चित्रकथा: लॉकडाउन में जो शहरों में ही रुके, वो मज़दूर किस हाल में हैं

देशव्यापी लॉकडाउन के चलते बड़े शहरों में काम करने वाले मज़दूरों के पास काम बंद हो जाने की स्थिति में दो विकल्प थे- या तो घर लौट जाएं, या फिर यहीं रहकर काम दोबारा शुरू होने का इंतज़ार करें. घरों तक के सफ़र में मज़दूरों के सामने तमाम चुनौतियां आई हैं, लेकिन जो नहीं गए उनका भी हाल कुछ बेहतर नहीं है.

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देशव्यापी लॉकडाउन के चलते बड़े शहरों में काम करने वाले मज़दूरों के पास काम बंद हो जाने की स्थिति में दो विकल्प थे- या तो घर लौट जाएं, या फिर यहीं रहकर काम दोबारा शुरू होने का इंतज़ार करें. घरों तक के सफ़र में मज़दूरों के सामने तमाम चुनौतियां आई हैं, लेकिन जो नहीं गए उनका भी हाल कुछ बेहतर नहीं है.

(सभी फोटो: शोम बसु)
(सभी फोटो: शोम बसु)

देशव्यापी लॉकडाउन के बीच दूसरे राज्यों में काम करने वाले मजदूर हरसंभव साधन से अपने घर की ओर निकल चुके हैं. देश के विभिन्न शहरों की सड़कें उम्मीद लिए धीमे-धीमे अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे समूहों से भरी हुई हैं.

इस दौरान नोएडा का लेबर चौक अब एकदम खाली है. आम दिनों में यहां मजदूरों के हुजूम के हुजूम इकट्ठे होते हैं, जहां से इन्हें चिनाई, मिस्त्री के काम या प्लंबिंग आदि के काम के लिए किराये पर ले जाया जाता है. लॉकडाउन के दौरान सबसे पहली चोट इन्हीं की आजीविका पर लगी थी.

ऐसे में उनके पास केवल दो रास्ते थे- या तो अपने घर को निकल जाएं या लॉकडाउन खत्म होने का इंतजार करते हुए तमाम कठिनाइयों के बीच यहीं रहें. घर जाने की अपनी अलग चुनौतियां हैं, साधनों की उपलब्धता हर किसी के वश में नहीं है तो दिन-रात कई शहरों की सड़कों पर ये समूह दिखाई पड़ रहे हैं.

लेकिन ये कहानी उनकी है जिन्होंने घर वापस न लौटकर इसी शहर में रुकने का फैसला किया. उनके पास पैसा नहीं है, बचा-खुचा राशन भी चुकने वाला है. वायरस का खतरा अलग है. अब ये भी घर जाना चाहते हैं.

जिस रोज़ मैं विद्यासागर से मिला, उन्होंने बताया कि बीते महीने भर से पानी वाली दाल खाकर रह रहे हैं. जेब में एक पैसा नहीं है. वे कहते हैं, ‘मैं क्या करूं? दो ही रास्ते हैं- कि या तो बिहार के अपने गांव लौट जाऊं या यहीं नोएडा में भूखे दम तोड़ दूं.’

Lockdown Migrant Worker Photoo By Shome Basu (7)
मध्य प्रदेश के कामगार दिनेश को लगता है कि अगर वापस गांव लौट जाएंगे तो कोई न कोई तो मदद कर ही देगा.

यहीं एक और प्रवासी मजदूर मोहम्मद आरिफ एक लिस्ट दिखाते हैं, इसमें उनके नाम हैं, जिन्होंने बिहार जाने के लिए आवेदन किया है. आरिफ के अनुसार उन समेत नौ मजदूरों ने इसके लिए फॉर्म भरा था, लेकिन ग्रेटर नोएडा प्रशासन उनके कागज नहीं ले रहा है, इसलिए वे अब पैदल ही निकलने की सोच रहे हैं.

इस सवाल पर कि वापस गांव जाकर कैसे काम चलेगा, वे सब कहते हैं, ‘वहां कैसे न कैसे जिंदगी चल ही जाएगी, लेकिन लगातार लॉकडाउन के बढ़ने से भूख और मौत का खतरा भी बढ़ रहा है. सवाल जिंदा रहने का है.’

जब उनसे पूछा कि कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी के बारे में चिंता नहीं है, तब एक अन्य मजदूर आलम ने जवाब दिया, ‘कोरोना से मौत जरूर होती है, लेकिन भूख से भी होती है.’

Lockdown Migrant Worker Photoo By Shome Basu (1)
फॉर्म दिखाते हुए मोहम्मद आरिफ.

नोएडा में ऐसा ही एक समूह मध्य प्रदेश के सागर के मजदूरों का है, जो अपने घर के लिए निकला था, लेकिन जिला प्रशासन द्वारा इन्हें रोक दिया गया.

ये सभी सुपरटेक की एक कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करते थे और पुलिस द्वारा उन्हें उसी साइट के पास बनाई गई उनकी अस्थायी झुग्गियों में भेज दिया गया. ये उस रोज सड़क किनारे ही थे.

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नोएडा की सड़क के किनारे बैठा मध्य प्रदेश के सागर के मजदूरों और उनके परिवारों का समूह.

ये किसी फर्म के मजदूर नहीं हैं, लेकिन एक ठेकेदार के लिए काम करते थे, जो अब उनके फोन कॉल का जवाब नहीं दे रहा है. खाने को थोड़ा-बहुत नमक-चावल है, बच्चे कई दिनों से बिना दूध या पौष्टिक खाने के रह रहे हैं. कामगार बताते हैं कि अब तक उन्हें कोई भी मदद नहीं मिली है.

वे बताते हैं कि लॉकडाउन के पहले चरण में उन्होंने यहीं रहने का तय किया था क्योंकि पूरा परिवार यहीं रहता था, लेकिन जैसे-जैसे इसके चरण बढ़े, यहां मुश्किलें बढ़ती गईं.

वहां कैसे रहेंगे, इस पर इनका जवाब भी बिहार के मजदूरों जैसा ही है… ‘कोरोना तो जान ले ही रहा है, पर भूख हमारी जान ले लेगी. वहां गांव में आसपास वाले मदद कर ही देंगे, लेकिन यह हमारी जगह नहीं है, हम यहां नहीं मरना चाहते… ‘

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सागर के रहने वाले मजदूरों के परिवार साथ में ही थे, इसलिए लॉकडाउन के पहले चरण में उन्होंने नोएडा में ही रुकने का सोचा था, लेकिन अब चरण बढ़ते रहने के साथ इनके बच्चों को बमुश्किल ही कोई पौष्टिक आहार या दूध मिल रहा है.

 

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हरिनारायण ठाकुर बिहार से हैं और नोएडा में मिस्त्री का काम करते हैं. अब पास में राशन के नाम पर कुछ नहीं बचा है, तो जल्द से जल्द गांव लौटना चाहते हैं.

 

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ये परिवार बताते हैं कि जो राशन पास में था, वो खत्म हो गया और उसके बाद कोई मदद नहीं मिली.

 

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