इस वायरस ने इस दुनिया को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर डाला है. इसने हमारे समय की उन नाइंसाफ़ियों से रूबरू करवाया है, जो हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति की बेमिसाल क्रूरता दर्शाती हैं.
अमेरिकी महाद्वीप और ऑस्ट्रेलिया के समुद्री तटों पर यूरोप के बाशिंदों के साथ रोगाणुओं का भी पदार्पण हुआ. यह बात जगजाहिर है कि कैसे यूरोप वासियों ने नए-नए मुल्कों पर फतह हासिल की और सफलताओं के झंडे गाड़े.
इस तथ्य में तो कोई तकरार नहीं कि कैसे उन्होंने उन मुल्कों की पूरी की पूरी आबादी को रौंद डाला. अलबत्ता, मौतों का यह तांडव कैसे रचा गया, इसको लेकर जरूर विवाद है.
क्या इन रोगाणुओं के लिए जहाजों से समुद्र के किनारे का रास्ता इतना सीधा और सरल था? क्या इनके द्वारा उन मुल्कों में महामारी का रूप धारण कर जीते-जागते लोगों को निगल पाना इसलिए संभव हो पाया क्योंकि उनकी धरती अब तक ‘अछूती’ थी?
यानी ये मौतें इसलिए मुमकिन हो पाईं क्योंकि स्थानीय लोगों में तब तक इन अनजाने रोगों को लेकर प्रतिरोधक क्षमता विकसित नहीं हुई थी? या, क्या यूरोप वासियों और स्थानीय लोगों के बीच सतत मिलने-जुलने यानी ‘इंटरेक्शन’ ने उन्हें इन महामारियों का शिकार बनाया?
इंटरेक्शन यहां पर महत्वपूर्ण शब्द है: यह शब्दावली आगंतुक-उपनिवेशी और मूल निवासियों के बीच सभी प्रकार के सबंधों को समेटती है – फूहड़ मित्रताओं से लेकर गुलामी तक, तिजारत से लेकर खूंखार लड़ाइयों तक.
कालांतर में इसी इंटरेक्शन ने घिनौनी और हिंसक विजयों का रूप ले लिया और रोगाणुओं के अलावा अन्य परिस्थितियों जैसे भूमि अधिग्रहण, फसलों को उजाड़ना, पर्यावरण विनाश और औपनिवेशिक शासकों द्वारा बिना बेखौफ क्रूरता और युद्धों ने भी इन मौतों को रफ्तार प्रदान की.
पराजित होने वालों के हालातों ने महामारियों में व्यापक स्तर पर नरसंहारों को अंजाम दिया: इनमें रोगाणु वाहक जरूर थे, लेकिन वे अकेले इस कदर तबाही की वजह न बन पाते, अगर अन्य परिस्थितियां भी उनके माकूल ना होतीं.
एडवार्डो गैलिनो ने अपनी किताब ‘ओपन वेंस ऑफ लैटिन अमेरिका’ में इन आक्रांता विजेताओं के खून से लथपथ संसार का मानचित्र खींचा है, जो क्रूरता भरे यश और भयावह आतंक का नमूना भी है.
इन सभी आक्रांताओं ने मिलकर न केवल साम्राज्यों को पोसा, बल्कि दुनिया भर में असमानता पर आधारित आर्थिक निजाम की स्थापना की.
उनकी रची यह वही दुनिया है, जिसने टाईफस और चेचक जैसी बीमारियों को पनपने और अपना क्रूरतम रूप दिखाने का अवसर दिया.
अल्फ्रेड क्रोसबी की किताब, ‘द कोलंबियन एक्सचेंज: बायोलॉजिकल एंड कल्चरल कॉन्सिक्योन्सेज़ ऑफ 1492’ अमेरिकी महाद्वीप में यूरोप वासियों की मौजूदगी के इन्हीं सबसे आरंभिक संबंधों को स्थापित करती है.
ऑस्ट्रेलिया में मूल निवासियों का इतिहास हमें कुछ ऐसे ही मानचित्र मुहैया करवाता है- उतना ही खूंरेज और उसी तरह की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं की रूपरेखा को उजागर करने वाला, जो इन रोगाणुओं से होने वाले मौत के तांडव को संभव बनाता है. (कॉलिन टात्ज की ‘जेनोसाईड इन ऑस्ट्रेलिया’ देखें).
आज जब सारी दुनिया, हवा में मंडराते इन विषाणुओं से हैरान-परेशान है, ऐसे में इनसे जुड़ी अन्य दास्तानों को याद करना उपयोगी रहेगा कि कैसे इन्होंने जीने, सभ्य होने और मिलनसारिता के विभिन्न तौर-तरीकों को बर्बाद किया.
इस वक्त मानवता अपने वर्तमान को समझने के लिए असहाय-सी खड़ी अतीत की ओर तक रही है. जब हम अतीत की ओर देखते हैं तो हमें स्पेनिश फ्लू या प्लेग का वह दौर नजर आता है, जिसने न केवल मध्यकालीन यूरोप, बल्कि उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य के कुछ हिस्सों को भी तबाह और बर्बाद कर डाला था.
लेकिन अपने में पूर्णत: औपनिवेशिक विषाणुओं का यह इतिहास आज शायद उतना ही प्रासंगिक है. यह हमें बताता है कि विषाणु क्यों और कैसे फर्क डालते हैं.
इन विषाणुओं की मारक क्षमता के लिए केवल उनकी घातक प्रकृति जिम्मेदार नहीं है, बल्कि वे आततायी निजाम भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जिन्हें सिर्फ मेहनतकशों का खून चूसना और जन साधारण को उनके जल-जंगल-जमीन से वंचित करना आता है.
आज के विषाणु भी अतीत के विषाणुओं से अलहदा नहीं हैं.
कोविड-19 वायरस का हर जगह फैल जाना, और सहजता के साथ कई शरीरों में प्रवेश कर जाना, हमारे रहने और काम करने के तौर-तरीकों को दिखाता है.
इस वक्त में एक तत्परता है, और विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों और अलग टाइम ज़ोन के बीच दुनिया भर में हो रही अटकलबाजियों में दिखती है.
इन अटकलबाजियों से माकूल वित्तीय माहौल बनता है, जिसका वास्तविक उत्पादन या श्रम प्रक्रिया से कुछ खास लेना-देना नहीं है.
यह माहौल स्टॉक और शेयर मार्केट के लिए बेहद फायदेमंद सिद्ध होता है. कुछ में उछाल आता है, तो कुछ में गिरावट. इसके पीछे सिवाय वित्तीय मुनाफे के कोई और तर्क प्रणाली काम नहीं करती.
इस तर्क का मिलान उपभोग की ऊर्जा से किया जाता है. उत्पादों की आवाजाही उसी तत्परता और सहजता से होती रहती है. इस तरह, इन असंख्य उत्पादों का आवागमन और उनकी उपलब्धता, व्यापक व्यवस्था की करतूतों पर पर्दा डाल देती है.
यानी उत्पादन की ऐसे व्यवस्थाएं, जो अनगिनत मेहनतकशों को भूखा रहने पर मजबूर करती हैं, जबकि दुनिया भर की सुपरमार्केट मोहक विदेशी खाद्य पदार्थों से पटे रहते हैं.
और पूर्वी एशिया, यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के उपभोक्ताओं के इस्तेमाल के लिए श्रमिकों के खून-पसीने से बने उत्पादों में कोई कमी महसूस नहीं की जाती.
इसके अलावा उपभोक्तावाद की कुछ ऐसी ‘जरूरतें’ भी हैं, जिनका कोई अंत नहीं है और जिनकी आपूर्ति केवल कामगारों और प्रजातियों के विनाश से ही पूरी की जा सकती हैं.
औपनिवेशिक काल में जैसे विषाणुओं ने आक्रांता विजेताओं के लिए फतह और कत्लेआम की उर्वरक जमीन तैयार की, ठीक उसी तरह कोरोना वायरस ‘घुमंतु पूजी’ की पीठ पर सवार होकर आया है.
यह विषाणु क्षीण होते शरीरों का शिकार करता है, लेकिन स्वस्थ शरीरों को भी खतरे में डालता चलता है. नव उदारवादी पूंजी के बिल्कुल उलट, जो पहले से कमजोर और कंगाल कामगारों का दोहन करती है और अनियंत्रित एवं बेरहम श्रम बाजार में जबरन धकेल दिए गए नौजवानों की ऊर्जा को चूसती है.
राजसत्ता की चौकस गिद्ध सरीखी नजरों की निगरानी में, पूंजी और कोरोना वायरस ने कष्टों का एक विशाल परिदृश्य हमारे सामने उजागर कर दिया है.
दोहन और शोषण से उपजे जो कष्ट, कथित सामान्य समयों में अपनी अनुकूल दिखते थे, मानो वे अनिवार्य हों, को प्रदत्त मान लिया गया है.
इस वायरस ने इस दुनिया को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर डाला है: इसने हमारे समयों की रोजमर्रा की नाइंसाफी को नाटकीय रूप से प्रस्तुत कर हमें उस दस्तूर से रूबरू करवाया है, जो हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति की बेमिसाल क्रूरता को दर्शाती है.
यह दस्तूर पुराना भी है और नया भी, जो इस अथक जाति व्यवस्था और पूंजी एवं बाजार से अपनी निर्मम ऊर्जा हासिल करता है.
नियंत्रणकारी राजसत्ता द्वारा इसका सामान्यीकरण कर दिया जाता है, जिसकी नजर में मेहनतकशों की उतनी ही औकात है.
सत्ताधारी वर्ग सिर्फ इसलिए उन्हें जिलाए रखना चाहता है, ताकि उनके सामने रोटी के दो टुकड़े डालकर उनसे काम लिया जा सके.
इसके अलावा सत्ता उन्हें कड़े अनुशासन में रखने, बेरहमी से उनकी आवाज दबाने और दंडित करने के काम भी अंजाम देती है. हमें याद रखना चाहिए कि पूंजी और उसकी लूट को काबू में लाए बग़ैर कोरोना वायरस को काबू में नहीं लाया जा सकता.
कथित विकसित देशों में स्वास्थ्य सेवाओं पर जरूरत से अधिक बोझ, वित्त की कमी और उनके बढ़ते निजीकरण से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है.
डॉक्टरों की जिंदगियों और उनकी स्वास्थ्य सुरक्षा के प्रबंधन व कार्यस्थल, जहां उन्हें मरीजों का इलाज करना होता है, से उनमें बढ़ती विरक्ति के भाव पर, क्रोध से भरी बहसें, खासकर अमेरिका में शुरू हो चुकी हैं.
हमारे अपने संदर्भों में बात की जाए तो बात जब नागरिकों के स्वास्थ्य के अधिकार की होती है तो सार्वजनिक बहसों में हम निजी स्वास्थ्य सेवाओं को प्रकट तौर पर अनुपस्थित पाते हैं.
इस वायरस ने अगर कुछ दिखाया है तो वह है उनके द्वारा ‘धर्मार्थ’ प्रदान की जा रही सेवाओं की विडंबना- इन निजी अस्पतालों में क्वारंटाइन या लॉकडाउन में बंद लोगों को इतने दिनों बाद भी स्कैन, अल्ट्रासाउंड और एक्स रे नसीब नहीं हुआ है.
निजी सेवाएं प्रदान करने वाले डॉक्टरों ने मजबूरी में उनके पास आने वाले ऐसे लोगों को इसका कोई वाजिब कारण भी नहीं बताया है.
वायरस की वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की दृश्यता बढ़ने से, उनकी पोल अच्छे या बुरे के लिए सबके सामने एक बार फिर से खुल गई है.
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में वित्तीय सहायता की स्थिति बेहद खस्ता है, बावजूद इसके वायरस से लड़ाई की अग्रिम पंक्ति में खड़े डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों को वायरस से लड़ने के लिए समर्पण से काम करना पड़ रहा है.
स्थिति से निबटने हेतु लिए गए इन तमाम कदमों में, पूंजी की लगभग कोई भूमिका नहीं है, सिवाय मदद राशि के, जो वैसे भी नाममात्र की है.
इस ऊंट के मुंह में जीरे बराबर मदद की राशि से सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का कुछ खास भला होने वाला नहीं है.
कोरोना वायरस ने उत्पादन और श्रम की दुनिया को यह भी दिखाया है कि उसके द्वारा देश के विभिन्न इलाकों में कामगारों को काम की तलाश में भटकने के लिए मजबूर किए जाने को लेकर उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करना असंभव रहा है.
हमारी सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर व्याप्त असमानता को मद्देनजर रखते हुए, आउटसोर्सिंग करते समय वांछित क्रमबद्धता लाने की आवश्यकता है.
यह सही है कि सीमित साधनों के साथ काम करने वाले छोटे और मध्यम स्तर के उत्पादक, सरकारी सहायता पाने की अपेक्षा नहीं रख सकते, लेकिन इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि वे भी उसी तंत्र का हिस्सा हैं, जो मजदूरों को कम मजदूरी देकर, उन्हें दुष्कर कार्य स्थितियों में काम करने पर बाध्य कर एवं सामाजिक सुरक्षा मुहैया करवाने की जिम्मेदारी न निभाकर स्वयं फलते-फूलते रहते हैं.
एक तरफ वायरस को डरावने हौवे के रूप में पेश किया जा रहा है, जबकि दूसरी तरफ पूंजीपतियों, उनके संरक्षकों और इस आपराधिक तंत्र से मुनाफा कमाने वाले तमाम अन्य लोगों की जमात को परोपकारी के रूप में पेश किया जाता है.
हालांकि जिस बारे में बात नहीं की जाती वह है कि उलके उत्पादन के साथ-साथ, वे कम-वेतन और आधे-पेट खाना सुनिश्चित करने वाली एक व्यवस्था भी खड़ी होती है.
कोरोना वायरस ने तो हमें चेतावनी जारी कर दी है, लेकिन उसके बावजूद हमारी मुश्किलों के लिए असली जिम्मेदारों को कटघरे में खड़े करने की बजाय, मेहनतकश नागरिकों को ही दंडित किया जाना और जेलों में ठूंसा जाना जारी है.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. राजेंद्र सिंह नेगी द्वारा अनूदित.)