मोदी सरकार का आत्मनिर्भर भारत पैकेज सवालों के घेरे में क्यों है?

केंद्र सरकार का आत्मनिर्भर भारत पैकेज जीडीपी का करीब 10 फीसदी है लेकिन इससे सरकारी खजाने पर पड़ने वाला भार जीडीपी का करीब एक फीसदी ही है. यानी कि केंद्र इतनी ही राशि खर्च करेगा. सरकार ने अधिकतर राहत कर्ज या कर्ज के ब्याज में कटौती के रूप में दी है.

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(फोटो साभार: लिंक्डइन)

केंद्र सरकार का आत्मनिर्भर भारत पैकेज जीडीपी का करीब 10 फीसदी है लेकिन इससे सरकारी खजाने पर पड़ने वाला भार जीडीपी का करीब एक फीसदी ही है. यानी कि केंद्र इतनी ही राशि खर्च करेगा. सरकार ने अधिकतर राहत कर्ज या कर्ज के ब्याज में कटौती के रूप में दी है.

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नई दिल्ली: पिछले हफ्ते 12 मई को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम संबोधन में 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की थी तो बहुत से लोगों में ये उम्मीद जगी थी कि सरकार इस महामारी के दौर में जरूरतमंदों को तुरंत आर्थिक मदद करने के लिए तैयार है.

लेकिन जैसा कि हमेशा कहा जाता है कि विवरणों में ही कमियां छिपी हुई होती हैं, मोदी के ‘आत्मनिर्भर भारत पैकेज’ के पीछे छिपी सरकार की चाल का खुलासा तब हुआ जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कुल पांच किस्त में पैकेज के डिटेल को साझा किया.

केंद्र सरकार का आत्मनिर्भर भारत पैकेज जीडीपी का करीब 10 फीसदी है लेकिन इससे सरकारी खजाने पर पड़ने वाला भार जीडीपी का करीब एक फीसदी ही है. यानी कि केंद्र इतनी ही राशि खर्च करेगा. सरकार ने अधिकतर राहत कर्ज या कर्ज के ब्याज में कटौती के रूप में दी है.

इसे दूसरे शब्दों में कहें तो कुल 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का 10 फीसदी से थोड़ा ज्यादा यानी कि दो लाख करोड़ रुपये से थोड़ी अधिक राशि लोगों के हाथ में पैसा या राशन देने में खर्च की जानी है. ये राशि जीडीपी का एक फीसदी से थोड़ा ज्यादा है.

बाकी करीब 90 फीसदी राशि कर्ज देने या सस्ते दर पर कर्ज देने या कर्ज देने की शर्तें आसान करने और ब्याज दरों में कटौती या त्वरित भुगतान करने पर ब्याज में कुछ छूट देने से जुड़ी हुई है. कर्ज देने में केंद्र के खजाने से वास्तविक राशि खर्च नहीं होगी, क्योंकि ये राशि ऋण के रूप में होगी जिसे अंतत: लोगों को लौटाना ही होता है.

आइए अब हम आपको समझाते हैं कि आखिर क्यों इस पैकेज की आलोचना हो रही है और क्यों ये पैकेज अपर्याप्त है.

अप्रैल और मई महीने में देशव्यापी लॉकडाउन के कारण देश की आर्थिक गतिविधियों यानी कि विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादन में काफी गिरावट आई है. चूंकि इस पूरे साल ये अनिश्चितता बनी रहने वाली है कि अर्थव्यवस्था को कितना और किस रफ्तार से खोला जा सकेगा, इसलिए अधिकतर लोगों को अनुमान है कि पूरे भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़ी गिरावट आएगी.


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यानी कि 2019-20 की तुलना में 2020-21 में कम उत्पादन होगा. इसका मतलब है कि कृषि, उद्योग और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र की कमाई (ग्रॉस वैल्यू एडेड यानी कि जीवीए) में कमी आएगी.

जब आय में कमी आती है तो तीन तरह की चीजें होंगी.

पहला, हमारी और आपकी तरह के लोग खर्च करने में कमी करने लगेंगे. खासकर हमारे अतिरिक्त खर्च, चाहे पुरानी गाड़ी बदल कर नई गाड़ी लेना हो, अपने जीवनशैली को बेहतर बनाने में खर्च करना हो, नया कपड़ा लेना हो या एक अधिक सिगरेट जैसे खर्च में तुरंत कमी आएगी.

दूसरा, खर्च में कमी के चलते मांग में गिरावट आने के कारण बिजनेस निवेश नहीं करेंगे और वे निवेश करने के लिए आने वाले समय का इंतजार करेंगे.

तीसरा, सरकार की कमाई में बहुत बड़ी गिरावट आएगी. इसका मतलब है कि यदि सरकार वित्तीय घाटे (सरकार की कमाई और खर्च में अंतर) को बनाए रखना चाहती है तो उसे इस साल अपने खर्च में कटौती करनी होगी.

इन तीन तरह के ‘खर्च’ यानी कि व्यक्ति, बिजनेस और सरकार द्वारा खर्च को मिलाकर भारत का जीडीपी बनता है. इसमें एक चौथा अंश भी होता है जिसे हम कुल निर्यात कहते हैं, लेकिन वैश्विक मांग में गिरावट के कारण इसमें बढ़ोतरी होने की काफी कम संभावना है.

जीडीपी वृद्धि के इन चार इंजनों में सिर्फ सरकार ही एक ऐसा इंजन है जो इस समय ज्यादा पैसे खर्च कर सकती है, उस समय भी जब उसके पास पैसे न हो. क्योंकि जब सरकार 100 रुपये खर्च करती है तो अर्थव्यवस्था 100 रुपये से भी काफी आगे बढ़ती है.

सरकार के खिलाफ एक प्रमुख आलोचना यह है कि वो उचित मात्रा में पैसे खर्च नहीं कर रही है, उतना भी नहीं जितना की अर्थव्यवस्था में गिरावट को रोकने के लिए जरूरी है.

अर्थव्यवस्था में जब खर्च बढ़ता है तो इससे खपत बढ़ती है और जब खपत बढ़ती है तो उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है. इस तरह रुकी हुई अर्थव्यवस्था की साइकिल चलने लगती है.

इसलिए कई अर्थशास्त्री ये मांग उठा रहे थे कि गरीबों के हाथ में पैसे दिए जाने चाहिए ताकि वे खर्च करें. जब लोगों के हाथ में पैसा होगा तो वे चीजें खरीदेंगे, जब वे खरीददारी करेंगे तो अर्थव्यवस्था में खपत बढ़ेगा और जब खपत अधिक होगा तो उद्योगों के उत्पाद बिकेंगे और उत्पादन में बढ़ोतरी होगी.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) के प्रोफेसर एनआर भानुमूर्ति के विश्लेषण, जिसे नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) ने छापा है, के अनुसार यदि चीजें इसी तरह से चलती रहीं तो इस साल भारत की जीडीपी में 12.5 फीसदी की गिरावट आएगी.

इसलिए वृद्धि को बढ़ाने के लिए सरकार को और अधिक खर्च करना होगा. रिसर्च के मुताबिक यदि सरकार 2020-21 में घोषित बजट के अलावा जीडीपी का सिर्फ तीन फीसदी अतिरिक्त खर्च कर देती है तो अर्थव्यवस्था को संभालना आसान हो जाएगा.

ये बात सही है कि यदि सरकार खर्च बढ़ाती है तो वित्तीय घाटा बढ़ेगा, मुद्रास्फीति बढ़ेगी लेकिन यदि वृद्धि दर नीचे जाती है तो व्यापक आर्थिक संकट आएगा, लोगों की नौकरियां जाएंगी और यहां तक कि लोगों की मृत्यु भी होगी.

इस समय सरकार ने कोरोना संकट से उबारने के नाम पर जो राहत पैकेज घोषित किया है, उसमें सरकार का वास्तिक खर्च जीडीपी का करीब-करीब एक फीसदी ही है, जबकि पैकेज जीडीपी का 10 फीसदी है. अधिकतर अर्थशास्त्रियों, रेटिंग एजेंसियों इत्यादि के आकलन यही तस्वीर पेश करते हैं.

इसके अलावा हमें यह भी पता नहीं है कि जो भी जीडीपी का एक फीसदी खर्च करने की घोषणा की गई है वो इस साल के लिए निर्धारित बजट के अतिरिक्त खर्च होगा या अलग-अलग योजनाओं के बजट में कटौती कर इसे उसी में एडजस्ट किया जाएगा.

इसलिए यहां यह स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी का आत्मनिर्भर भारत पैकेज भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने में पर्याप्त योगदान शायद ही दे पाए और इसलिए इसकी आलोचना हो रही है.

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