दिल्ली हिंसा की पटकथा लिखने के बाद पुलिस कोर्ट और जनता को इस पर यक़ीन कराने का प्रयास कर रही है

दिल्ली पुलिस इस बात पर यक़ीन करने को कह रही है कि फरवरी में दिल्ली में हुई हिंसा के पीछे एक षड्यंत्र है और इसमें वे ही लोग शामिल हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था. पुलिस को यह पटकथा उसके राजनीतिक आकाओं ने दी और जांच एजेंसियों ने इसे कहानी के रूप में विकसित किया है.

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(फोटो: पीटीआई)

दिल्ली पुलिस इस बात पर यक़ीन करने को कह रही है कि फरवरी में दिल्ली में हुई हिंसा के पीछे एक षड्यंत्र है और इसमें वे ही लोग शामिल हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था. पुलिस को यह पटकथा उसके राजनीतिक आकाओं ने दी और जांच एजेंसियों ने इसे कहानी के रूप में विकसित किया है.

New Delhi: Tight police security at the Jawaharlal Nehru University (JNU), in New Delhi, Monday, Jan. 6, 2020. A group of masked men and women armed with sticks, rods and acid allegedly unleashed violence on the campus of the University, Sunday evening. (PTI Photo/Atul Yadav) (PTI1_6_2020_000044B)
(फोटो: पीटीआई)

दिल्ली में एक षड्यंत्र रचा जा रहा है- षड्यंत्र की कहानी गढ़ने के लिए.

जिस कल्पित कथा में दिल्ली पुलिस इस बात पर यकीन करने को कह रही है वह यह है कि फरवरी के अंत में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के पीछे एक षड्यंत्र है और इस षड्यंत्र में वे ही लोग शामिल हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में हुए प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था.

उनमें से कुछ को पहले ही कैद कर लिया गया है और बताया जा रहा है कि निकट भविष्य में और भी गिरफ्तारियां होंगी. गिरफ्तार लोगों में युवा छात्र, अधिकतर महिलाएं और मुसलमान कार्यकर्ता हैं. उन पर दंगे भड़काने, हत्या के  प्रयत्न या हत्या जैसे गंभीर आरोप लगाए गए हैं.

कुछ पर तो गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून (यूएपीए) जैसा कठोर कानून थोप दिया गया है. जांच एजेंसियों का मत है कि ये वही हैं जिन्होंने उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा को शुरू कराने का षड्यंत्र रचा और सीएए विरोधी प्रदर्शन इस षड्यंत्र का बस एक आवरण था.

पुलिस को इस कथा की पटकथा उसके राजनीतिक आकाओं ने दी है. संसद में सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों ने बयान दिया था कि ‘यूनाइटेड अगेंस्ट हेट’ जैसे संगठन और उमर खालिद जैसे लोग हिंसा को भड़काने के लिए जिम्मेदार हैं. हर्ष मंदर के भाषण की क्लिप का इस्तेमाल करके उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने हिंसा का आह्वान किया.

जांच एजेंसियों ने इस पटकथा को कहानी के रूप में विकसित किया और पटकथा के अनुरूप पात्रों को ढूंढ लिया और अब न्यायालय और जनता को इस कहानी पर यकीन कराने का प्रयास कर रही है.

पर ऐसे दौर में भी, कम से कम एक सत्र न्यायालय ने इस पटकथा की तह में देख सकने की क्षमता को बरकरार रखा और पुलिस को चेताया भी कि उनके द्वारा की गई जांच-पड़ताल एकतरफा है.

इस जांच-पड़ताल का षड्यंत्रकारी सिद्धांत भीमा-कोरेगांव हिंसा की जांच में इस्तेमाल किये गए तरीके की याद दिलाता है जिसके तहत घटना में दलितों के साथ हुई हिंसा को सार्वजनिक स्मृति से पूरी तरह मिटा दिया गया है.

हिंसा के अभियुक्त बेरोक-टोक घूम फिर रहे हैं, वहीं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है जिनका इस घटना से कोई संबंध नहीं है. जांच एजेंसियों का दावा है कि इन्होंने ही षड्यंत्र रचा और हिंसा करवाई.

तो इस तरह पूरी घटना की सच्चाई को सिर के बल खड़ा कर दिया गया. हिंसा के वास्तविक कृत्य को भुला दिया गया और उसकी जगह हिंसा की झूठी कहानी का आख्यान और प्रधानमंत्री की हत्या की कल्पित योजना से बुद्धिजीवियों के जुड़ाव की बातें फैला दी गईं.

जांच एजेंसियां अच्छी तरह जानती हैं  हैं कि वे क्या कर रही हैं. दिल्ली हिंसा के मामले में भी ‘जांच’ की इसी पद्धति का प्रयोग हुआ है.

Delhi Riots Arrests
दिल्ली हिंसा की साज़िश रचने के आरोप में गिरफ्तार हुए छात्र मीरान हैदर, देवांगना कलीता, नताशा नरवाल, सफूरा जरगर और आसिफ तन्हा. (बाएं से दाएं)

फरवरी महीने में हुई हिंसा में लगभग 60 लोग मार दिए गए, इसके कहीं अधिक लोग घायल हुए, बहुत सारे घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को जला कर बर्बाद कर दिया, कई मस्जिदों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त और खंडित कर दिया गया. इसमें हिंदुओं की भी क्षति हुई लेकिन यह बात स्पष्ट है कि हिंसा में एक मुसलमान विरोधी स्पष्ट स्वर था.

देश-विदेश के पत्रकारों और विश्लेषकों ने गौर किया एक भी मंदिर को क्षति नहीं हुई जबकि मस्जिदों को बर्बरता से निशाना बनाया गया. एक युवा मित्र ने कहा कि जिस तरह से मस्जिदों और कुरान की प्रतियों को जलाया गया, जो मुसलमानों की भावनात्मक अस्मिता का हिस्सा है, वह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि मुसलमानियत को किस तरह से निशाना बनाया गया है.

वैसे शुरूआती घंटों के हमलों में हिंदू और मुसलमानों दोनों को नुकसान पहुंचा, लेकिन बहुत जल्द ही यह साफ हो गया कि हिंसा का लक्ष्य मुसलमान, उनकी आजीविका, संपति और उनके प्रतीक हैं.

बहुत-सी घटनाओं में पुलिस की हिस्सेदारी और इसका मुसलमानों के खिलाफ  पक्षपाती रवैया भी दिखा. कई मामलों में घायल मुसलमानों को चिकित्सीय सहायता पहुंचाने से इनकार कर दिया गया जान-बूझकर उन तक सहायता ही नहीं पहुंचने दी गई.

आधी रात में दिल्ली उच्च न्यायालय में दस्तक देने और इसके आदेश के बाद ही घायलों को हिंसा स्थल से बाहर निकालने के लिए पुलिस तैयार हुई.

इस हिंसा का एक और रूप उन विरोध स्थलों पर हमला और तोड़-फोड़ करना था जिस जगह पर दिसंबर के बाद से ही लगभग दो महीने से बैठकर मुस्लिम औरतें विरोध प्रदर्शन कर रही थीं, जो शाहीन बाग से प्रेरित था. इन विरोध प्रदर्शनों के लोकप्रिय नारों में से एक था ‘आजादी’ शब्द और उसके लिए आकांक्षा भी.

उन पर हमलों के दौरान मुसलमानों को, महिलाएं भी जिसमें शामिल थीं, ‘आजादी चाहते थे ना, लो अब हम तुम्हें दे रहे आजादी’… कुछ नौजवानों को मारते हुए पुलिस ये कह रही थी जिसको फिल्माया भी गया था. ये सब सार्वजनिक रूप से दर्ज हैं.

शारीरिक हिंसा से पहले सीएए विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ उकसाने वाले नारों के जरिए उसकी जमीन तैयार की गई थी. प्रधानमंत्री प्रदर्शनकारियों को उनके कपड़ों से पहचानना चाहते थे. उन्होंने जिस तरह शाहीन बाग के प्रदर्शन को अपने ज़हरीले अंदाज़ में ‘प्रयोग’ कहा, उससे वह उनकी जनता को षड्यंत्र सुनाई पड़ा.

दिल्ली के लोगों को शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को एक करारा जवाब देने के लिए प्रेरित किया गया. एक केंद्रीय मंत्री ने अपने समर्थकों से नारा लगवाया कि ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो *** को.’ सत्तारूढ़ दल  के एक वरिष्ठ सांसद ने हिंदुओं को यह दावा करते हुए डराया कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों में बलात्कारी और आतंकवादी छुपे हुए हैं.

कह सकते हैं कि नए नागरिकता कानून का विरोध करने वालों के खिलाफ हिंसा करने के लिए एक मनोवैज्ञानिक तैयारी की गई थी. प्रदर्शनकारियों में अधिकतम मुसलमानों की मौजूदगी के इस तथ्य ने इस काम को और आसान बना दिया.

बीते सालों मे हिंदुत्ववादी संगठनों ने साधारण हिंदुओ तक भी इस विचार को पहुंचा दिया है कि अकेला मुसलमान भले ‘अच्छा’ हो, पर संगठित मुसलमान अनिवार्यत: खतरनाक है. लोग इस बात पर हैरान थे कि दिल्ली में बिना शहर की दिनचर्या बाधित किए सैकड़ों-हजारों औरतों का बीस से अधिक जगहों पर दो महीने से अधिक प्रदर्शन चल रहा था.

ऐसा स्वतंत्र भारत में पहली बार हुआ था कि ‘संविधान की प्रस्तावना’ लोगों के विरोध का प्रतीक और तिरंगा प्रदर्शनकारियों का झंडा बना. प्रदर्शनों में एक रूमानियत थी, उनका स्वभाव आमंत्रित करने वाला था और जड़ें समुदाय में थीं. उनमें थोड़ी अव्यवस्था और योजनाहीनता जरूर थी, पर वे ज्यादातर उल्लास से भरे थे.

युवा मुस्लिम औरतों का बढ़-चढ़कर आगे आना भी इस प्रदर्शन को अद्वितीय बनाता है. यह सच है कि उनमें से अधिकतर मुसलमान थे पर वे चाहते थे कि दूसरे लोग भी उनकी चिंता को समझें और उनके साथ जुड़ें.

इस सबके बीच प्रदर्शनकारियों को हिंदू विरोधी और देश विरोधी घोषित करने का कानाफूसी अभियान भी चल रहा था. इसके जरिये यह आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा था कि मुसलमान पड़ोसी मुस्लिम देशों में यातना सह रहे हिंदुओ को नागरिकता दिए जाने के विरुद्ध क्यों हैं.

यह सीएए विरोधी प्रदर्शनों के मांग को बिल्कुल विकृत करके पेश करना था लेकिन मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपने सतत प्रोपगैंडा के जरिए इसको तोड़-मरोड़ कर प्रसारित करता रहा. विपक्षी पार्टियां इस कानून को लागू होने से रोक सकने में असमर्थ रहीं. संसदीय की कार्यवाही में मिली हार के बाद वे आम लोग ही थे जो इसके विरोध में खड़े हुए थे.

New Delhi: Protestors participate in a demonstration against Citizenship (Amendment) Act and NRC at Shaheen Bagh in New Delhi, Friday, Jan. 10, 2020. The Delhi High Court today refused to entertain a plea seeking directions for removal of demonstrators in order to clear road blockages that are causing traffic congestions at the DND route. (PTI Photo/Vijay Verma) (PTI1_10_2020_000225B) *** Local Caption ***
शाहीन बाग में बैठी महिला प्रदर्शनकारी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार और दिल्ली में पुलिस ने उसे क्रूरता से कुचल दिया. उत्तर प्रदेश में लगभग बीस लोग मारे गए. यह स्थिति तब और भयावह हो गई जब पुलिस ने हत्या की जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया. जिसका अर्थ यह निकला कि प्रदर्शनकारी अपनी मौत के ज़िम्मेदार खुद थे.

पुलिस ने बड़ी क्रूरता से जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रदर्शनकारी छात्रों पर हमला किया. सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह न तो हस्तक्षेप करेगा और न उसका इरादा हिंसा रोकने का है.

उससे भी बुरा यह जानना था कि पीड़ितों की सुनवाई तभी होगी जब वे सड़कों को खाली कर देंगे. इससे संकेत लेकर सरकार ने जल्द ही प्रदर्शन को ही अवैध घोषित कर दिया और यह समझ बनाई गई कि लोगों को उस कानून के विरुद्ध प्रदर्शन करने का कोई अधिकार नहीं जिसको संसद ने मान्य कर दिया हो.

अगर आप सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे हैं तो आप स्वाभाविक रूप से उनके भी विरुद्ध हैं जिन्होंने इस सरकार को चुना हैं. सरकार ने यह दावा किया कि वे केवल वही जनता की इच्छा का वही प्रतिनिधित्व करती है.

इस मौके पर शाहीन बाग सामने आया. मुस्लिम औरतों ने सड़क के हिस्से को घेरकर धरना शुरू किया. यह बेहद जैविक था और इसकी अगुवाई महिलाएं कर रहीं थीं. युवा मुस्लिम औरतों ने सारा कार्यभार और संचालन संभाला था. बहुत जल्द शाहीन बाग एक उदाहरण बन गया था.

दिल्ली के और कई हिस्सों फैलने के साथ-साथ देशभर के कस्बों और गांवों में इसकी गूंज मिलने लगी थी. सरकार को समझ नहीं आ रहा था कि इसको संभाला कैसे जाए तो उन्होंने षड्यंत्र के कहानी की रची कि मुस्लिम औरतें तो सिर्फ ‘खतरनाक’ मुस्लिम पुरुषों की छुपाने का जरिया हैं. उनके पीछे माओवादी, मार्क्सवादी और ‘अर्बन नक्सल’ समूह भी हैं .

इस कानाफूसी अभियान को खुले तौर से काम करने का अवसर चुनाव प्रचार के बहाने मिला. भाजपा ने यह भी आरोप लगाया कि करने का प्रयास किया कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल इन प्रदर्शनों के पीछे हैं.

इसका नतीजा यह हुआ कि केजरीवाल ने शाहीन बाग से खुद को दूर कर लिया और केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वे प्रदर्शन को चलते देना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि अगर पुलिस उनके अधीन होती तो वे शाहीन बाग को दो दिनों में खाली करवा देते.

मुख्यधारा की विपक्षी पार्टियों ने इस पर शांत रहना तय किया और सोचा कि अगर वे प्रदर्शनों की तरफदारी करेंगे तो हिंदू उनकी पार्टी से दरकिनार हो जाएंगे. इस सबने शाहीन बाग प्रदर्शनकारियों को अलग-थलग करने में भाजपा की मदद की.

ऐसा नहीं था कि वे अकेले पड़ गए थे. महिला अधिकारों, दलित अधिकारों और मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले अलग-अलग संगठन उनके साथ जुड़े थे. उनके जुड़ाव को भी अर्बन नक्सल और ‘जिहादियों’ का भयावह गठजोड़ कहकर प्रचारित किया गया.

धीरे-धीरे, प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध हिंसा के आह्वान भी किया जाने लगा. एक विचित्र नारा सुनने में आया ‘मोदी जी लठ्ठ बजाओ,हम तुम्हारे साथ हैं.’ और फिर बाद में सुना गया ‘दिल्ली पुलिस लठ्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.’

मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सड़क और राज्य की ताकत का विलय हो गया. इसी पृष्ठभूमि में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा शुरू हुई. इस हिंसा की उचित जांच-पड़ताल होनी चाहिए.

हिंसा का विमर्श, जिसे सुनियोजित तरीके से उन लोगों ने फैलाया जो सीएए विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ थे और हिंसा के वास्तविक कृत्यों के बीच की कड़ी को समझना चाहिए.

पर जांच एजेंसियां युवा छात्रों, अधिकतर महिलाओं को गिरफ्तार करके इस जांच को उल्टी दिशा में ले जा रही हैं और उन्हें झूठ के दम पर पुलिस की कल्पित कहानी के पात्रों के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

(मूल अंग्रेज़ी लेख से आदर्श द्वारा अनूदित)