क्या दिल्ली से लेकर गुजरात तक हाईकोर्ट की पीठ में बदलाव का उद्देश्य सरकारों को बचाना है?

कोरोना महामारी को लेकर अस्पतालों की दयनीय हालत और राज्य की स्वास्थ्य अव्यस्थताओं पर गुजरात सरकार को फटकार लगाने वाली हाईकोर्ट की पीठ में अचानक बदलाव किए जाने से एक बार फिर 'मास्टर ऑफ रोस्टर' की भूमिका सवालों के घेरे में है.

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Sonipat: A migrant waits for a means of transport to travel to his native place during the fourth phase of the ongoing COVID-19 nationwide lockdown, at Kundali Industrial Area in Sonipat, Monday, May 18, 2020. (PTI Photo/Atul Yadav)(PTI18-05-2020_000211B)

कोरोना महामारी को लेकर अस्पतालों की दयनीय हालत और राज्य की स्वास्थ्य अव्यस्थताओं पर गुजरात सरकार को फटकार लगाने वाली हाईकोर्ट की पीठ में अचानक बदलाव किए जाने से एक बार फिर ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ की भूमिका सवालों के घेरे में है.

Sonipat: A migrant waits for a means of transport to travel to his native place during the fourth phase of the ongoing COVID-19 nationwide lockdown, at Kundali Industrial Area in Sonipat, Monday, May 18, 2020. (PTI Photo/Atul Yadav)(PTI18-05-2020_000211B)
जस्टिस जेबी पर्दीवाला और इलेश जे. वोरा की पीठ कोरोना महामारी से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी. (प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: कोरोना महामारी और प्रवासियों की समस्याओं से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही गुजरात हाईकोर्ट की पीठ में अचानक बदलाव किए जाने को लेकर वकीलों, विशेषज्ञों एवं अन्य लोगों ने चिंता जाहिर की है.

जस्टिस जेबी पर्दीवाला और इलेश जे. वोरा की पीठ ने बीते कुछ दिनों में राज्य सरकार को उत्तरदायी ठहराने वाले कई महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे. कोर्ट ने स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर गुजरात में विजय रूपाणी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी और अहमदाबाद सिविल अस्पताल को ‘कालकोठरी‘ की संज्ञा दी थी.

हालांकि अब पीठ में परिवर्तन किए जाने के कारण इन मामलों की सुनवाई मुख्य न्यायधीश विक्रम नाथ की अगुवाई वाली पीठ करेगी, जिसमें जस्टिस जेबी पर्दीवाला बतौर जूनियर जज शामिल होंगे.

शुरुआत में कोविड-19 स्थिति पर स्वत: संज्ञान लेते हुए मुख्य न्यायाधीश नाथ और जस्टिस आशुतोष जे. शास्त्री की पीठ ने 13 मार्च को जनहित याचिका दायर किया था. बीच में किसी कारणवश जस्टिस विक्रम नाथ को अपने गृहनगर इलाहाबाद जाना पड़ा, जिसके बाद ये मामला जस्टिस जेबी पर्दीवाला और इलेश वोरा की पीठ के पास आ गया.

पीठ ने 11 मई को उन मीडिया रिपोर्ट्स पर संज्ञान लिया जिसमें बताया गया था कोरोना मरीजों को उचित इलाज नहीं मिल रहा है और अहमदाबाद में प्रवासी भूखे सड़कों पर पड़े हुए हैं और उन्हें उनके घर भी नहीं जाने दिया जा रहा है.

इस पर कोर्ट ने कहा था, ‘हर दिन सैकड़ों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने बच्चों के साथ राज्य के अलग-अलग हिस्सों में देखे जाते हैं, खासकर हाईवे पर. उनकी स्थिति एकदम दयनीय है. आज की तारीख तक वे अमानवीय और भयावह स्थिति में रह रहे हैं.’

पीठ ने कहा कि समाज का गरीब वर्ग कोरोना से चिंतित नहीं है, वो इस बात से चिंतित है कि कहीं भूख के कारण उसकी मौत न हो जाए.

इसके बाद पर्दीवाला-वोरा की पीठ उस समय सुर्खियों में आ गई जब उन्होंने 22 मई को एक निर्देश में कहा कि अहमदाबाद सिविल अस्पताल ‘कालकोठरी जैसे या इससे भी बदतर’ हैं. पीठ ने मामले की सुनवाई की अगली तारीख 29 मई तय की और कहा कि राज्य सरकार इस बार उचित कार्ययोजना के साथ उनके कोर्ट में आए.

कोर्ट ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘यदि हम राज्य सरकार की रिपोर्ट से खुश नहीं हुए तो हमें मजबूर होकर सिविल अस्पताल के डॉक्टरों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करना पड़ेगी और पता करना होगा कि उनकी क्या समस्याएं हैं.’

इन टिप्पणियों से राज्य सरकार को इस कदर झटका लगा कि उन्होंने एक आवेदन दायर कर कोर्ट से इस आधार पर अपना कथन वापस लेने को कहा कि इससे आम जनता का अस्पताल में विश्वास खत्म हो जाएगा और मेडिकल स्टाफ भी हतोत्साहित होंगे.

हालांकि पर्दीवाला-वोरा की पीठ अपने बयान को बरकरार रखा और 25 मई को राज्य सरकार की याचिका को खारिज कर दिया. पीठ ने अस्पताल के एक रेजिडेंट डॉक्टर द्वारा भेजे गए एक गुमनाम पत्र का संज्ञान लेने को चुनौती देने वाली राज्य सरकार की आपत्तियों को भी खारिज कर दिया. 

इसके अलावा पीठ ने जजों द्वारा औचक निरीक्षण करने को लेकर अस्पतालों को तैयार रहने को भी कहा. हालांकि अब अचानक इस पीठ में परिवर्तन किए जाने को लेकर विभिन्न वर्गों ने चिंता जाहिर की है कि कहीं ये पिछली पीठ द्वारा दिए गए आदेशों को कमजोर करने के लिए तो नहीं किया गया है.

जस्टिस पर्दीवाला इस नई पीठ में शामिल तो हैं, लेकिन वे जूनियनर जज हैं इसलिए हो सकता है कि अब कोर्ट के आदेशों में उतनी धार न दिखाई दे. लोगों में यह भी डर है कि पिछली पीठ ने जो गंभीरता दिखाई थी, शायद नई पीठ में वो बात न दिखे.

अन्य पीठ में विवादित बदलाव

ये पहला मौका नहीं जब इस तरह अचानक ये कदम उठाया गया है. इससे पहले दिल्ली दंगों के समय ऐसा ही एक अप्रत्याशित बदलाव किया गया था जब जस्टिस मुरलीधर ने दिल्ली पुलिस को कड़ी फटकार लगाई थी और भाजपा के प्रभावशाली नेताओं कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर आदि के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने को लेकर फैसला लेने को कहा था.

मुरलीधर के आदेशों से सरकार इस कदर प्रभावित हुई की आनन-फानन में उन्होंने आधी रात को जस्टिस मुरलीधर का तबादला पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में करने का आदेश जारी कर दिया.

केंद्र ने पदभार ग्रहण करने की कोई समयसीमा भी तय नहीं की. अप्रत्यक्ष रूप से जस्टिस मुरलीधर से कहा गया कि वे तुरंत नया हाईकोर्ट जॉइन करें.

जस्टिस मुरलीधर की अगुवाई वाली दिल्ली हाईकोर्ट की पीठ ने आधी रात को सुनवाई कर एक बेहद महत्वपूर्ण आदेश में पीड़ितों की मदद के लिए प्रभावित क्षेत्रों में एंबुलेंस भेजने की व्यवस्था करने और उन्हें जल्द अस्पताल में भर्ती कराने को कहा था.

गुजरात हाईकोर्ट जैसी ही स्थिति उस समय भी उत्पन्न हुई थी. दिल्ली दंगों पर दायर याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल द्वारा सुना जाना था लेकिन उस दिन वो छुट्टी पर चले गए, जिसके बाद ये मामला जस्टिस मुरलीधर की पीठ के पास आ गया.

हालांकि जब मुरलीधर ने सरकार और पुलिस को फटकार लगाई, सरकार ने जल्दबाजी में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की लंबित सिफारिश को स्वीकार किया और उनका ट्रांसफर कर दिया. इसी बीच मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल की भी वापसी हो गई और दंगों के मामलों को उन्होंने अपनी पीठ के साथ सूचीबद्ध कर लिया.

इसे लेकर केंद्र सरकार यही दलील देती आई है कि चूंकि मुख्य न्यायाधीश वापस आ गए थे और सुप्रीम कोर्ट ने काफी पहले जस्टिस मुरलीधर का ट्रांसफर करने की सिफारिश की थी, इसलिए उन्होंने ऐसा किया.

हालांकि कई लोगों ने इस पर सवाल उठाया और आरोप लगाया कि आनन-फानन में जस्टिस मुरलीधर का ट्रांसफर इसलिए किया गया, क्योंकि सरकार को लग रहा था कि ये पीठ सरकार और पुलिस के खिलाफ में आदेश दे सकती है.

अगली सुनवाई में जिसका अंदेशा था करीब-करीब वही हुआ और नई पीठ ने जल्द एफआईआर दर्ज करने के आदेश को पलट दिया और मोदी सरकार के इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि फिलहाल नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने का समय नहीं है.

ये मामला यहीं तक नहीं रुका. जस्टिस मुरलीधर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में दूसरे सबसे सीनियर जज हैं लेकिन वहां उन्हें टैक्स मामलों की सुनवाई करने को कहा गया है.

इससे पहले टैक्स संबंधी मामलों की सुनवाई सातवें स्तर की पीठ करती थी, जबकि दूसरे स्तर की पीठ खुफिया एजेंसियों, आपराधिक अपील जैसे मामलों को सुनती थी.

इसे लेकर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के वकीलों ने विरोध जताया था और कहा था कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि जस्टिस मुरलीधर ऐसे मामलों की सुनवाई न कर पाए जो कि राजनीनिक रूप से प्रभावित हो और जिस पर दिए गए फैसलों से सरकार की आलोचना हो.

इसी तरह जस्टिस अकील कुरैशी का भी ट्रांसफर करने की कॉलेजियम की सिफारिश तब तक सरकार ने स्वीकार नहीं की थी जब तक कि कॉलेजियम ने अपने पूर्व के फैसले को बदल कर उन्हें त्रिपुरा भेजने पर मुहर नहीं लगाई.

पहले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस कुरैशी को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफारिश की थी. आरोप है कि चूंकि मध्य प्रदेश में राजनीतिक रूप से प्रभावित मामलों की संख्या ज्यादा होने की संभावना थी इसलिए सरकार ने अकील कुरैशी को यहां का मुख्य न्यायाधीश बनाए जाना स्वीकार नहीं किया.

जस्टिस कुरैशी ने ही सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में भूमिका के कारण वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को दो दिन की पुलिस हिरासत में भेजा था.

एक बार फिर ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ विवादों में

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ होते हैं यानी कि सीजेआई ही ये तय करते हैं कि कौन-सी पीठ किस मामले को सुनेगी.

इस सिद्धांत का पालन आमतौर पर न्यायिक अनुशासन और शिष्टाचार को बनाए रखने के लिए किया जाता है, लेकिन एक विचार यह भी है रोस्टर बनाने की शक्ति का प्रयोग इस तरीके से किया जाना चाहिए जो उचित, न्यायसंगत और पारदर्शी हो.

रोस्टर बनाने में पारदर्शिता बरतने की मांग करने वालों को इस बात की चिंता है कि यदि ये काम न्यायसंगत ढंग से नहीं किया जाता है तो मुख्य न्यायाधीश अपनी इस विशेष शक्ति का इस्तेमाल ‘बेंच-फिक्सिंग’ यानी जज के फैसले का अंदाजा लगाते हुए उसे मामले आवंटित करने के लिए कर सकते हैं.

ऐसी स्थिति में कई बार देखा गया है कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले उस जज की अगुवाई वाली पीठ के पास नहीं भेजे जाते हैं जिसके फैसले सरकार के खिलाफ जाने की संभावना हो.

साल 2018 में वरिष्ठ वकील शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर ये मांग की थी कि बेंच गठित करने की कार्यवाही पारदर्शी और तर्कशील होनी चाहिए ताकि ‘बेंच-फिक्सिंग’ की कोई संभावना उत्पन्न न हो.

हालांकि कोर्ट ने पहले के उदाहरणों का हवाला देते हुए इस मांग को खारिज कर दिया था.

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