चार्ल्स डार्विन ने 1859 में प्राकृतिक चयन पर अपनी किताब दुनिया के सामने पेश की थी, लेकिन उनसे कुछ साल पहले ही स्कॉटलैंड के पैट्रिक मैथ्यू इस सिद्धांत तक पहुंच चुके थे. इस बात को ख़ुद डार्विन ने भी माना था, पर इतिहास मैथ्यू को इसका उचित श्रेय नहीं दे सका.
1859 में डार्विन ने अपने प्राकृतिक चयन की किताब दुनिया के सामने पेश की. उनकी और वालेस के इस सिद्धांत तक पहुंचने की कहानी के बारे मे एक पिछले लेख में बात कर चुके हैं.
यहां इस कहानी के एक ऐसे पात्र के बारे में बात होगी, जो प्राकृतिक चयन के सिद्धांत तक डार्विन से भी पहले पहुंच गए थे. डार्विन ने खुद भी इस बात को माना, पर इतिहास इस व्यक्ति को उनका पूरा श्रेय नहीं दे पाया.
1859 में डार्विन की किताब ‘ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़’ प्रकाशित हुई. जैसा कि अक्सर होता है किताब की समीक्षा जगह-जगह छपी. इन सबमें एक पत्रिका ‘गार्डनर्स क्रॉनिकल’ भी थी, जो बागवानी और बगीचे मे उगने वाले पेड़-पौधों संबंधी लेख प्रकाशित करती थी.
असल मे डार्विन इस पत्रिका में बहुत समय से दिलचस्पी लेते थे. उन्हें हमेशा से यह जानने में रुचि थी कि एक माली कैसे चुनता है कि कौन-सा पौधा अगली पीढ़ी को बीज देने के लिए चुना जाएगा. इस कारण से वे पत्रिका पढ़ते भी थे और उसमें समय-समय पर अपने प्रश्न भी भेजते थे.
पर इस बार डार्विन की किताब की समीक्षा स्कॉटलैंड के एक व्यक्ति पैट्रिक मैथ्यू ने भी पढ़ी और इसे पढ़कर उसे बहुत तकलीफ हुई. तब अपनी तकलीफ बयान करते हुए उसने पत्रिका को एक चिट्ठी लिखी.
चिट्ठी में मैथ्यू ने कहा, ‘आप जिस किताब का ज़िक्र कर रहे हैं और प्राकृतिक चयन के जिस सिद्धांत के बारे में डार्विन बात कर रहे हैं, वो सिद्धांत तो मैं 1831 की अपनी किताब में पहले ही बता चुका हूं. इस कारण से डार्विन कोई नयी बात नहीं कर रहे हैं.’
ऊपर से डार्विन अपनी किताब में मैथ्यू का ज़िक्र नहीं किया था. इसलिए मैथ्यू अपनी चिठ्ठी के माध्यम से चाहते थे कि प्राकृतिक चयन के सिद्धांत तक पहले पहुंचने का श्रेय उन्हें मिले, डार्विन को नहीं.
प्रकाशक ने मैथ्यू की चिठ्ठी अगले महीने के संस्करण में छाप दी. जैसा कि पहले बताया, डार्विन इस पत्रिका को वर्षों से पढ़ते थे और उन्होंने मैथ्यू की चिठ्ठी भी पढ़ी. इस दावे के बाद डार्विन ने मैथ्यू की किताब पढ़ डाली.
मैथ्यू की किताब का विषय था ‘बेहतर नाव बनाने के लिए बेहतर लकड़ी कैसे उगाई जाए’ है. असल में मैथ्यू चाहते थे कि ब्रिटेन का विश्व पर दबदबा हमेशा बना रहे और उनके विचार से बेहतरीन नौका होना इसके लिए अनिवार्य था. इस कारण से उनकी किताब मेहतर और मजबूत लकड़ी उगाने पर थी.
इस उद्देश्य से किताब के अंतिम पन्नों पर मैथ्यू प्राकृतिक चयन के सिद्धांत का विश्लेषण करते हैं. किताब पढ़ने के बाद डार्विन ने संपादक को अपना जवाब भेजा. चिठ्ठी में डार्विन ने कहा कि मैथ्यू का दावा बिल्कुल सही है और प्राकृतिक चयन के सिद्धांत पर वे उनसे बहुत पहले पहुंच चुके थे.
डार्विन ने आगे कहा है, ‘वह ऐसे किसी वैज्ञानिक को नहीं जानते जिसने मैथ्यू की किताब के बारे में सुन रखा हो या किताब पढ़ी हो. यह हैरानी वाली बात नहीं थी क्योंकि मैथ्यू की किताब का शीर्षक लकड़ी उगाने पर था और प्राकृतिक चयन का सिद्धांत उस किताब के अंतिम पन्नों मे छुपा था.’
इसी कारण डार्विन भी मैथ्यू के काम से अनजान थे. चिठ्ठी में डार्विन ने यह भी कहा कि यदि भविष्य में उनकी किताब के और संस्करण आए तो वह मैथ्यू को उनका बकाया श्रेय ज़रूर देंगे. और वास्तव में ऐसा ही हुआ. बाद के संस्करणों में डार्विन मैथ्यू के योगदान के बारे में बात करते हैं.
पर मैथ्यू इस जवाब से खुश नहीं थे. उन्होंने डार्विन के जवाब में एक और चिठ्ठी लिखी. उस चिठ्ठी में उन्होंने डार्विन और अपने काम करने की शैली पर टिप्पणी की है. वे कहते हैं कि डार्विन प्राकृतिक चयन के सिद्धांत पर बहुत मेहनत कर और प्रकृति में हज़ारों सबूत देखने के बाद पहुंचे हैं. इसके विपरीत उन्हें प्राकृतिक चयन का सिद्धांत प्रकृति पर एक सामान्य-सी नज़र दौड़ाने पर समझ में आ गया था.
उनकी राय में यह सिद्धांत इतना ज़ाहिर था कि किसी को यह समझ न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता था. मैथ्यू के अनुसार इसी कारण उन्होंने इस पर अत्याधिक विश्लेषण ज़रूरी नहीं समझा.
मैथ्यू के जीवन के बारे में पढ़ें तो मालूम होता है कि वह बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे, पर शायद प्राकृतिक चयन के सिद्धांत में वे अपनी सोच की ताकत को खुद ही नहीं समझ पाए. खैर, उनका और डार्विन का विवाद वहीं ख़त्म हो गया.
1860 तक मैथ्यू 70 साल के हो चुके थे, पर प्राकृतिक चयन के सिद्धांत तक पहले पहुंचने का श्रेय न मिलना निश्चित रूप से मैथ्यू को चुभा. विवाद के बाद वे अपने नाम के साथ ‘प्रजातियां बनने के रहस्य का समाधान करने वाला’ जोड़ने लगे.
इससे उनकी पीड़ा का अंदाजा होता है. उससे भी आश्चर्य की बात है कि 150 साल बाद भी मैथ्यू इतिहास के पन्नों में कहीं लुप्त हैं और उनको वह उचित श्रेय नहीं मिलता, जिसके वो लायक हैं.
पर डार्विन को प्राकृतिक चयन के सिद्धांत तक पहुंचने का श्रेय देने का एक और कारण भी है. 1858 में डार्विन और वालेस ने प्राकृतिक चयन के सिद्धांत की घोषणा दुनिया के सामने एक साथ की थी. पर आज वालेस का नाम भी बहुत काम लोग जानते हैं.
मेरे विचार से ऐसा होने का एक कारण है कि जब भी इतिहास में कोई एक बड़ी खोज हुई है जिसने हमारे सोचने के तरीके को चुनौती दी हो – ऐसी खोज को आलोचना सहनी पड़ती है, बहुत संघर्ष करना पड़ता है इससे पहले कि लोग उसे अपना लें.
डार्विन के मामले मे वो एक ऐसी बात कर रहे थे जो मनुष्य के अस्तित्व, प्रकृति में हमारी जगह को चुनौती दे रही थी. मानव जाति के लिए इससे निजी कोई बात नहीं हो सकती थी. ऐसे में जाहिर था कि ऐसी सोच की, ऐसे विचार की बहुत आलोचना होने वाली है.
पर मोटे तौर पर देखें, तो डार्विन के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनकी किताब के प्रकाशन के बाद जब वैज्ञानिकों ने उसे पढ़ा तो डार्विन के दावे को मानने के अलावा उनके समक्ष कोई दूसरा विकल्प नहीं था.
अपने हर दावे के लिए डार्विन दुनिया भर से मिले अवलोकन बताते हैं. उनका तर्क इतना कसा हुआ है कि किताब पढ़ने के बाद उनके सहमत होने के अलावा आपके पास कोई चारा नहीं है.
यही कारण है की प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के श्रेय डार्विन को दिया जाता है. पर डार्विन को श्रेय देने के लिए हमें मैथ्यू को इतिहास में खो देने की कोई शर्त नहीं है.
संयोग से डार्विन सरल भाषा में लिखते हैं और इस वजह से उनकी किताब कोई भी व्यक्ति उठाकर पढ़ सकता है. 2015 में डार्विन की किताब को विज्ञान के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण किताब बताया गया. कहा गया कि इस एक किताब ने हमारी अपने बारे में सोच बदल डाली थी.
(लेखक आईआईटी बॉम्बे में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)