लॉकडाउन: श्रमिक स्पेशल ट्रेन में गई मज़दूर की जान, भूख से मौत का आरोप

उत्तर प्रदेश के मछलीशहर के रहने वाले जोखन यादव और उनके भतीजे रवीश यादव मुंबई में कंस्ट्रक्शन मज़दूर के रूप में काम करते थे. लॉकडाउन के चलते वे श्रमिक स्पेशल ट्रेन से घर लौट रहे थे, जब वाराणसी पहुंचने से कुछ देर पहले जोखन ने दम तोड़ दिया. उनके भतीजे का कहना है कि उन्होंने क़रीब 60 घंटों से कुछ नहीं खाया था.

Patna: Migrants load their bicycles in a train to reach their native place, during a nationwide lockdown in the wake of coronavirus pandemic, in Patna, Saturday, May 16, 2020. (PTI Photo)(PTI16-05-2020_000089B)

उत्तर प्रदेश के मछलीशहर के रहने वाले जोखन यादव और उनके भतीजे रवीश यादव मुंबई में कंस्ट्रक्शन मज़दूर के रूप में काम करते थे. लॉकडाउन के चलते वे श्रमिक स्पेशल ट्रेन से घर लौट रहे थे, जब वाराणसी पहुंचने से कुछ देर पहले जोखन ने दम तोड़ दिया. उनके भतीजे का कहना है कि उन्होंने क़रीब 60 घंटों से कुछ नहीं खाया था.

Patna: Migrants load their bicycles in a train to reach their native place, during a nationwide lockdown in the wake of coronavirus pandemic, in Patna, Saturday, May 16, 2020. (PTI Photo)(PTI16-05-2020_000089B)
(फोटो: पीटीआई)

कोरोना संक्रमण के बीच अपने घरों को जा रहे प्रवासी मजदूरों की मुश्किलें कम होती नहीं दिख रही हैं. बीते शनिवार 23 मई को मुंबई से उत्तर प्रदेश के लिए निकली एक ट्रेन में एक श्रमिक की मौत हो गई. साथ आ रहे उनके भतीजे का आरोप है कि उनकी मौत भूख से हुई है क्योंकि उन्हें करीब 60 घंटे से कुछ खाने-पीने को नहीं मिला था.

द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के मछलीशहर के रहने वाले 46 साल के जोखन यादव और उनके भतीजे रवीश यादव (25) मुंबई में कंस्ट्रक्शन मजदूर के रूप में काम करते हैं.

दोनों श्रमिक 20 मई की शाम सात बजे मुंबई के लोकमान्य तिलक टर्मिनल से चली ट्रेन में थे. उन्हें वाराणसी कैंट तक आना था, जहां ट्रेन 23 मई की सुबह करीब साढ़े सात बजे पहुंची. रवीश ने स्थानीय पत्रकारों को बताया कि जोखन की मौत उससे कुछ समय पहले ही हो गई थी.

उन्होंने बताया, ‘उन्होंने भूख और पूरे शरीर में दर्द होने की बात कही और वाराणसी कैंट स्टेशन आने से करीब आधे घंटे पहले बेहोश हो गए, कुछ ही मिनटों में उन्होंने दम तोड़ दिया.’

रवीश ने आगे कहा, ‘हम अपने साथ कुछ खाने-पीने को नहीं लाए थे क्योंकि हमने सुना था कि रेलवे की तरफ से ट्रेन में खाने के पैकेट और पानी की बोतलें दी जा रही हैं. हम जिस डिब्बे में थे, उसके बाकी मुसाफिरों के पास भी खाने-पीने को कुछ नहीं बचा था, इसलिए वे भी हमारी मदद नहीं कर पाए. ट्रेन में भी पानी नहीं आ रहा था.’

वाराणसी के एडिशनल डिवीजनल रेलवे मैनेजर रविप्रकाश चतुर्वेदी इस दावे से इनकार करते हैं कि ट्रेन में खाना-पीना नहीं दिया गया. उन्होंने कहा, ‘इस व्यक्ति की मौत वाराणसी कैंट आने से पहले ही हो चुकी थी. जीआरपी ने शव अपने कब्जे में ले लिया था. इस व्यक्ति के परिजनों ने बताया है कि वह दिल के मरीज थे, हो सकता है उसी के चलते उनकी मौत हुई हो.’

रवीश का कहना है, ‘हां, उन्हें दिल की बीमारी थी, लेकिन उनकी मौत साठ घंटों से अधिक समय तक भूखे रहने के चलते हुई है.’

उन्होंने आगे बताया कि जोखन ने उन दोनों के लिए टिकट खरीदा था, एक टिकट की कीमत 940 रुपये थी. रवीश की बात सरकार के उस दावे के उलट है कि श्रमिकों को बिना पैसे लिए उनके घर भेजा जा रहा है.

रवीश ने आगे बताया, ‘जब हम ट्रेन में बैठे थे, तभी उन्हें बहुत भूख लगी थी. जेब में पैसा था लेकिन रास्ते में कहीं कुछ खाने-पीने को मिला ही नहीं, जो खरीद लेते. 18 घंटे बाद मध्य प्रदेश के कटनी तक ट्रेन कहीं नहीं रुकी.’

उन्होंने बताया कि कटनी स्टेशन पर ट्रेन तीन घंटों तक रुकी थी, लेकिन वहां खाने को कुछ उपलब्ध नहीं था. रवीश ने आगे बताया, ‘आगे कई स्टेशनों पर हमने जीआरपी और रेलवे अफसरों से विनती की कि हमें खाना-पानी मुहैया करवा दें, लेकिन उन्होंने नजरअंदाज कर दिया. वे हमें ट्रेन से उतरने भी नहीं दे रहे थे. जीआरपी वाले लाठी चला रहे थे.

बता दें कि इससे पहले श्रमिक स्पेशल ट्रेन से गुजरात से बिहार लौटे कामगारों का भी कहना था कि उन्होंने सरकारी दावे के उलट अपना टिकट ख़ुद खरीदा था और डेढ़ हज़ार किलोमीटर और 31 घंटे से ज़्यादा के सफ़र में उन्हें चौबीस घंटों के बाद खाना दिया गया था.

गुजरात के बिरगाम से बिहार के बेतिया के लिए निकले एक श्रमिक योगेश ने बताया था कि सफर के दौरान खाने और पानी की बेहद किल्लत हुई थी. साथ लाया गया पानी कुछ देर में ख़त्म हो गया और रास्ते के स्टेशन पर आरपीएफ के जवान प्लेटफार्म पर उतरकर पानी भी नहीं भरने दे रहे थे.

उन्होंने भी बताया था कि कुछ कामगारों के पास पैसा था. लेकिन जिन भी रेलवे स्टेशनों पर ट्रेन रुकती, वहां एक भी दुकान खुली नहीं थी कि लोग खरीदकर ही कुछ खा लेते. पैसा होने के बाद भी लोगों को भूखे पेट सफर काटना पड़ा था.