकता था, बशर्ते यह इतना धमकी भरा नहीं होता.
राज्यों के बीच अंतर स्पष्ट है, लेकिन इन सबके बीच कहीं न कहीं यह भी साफ है कि वर्तमान सत्ताधारी दल, राजनीतिक दांव-पेंच, राजनीतिज्ञों की खरीद-फरोख्त और चुनाव जीतने में तो माहिर है, लेकिन उसमें शासन करने का हुनर नहीं है.
यह सबसे ज्यादा केंद्र में स्पष्ट है, जहां केंद्र सरकार भविष्य में उठाए जाने वाले कदमों का कोई सुसंगत खाका नहीं पेश कर पाई है.
प्रशासन द्वारा किए जानेवाले बड़े-बड़े दावों को तो छोड़ ही दीजिए, प्रधानमंत्री का यह कहना कि जनवरी में ही भारत में टेस्टिंग शुरू हो गई थी, आंशिक तौर पर गलत है.
विमानों की आवाजाही हमेशा की तरह जारी थी और लोगों के किसी जगह बड़ी संख्या में इकट्ठा होने पर कोई पाबंदी नहीं थी.
24 फरवरी को अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम इसका अच्छा उदाहरण है. रोग के फैलने को लेकर गंभीर कोई सरकार ऐसे किसी आयोजन को न होने देती और साथ ही मध्य प्रदेश के अपने नये-नवेले मुख्यमंत्री को भव्य शपथग्रहण समारोह न करने का निर्देश देती.
लेकिन प्रधानमंत्री के बार-बार आने वाले उपदेशपूर्ण राष्ट्र के नाम संदेशों ने वास्तव में उनकी और इस तरह से उनकी सरकार की विश्वदृष्टि का इजहार किया है.
लॉकडाउन और उसकी मियाद में बढ़ोतरी की अचानक की जाने वाली घोषणाएं, हर बार तनाव और अफरा-तफरी की हालत पैदा कर देती हैं, खासकर कमजोर तबकों के बीच.
उनके पितातुल्य उपदेशों के मुख्य विषय कुछ इस तरह से रहे हैं- मैं अपने प्यारे देशवासियों से अपील करना चाहूंगा कि वे ये सांकेतिक कार्य करें और इन सुरक्षा उपायों को अपनाएं- बड़े-बुजुर्गों का ख्याल रखें, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें, अपने कर्मचारियों के प्रति सहानुभूति दिखाएं और गरीबों की मदद करें.
उनके भाषणों में सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों पर कोई चर्चा खोजने से भी नहीं मिलेगी, स्वास्थ्य संबंधी को बेहतर बनाने का संकल्प और गरीबों और प्रवासी कामगारों की देखभाल की कोई योजना कहीं नहीं मिलेगी.
गरीबों की मदद करने की जिम्मेदारी नागरिकों पर है (बदनाम किए गए एनजीओ, जिसके पीछे मोदी सरकार हाथ धोकर पड़ी रही है, पहले से ही झुग्गियों में काम कर रहे हैं और वहां रहने वालों की मदद उन्हें भोजन और दवा मुहैया कराके कर रहे हैं).
संक्षेप में कहा जाए तो आप अपने भरोसे ही हैं.
यह मुमकिन है कि सरकार पर्दे के पीछे महामारी से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हो. व्यवस्था में ऐसे नौकरशाह हैं, जो लोकसेवा के प्रति आज भी समर्पित हैं.
हो सकता है कि मंत्रीगण भी फैसले लेने के लिए रात-दिन एक कर रहे हों. हो सकता है कि हालात काबू में आ रहे हों. अगर ऐसा है, तो भी हम नागरिकों को इसकी जानकारी नहीं है.
नरेंद्र मोदी के अलावा किसी को भी देश से बात करने की इजाजत नहीं है. विश्वसनीय सार्वजनिक चेहरों की गैर मौजूदगी के कारण यह बस कागजी पुतलों की सरकार होने का एहसास देती है.
कभी-कभार कोई आता है और (एकतरफा) प्रेस ब्रीफिंग करता है या सहयोगी मीडिया, न्यूज एजेंसियों और पत्रकारों के मार्फत कोई सूचना छनकर बाहर आ जाती है, लेकिन चूंकि इन्हें क्रॉस चेक का कोई रास्ता नहीं होता, इसलिए यह संतोषजनक नहीं है.
और आज तक इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि हजारों लोग, जिनके पास कोई नौकरी नहीं है, कोई पैसा नहीं है और सिर पर छत नहीं है, अपने गांव के घरों तक कैसे पहुंचेंगे?
ऐसा नहीं है कि सरकार उनकी तकलीफों को दूर करने के लिए कुछ नहीं कर सकती है. दूसरे देशों में फंस गए सैंकड़ों भारतीयों को हवाई जहाज से वापस भारत लाया गया.
अखबार बताते हैं कि 28 मार्च को, यानी लॉकडाउन के बाद 18,00 प्रभावशाली गुजरातियों को लग्जरी बसों में बैठाकर उत्तराखंड से वापस भेजा गया.
यह राजनीतिक इच्छाशक्ति उन हजारों बेसहारा लोगों के लिए नहीं दिखाई देती, जो पहले दिल्ली में जमा हुए और अब मुंबई और दूसरी जगहों पर जिनके जमा होने की सूचना आ रही है.
और जब दरबारी चैनल ऐसी घटनाओं के पीछे राजनीतिक साजिश का सिद्धांत गढ़ने लगें, तब यह साफ हो जाता है कि वर्तमान सत्ता के ताकतवर लोग इसे कैसे पेश करना चाहते हैं.
और यह रवैया सिर्फ पदाधिकारियों तक ही सीमित नहीं है.
भारतीय बुर्जुआ दिमाग भी अब गरीबों की कोई चिंता करने के सक्षम नहीं रह गया है. बीते सालों में- और यह इस महामारी के सिर उठाने से काफी पहले की बात है- ऊपर की ओर गतिशील मध्यवर्ग ने अपने करोड़ों साथी नागरिकों से एक सामाजिक दूरी बना ली है.
अपने बंद दिमागों में वे अब ग्लोबल कम्युनिटी का हिस्सा हैं और उनकी नजरें दूर क्षितिज पर टिकी हुई हैं.
‘वर्क फ्रॉम होम’ के सुख को छोड़ सार्वजनिक स्थलों पर जमा होने वाले लोगों के ‘गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव’ के खिलाफ आग उगलते वॉट्सऐप समूहों की कोई कमी नहीं है. उनकी मानें तो, ‘ये लोग लाठी से भी ज्यादा के लायक हैं.’
तो, हम इसी तरह से हाल-बेहाल सी स्थिति में आगे बढ़ेंगे- हमारे प्रधानमंत्री हमें साफ-सफाई का पाठ पढ़ाएंगे और एक ऐप का प्रचार करेंगे जो सब कुछ को ठीक कर देगा.
मध्यवर्ग नई रेसिपी आजमाने और डालगोना कॉफी बनाना सीखने में मुब्तला रहेगा और गरीबों की बड़ी संख्या को अपने हाल पर छोड़ दिया जाएगा.
इन सबके बीच अर्थव्यवस्था, धीरे-धीरे मगर निश्चित तरीके से मंदी के भंवर में गोता लगा चुकी है.
सच्चाई यह है कि जब मंदी आएगी, तब सिर्फ दिहाड़ी मजदूर और असंगठित क्षेत्र के मजदूर ही नहीं, बल्कि व्हाइट कॉलर और पेशेवर नौकरियों वाले भी खुद को बेरोजगार पाएंगे.
महामारी के बाद दिखाई देने वाले नतीजे काफी भयावह होंगे.
तब हजारों लोगो को घर पर बैठना होगा. और यह नई सामान्य स्थिति होगी.
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