क्या उत्तर प्रदेश सरकार राज्य के निवासियों की मालिक या अभिभावक बन गई है?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस बात से बहुत नाराज़गी है कि दूसरे राज्यों ने 'उनके लोगों' की ठीक से देखभाल नहीं की और इस कारण उन्हें इतनी तबाही झेलनी पड़ी. ख़ुद उनकी सरकार ने लोगों का ख़याल कैसे रखा, कैसे महामारी के बहाने 'अपने लोगों' के स्वास्थ्य संरक्षण के नाम पर मालिकाना रवैया अख़्तियार कर लिया है, इस बारे में कोई सवाल नहीं है.

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Migrants arriving by a special train from Nasik come out of the Charbagh railway station, amid COVID-19 lockdown in Lucknow, Monday, May 4, 2020. (PTI Photo)

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस बात से बहुत नाराज़गी है कि दूसरे राज्यों ने ‘उनके लोगों’ की ठीक से देखभाल नहीं की और इस कारण उन्हें इतनी तबाही झेलनी पड़ी. ख़ुद उनकी सरकार ने लोगों का ख़याल कैसे रखा, कैसे महामारी के बहाने ‘अपने लोगों’ के स्वास्थ्य संरक्षण के नाम पर मालिकाना रवैया अख़्तियार कर लिया है, इस बारे में कोई सवाल नहीं है.

Migrants arriving by a special train from Nasik come out of the Charbagh railway station, amid COVID-19 lockdown in Lucknow, Monday, May 4, 2020. (PTI Photo)
चारबाग रेलवे स्टेशन के बाहर प्रवासी श्रमिक. (फोटो: पीटीआई)

‘बिना हमारी इजाजत दूसरे प्रदेश हमारे लोगों को नहीं ले सकते.’ यह सबसे नया फरमान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जारी किया.

इसका जवाब फौरन भारतीय जनता पार्टी से नई मित्रता की ओर अग्रसर राज ठाकरे की तरफ से आया कि उत्तर प्रदेश के लोगों को पहले हमसे अनुमति लेनी होगी. उनका पंजीकरण पुलिस के पास होना चाहिए और उनके सारे ब्योरे भी सरकार के पास होने चाहिए, बिना हमारी इजाजत के वे हमारे यहां काम नहीं कर सकते.

ठाकरे ने उत्तर प्रदेश सरकार के निर्णय को तार्किक परिणति देते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश के लोगों को सिर्फ उन्हीं के राज्य में मतदान की इजाजत होनी चाहिए.

क्या ये बयान भारत के टुकड़े-टुकड़े नहीं करते? उससे भी पहले सवाल होना चाहिए कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार राज्य के निवासियों की मालिक या अभिभावक बन गई है?

क्या उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने चुनाव में अपने प्रतिनिधि चुने थे जिन्हें सरकार भी चलानी थी उनकी ओर से या उन्होंने अपने स्वामी चुने थे? क्या मतदान करके उन्होंने अपनी स्वायत्त सत्ता का विलय अपनी सरकार में कर दिया था और खुद उसके दास बन गए थे?

अगर सरकार यह कह पाई तो इसका एक ही मतलब है कि उसे विश्वास है कि मतदाता अब जनता रहा नहीं. उसने खुद अपनी पद अवनति कर ली है और राजा की प्रजा में खुद को शेष कर लिया है. बिना इस यकीन के यह बयान देने की हिमाकत कोई जन प्रतिनिधि नहीं कर सकता.

मीडिया ने बड़ी सावधानी से सरकार की मंशा की तारीफ करते हुए सिर्फ यह कहा है कि यह सब वह जिनका भला सोचकर कह रही है, उनका इससे नुकसान ही होगा.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को इससे बहुत नाराजगी है कि दूसरे राज्यों ने ‘उनके लोगों’ की ठीक से देखभाल नहीं की और इस कारण उन्हें इतनी तबाही झेलनी पड़ी. अब वे एक प्रवासी आयोग बनाएंगे, जो उत्तर प्रदेश से बाहर जाकर काम करने वालों के लिए नीतियां तय करेगा.

यह वह सरकार है जिसने अभी तुरंत 1,000 से भी ज़्यादा बसों को खाली राजस्थान और उत्तर प्रदेश सीमा के एक बिंदु से दूसरे तक दौड़ाया और आखिरकार उन्हें खाली वापस लौटने को मजबूर किया लेकिन यह इजाजत नहीं दी कि वे पैदल चलते लोगों को, जिनमें बड़ी तादाद में मजदूर थे, उत्तर प्रदेश की सीमा के भीतर उनके गांव-घर तक पहुंचा दें.

सरकार उस वक्त भी यह कह रही थी कि हमारे लोग कैसे चलेंगे, यह वही तय करेगी. उन्हें राहत भी देनी है तो वही देगी, किसी दूसरे राजनीतिक दल को ‘उसके लोगों’ को मदद देने की आज्ञा भी वह नहीं दे सकती.

वे किसकी मदद कैसे लें, यह भी वे तय नहीं कर सकते, उनकी मालिक सरकार तय करेगी. तो लोग अब सिर्फ सरकार के रहमोकरम पर नहीं हैं, वे पूरी तरह से उसके कैदी बन चुके हैं.

खुद उत्तर प्रदेश में सरकार ने लोगों का खयाल कैसे रखा, इसके बारे में कोई सवाल भी नहीं है. महामारी का फायदा उठाकर ‘अपने लोगों’ के स्वास्थ्य के संरक्षण के नाम पर सरकार ने मालिकाना रवैया अख्तियार कर लिया है.

बीच में उसने हुक्म जारी किया कि अगर कोई इरादतन संक्रमण फैलाता पाया गया तो उसे उम्रकैद तक की सजा दी जा सकती है. आखिर यह तय कौन करेगा कि कोई इरादतन या जानबूझकर संक्रमण फैला रहा था या नहीं?

सरकार या उसके अमले किसी पर भी यह इल्जाम वैसे ही लगा सकते हैं जैसे पाकिस्तान में ईशनिंदा के कानून की आड़ में किसी पर भी लगाया जा सकता है.

आखिर कोई भी संक्रमित कैसे साबित कर सकता है कि उसने दूसरों को संक्रमित नहीं किया और वह भी जानते बूझते? अगर उसकी जांच ही देर से हुई, तो उसमें उसका कसूर कि वह जांच होने तक और लोगों के संपर्क में आता रहा?

इस हुक्म का भी जितना विरोध होना चाहिए था, नहीं हुआ. सरकार लोगों को ‘अपना’ बनाती गई और लोग खामोशी से खुद को उसके सुपुर्द करते रहे.

संप्रभु जनता के शिखर से अधिकार विहीन और वाणी विहीन प्रजा तक का यह पतन यूं ही नहीं हो गया है. लोगों की तरफ से उनके नाम पर, उनके भीतर की दमित इच्छाओं को सहलाते हुए, उन्हें ‘दूसरों’ के दमन के अधिकार का मजा देते हुए धीरे-धीरे उन्हें गुलाम बना लिया गया है.

जैसे नशे की सप्लाई करने वाला नशेड़ी को अपने कब्जे में कर लेता है वैसे ही ‘दूसरों’ को अपमानित करने, उन पर हिंसा करने का पूरा अधिकार उन्हें देकर, उस नफरत के नशे की आदत उनको डालकर अब उनसे उनकी जबान छीन ली गई है.

एक तरफ यह दुष्टता की हिंसा के नशे का आनंद है दूसरी तरफ अपनी आजादी से जुड़े दायित्व के निर्वाह की कठिनाई. जब लोगों को सरकार अपनी हिंसा में भागीदार बना लेती है तो उनके पास उसकी गुलामी कबूल करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता.

उत्तर प्रदेश सरकार के लोगों को ‘अपना’ बना लेने के इस स्नेहपूर्ण निर्णय के बाद भारत के संघीय चरित्र, लोगों के कहीं भी अबाधित आने-जाने के अधिकार, जनता के अपने पेशे और कार्यस्थल चुनने के अधिकार को लेकर उसकी आलोचना की जा रही है.

पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि यह शेखचिल्ली की उड़ान है, लोग सरकार को धता बता देंगे. चिदंबरम साहब को इतना निश्चिंत नहीं होना चाहिए. यह इसलिए कि इस महामारी के सरकारी संज्ञान के समय उन्होंने ने ही कहा था कि प्रधानमंत्री कमांडर हैं और जनता उनकी प्यादा सैनिक.

सैनिक को सवाल की इजाजत नहीं होती, कमांडर के आदेश का पालन भार करना होता है. सवाल के साथ सैनिक नहीं और सवाल के बिना जनता नहीं.

जब लोग सिर्फ दुखी होते रहें, करुणा उपजाते रहें, शिकार बनते रहें और दूसरे सिर्फ आह!, आह! करते रहें, उन्हें बेचारा कहते रहें तो उन पर कब्जा करने में कितनी देर लगती है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)