अजी समझ लो उनका अपना नेता था जयचंद, हिटलर के तंबू में अब वे लगा रहे पैबंद

नागार्जुन की कविता राजनीति के चरित्र का पर्दाफ़ाश करती है. जो लोग लोकतंत्र को बचाने और उसे मज़बूत बनाने की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, उनके लिए नागार्जुन कभी अप्रासंगिक नहीं होंगे.

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अविनाश दास के फेसबुक पेज से

नागार्जुन की कविता हाशिए के लोगों की ज़मीन पर खड़ी होकर राजनीति के चरित्र का पर्दाफ़ाश करती है. जो लोग लोकतंत्र को बचाने और उसे और मज़बूत बनाने की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, उन सबके लिए नागार्जुन कभी भी अप्रासंगिक नहीं होंगे.

अविनाश दास के फेसबुक पेज से

भारत के लोकतंत्र की पहरेदारी करने की ज़िम्मेदारी अब तक भारतीय साहित्य ने निभाई है. आज़ादी मिलने के बाद से आज तक विभिन्न भाषाओं-बोलियों में लिखे गए भारतीय साहित्य को जो एक धागा सबसे बेहतर तरीक़े से बांधता है, वह है- जनता के प्रति प्रतिबद्ध होकर सत्ता और व्यवस्था कीआलोचना. नागार्जुन इस मामले में भारतीय जनमानस के अपने कवि हैं.

सत्ता और व्यवस्था के निरंकुश होते जाने के इस दौर में नागार्जुन की कविताओं के साथ होना, प्रतिरोध करने के साथ उसके पक्ष में खड़े होना है. आज़ादी के बाद भारतीय लोकतंत्र की आलोचना ही वह सूत्र है जिससे लोकतंत्र को और मज़बूत होना था. दुर्भाग्य से आज की सत्ता हर आलोचना करने वाले को ‘देशद्रोही’, ‘नक्सली’ वग़ैरह कहते हुए लोकतंत्र की बुनियाद को कमज़ोर करने में प्राणपण से लगी हुई है.

नागार्जुन ऐसी सभी सत्ताओं से सवाल पूछने वाले कवि हैं. उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए हम सब को भी पूछना चाहिए कि ‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?/ कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?/ सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है/ गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है/ चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है/ कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है/ जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला/ शासन के घोड़े पर वह भी सवार है/ उसी की जनवरी छब्बीस/ उसी का पंद्रह अगस्त है/ बाकी सब दुखी हैं, बाकी सब पस्त हैं.’

ऐसे सवाल पूछने की हिम्मत-कूबत कहां से आती है? जनता से. और नागार्जुन जनकवि थे. यही उनकी ताक़त का स्रोत था. वजीफ़े, इनाम-इकराम और सत्ता के ‘गद्दे-चिलमन-तोशक-तकिये’ का उन्हें कोई लोभ न था. उनकी प्रतिबद्धता भारत की वंचित-शोषित आम अवाम के प्रति थी.

अपनी बेटी के लिए गुलाबी चूड़ियां ले जाने वाले बस ड्राइवर, कलकत्ते में ट्राम में दिन भर की मेहनत-मजूरी करके लौट रहे मज़दूर सोलह थानों वाली ‘मादरे हिंद की बेटी’ सुअर, आपातकाल के समय में जेल का साथी नेवला और हिरनौटे की तरह उछल रहा चंदू, सब उनकी कविता के केंद्र में हैं.

इनके बारे में बात करते हुए नागार्जुन की आंखें छलक उठती हैं, बातें करुणा और स्नेह से भीग जाती हैं. ब्रेख़्त के लिए लिखी कविता में उनकी घुच्ची आंखों में नागार्जुन जो देखते हैं, ठीक वही उनकी आंखों में भी है- ‘प्यार का अनूठा रसायन’, ‘जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी’, ‘प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता…. इस ममता का एक नमूना देखिए- ‘जमुना किनारे/ पूस की गुनगुनी धूप में मखमली दूब पर/ पसरकर लेटी है/ वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है/ भरे पूरे बारह थानों वाली’.

पर यही कवि जब सत्ताधारियों या सत्ता से बात करता है तो उसका स्वर तीखा होता चला जाता है. उसकी बातें चुभती हैं. कांग्रेस, भाजपा सहित समाम सत्ताधारी पार्टियों की जनविरोधी राजनीति के मुंह से मुखौटा खींचते हुए नागार्जुन अपनी चुभती हुई भाषा में उनको सवालों के कटघरे में खड़ा करते हैं.

वे भारत की आम अवाम के प्रतिनिधि के बतौर राजनीतिक सत्ता की आंखों में आंखें डालकर उससे सवाल पूछते हैं- ‘इंदु जी, इंदु जी/ क्या हुआ आपको/ सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को’. वे आगे बढ़कर महाराष्ट्र के तत्कालीन नेता बाल ठाकरे की राजनीति की पोल खोलते हैं- ‘शिवसेना है महाराष्ट्र का सबसे भारी रोग’.

आजकल जिस विचार के नाम पर निर्दोषों की जगह-जगह हत्याएं हो रही हैं, नागार्जुन ने उनके रंग-ढंग पहले ही आंक दिए थे- ‘मायावी हैं बड़े घाघ हैं इन्हें न समझो मंद/तक्षक ने सिखलाए इनको सर्प नृत्य के छंद/ अजी समझ लो उनका अपना नेता था जयचंद/हिटलर के तंबू में अब वे लगा रहे पैबंद’.

नागार्जुन नाम लेकर सीधे-सीधे कहने से कभी नहीं चूकते. नेहरू, इंदिरा, मोरारजी से लेकर बिनोवा और जयप्रकाश तक की सीधी आलोचनाएं उनकी कविताओं में भरी पड़ी हैं. आज का वक़्त होता तो शायद कलबुर्गी, पानसारे और दाभोलकर की तरह कोई उन्हें भी सीधे गोली मार देता!

जनांदोलन वह जगह है जहां से नागार्जुन को आशा और शक्ति हासिल होती है. उनके लिए जनांदोलन ही सत्ता से लड़ने का सबसे कारगर तरीक़ा हैं. जनांदोलनों के ताप का वर्णन करते हुए उनकी भाषा आवेग और उद्बोधन से भर उठती है.

जयकृष्ण राय तुषार के ब्लॉग सुनहरी कलम से साभार
फोटो: जयकृष्ण राय तुषार के ब्लॉग सुनहरी कलम से साभार

भोजपुर के जनांदोलन का वर्णन उन्हीं से सुनिए- एक-एक सिर सूंघ चुका हूं/ एक-एक दिल छूकर देखा/ इन सबमें तो वही आग है, ऊर्जा वो ही/ चमत्कार है इस माटी में/ इस माटी का तिलक लगाओ/ बुद्धू इसकी करो वंदना/ यही अमृत है, यही चंदना/ बुद्धू इसकी करो वंदना/ यही तुम्हारी वाणी का कल्याण करेगी/ यही मृत्तिका जन-कवि में अब प्राण भरेगी/चमत्कार है इस माटी में/ आओ, आओ, आओ, आओ!/ तुम भी आओ, तुम भी आओ/ देखो, जनकवि, भाग न जाओ/ तुम्हें कसम है इस माटी की/ इस माटी की/ इस माटी की/ इस माटी की’.

लेकिन वे जनांदोलनों की कमज़ोर नब्ज़ पर भी हाथ रखते हैं. जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के लिए लिखी गयी कविताओं में ‘क्रांति सुगबगाई है’ से लेकर ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ तक शामिल हैं. वे जनता के भीतर आशा जगाने वाले आंदोलनों में तत्काल शामिल होने वाले और जनता से धोखाधड़ी को तत्काल ही पहचान लेने वाले कवि हैं. उन्हीं के शब्दों में ‘नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है/ यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है/ मेरी भी आभा है इसमें’.

नागार्जुन परंपरा को विकसित करने वाले अद्वितीय कवि हैं. संस्कृत में लेनिन पर लिखी कविता से लेकर मैथिली में प्रकृति की अनुपम छटाओं का वर्णन करने वाले नागार्जुन के प्रिय कवियों में कालिदास शामिल हैं. परंपरा के नाम पर दामन, शोषण और हत्याएं करने वाले विचारों के ठीक उलट नागार्जुन परंपरा को नवीन बनाते हैं.

परंपरा की सद्गति ऐसे ही कवि के हाथों संभव है. गुलेर के चित्रों में, हुसैन की कला में अश्लीलता ढूंढने वाले कालिदास को बिल्कुल नहीं जानते. उन्हें सीखना चाहिए कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा में बहुलता और समावेश की जगह हमेशा ही रही है. उन्हें कालिदास को पढ़ना चाहिए.

बहरहाल नागार्जुन कालिदास से पूछते हैं कि-‘शिवजी की तीसरी आंख से/ निकली हुई महाज्वाला से/ घृतमिश्रित सूखी समिधा सम/ कामदेव जब भस्म हो गया/ रति का क्रंदन सुन आंसू से/ तुमने ही तो दृग धोये थे/ कालिदास! सच-सच बतलाना/ रति रोयी या तुम रोये थे?’ परंपरा ऐसे पढ़ी जाती है. अपढ़ और कुपढ़ बना दिए गए लोगों को एक बार नागार्जुन के पास ज़रूर जाना चाहिए- परंपरा सीखने.

आलोचक कहते हैं कि नागार्जुन की कविता राजनीतिक है, प्रचार है. वह सिर्फ़ अपने समय की राजनीति की बात करती है. नहीं, नागार्जुन की कविता इस राजनीति के पीछे छुपी सत्ता को पहचानती है, और हाशिए के लोगों की ज़मीन पर खड़ी होकर उसके चरित्र का पर्दाफ़ाश करती है.

जो भारत के लोकतंत्र को बचाने और उसे और मज़बूत बनाने की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, जो इंसान द्वारा इंसान के शोषण का ख़ात्मा चाहते हैं, जो इस देश के आख़िरी इंसान की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, जो शोषण दमन और ग़ैर-बराबरी पर टिके निज़ाम को पलटना चाहते हैं, किसानों-मज़दूरों-महिलाओं-दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों को देश का मालिक बनाना चाहते हैं, जो नए गगन में नए सूर्य का ख़्वाब देखते हैं, उन सब के लिए नागार्जुन कभी भी अप्रासंगिक नहीं होंगे.

(लेखक आंबेडकर विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)