जब विरोध होता है तो व्यवस्था की ओर से उपदेश दिया जाता है कि संवाद की स्थितियां बनानी चाहिए. यह बोझ भी प्रदर्शनकारियों पर ही डाल दिया जाता है कि वे संवाद कायम करें. क्या शोषण तर्क और संवाद के सहारे चलता है? विरोध से अराजकता फैलने का आरोप लगाते समय लोग भूल जाते हैं कि जो विरोध करने को बाध्य हुए हैं, उनके जीवन में अराजकता के अलावा शायद ही कुछ है.
पूरे अमेरिका में विरोध प्रदर्शन जारी हैं. राष्ट्रपति भवन के सामने भी प्रदर्शनकारी इकट्ठा हुए. दुनिया को दिखलाने के लिए कि व्हाइट हाउस की सड़क पर उनका कब्जा है और वे इस पर चल सकते हैं, उनकी पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस छोड़ी और रास्ता खाली करवाया.
इसके बाद इस सड़क को पारकर सामने के गिरजाघर के सामने बाइबिल हाथ में लेकर राष्ट्रपति ट्रम्प ने फोटो खिंचवाई. उस ट्रम्प ने जिन्होंने प्रदर्शनों को सख्ती से कुचलने की धमकी दी- ‘लूट शुरू होगी तो शूटिंग शुरू होगी.’ चर्च के वरिष्ठ अधिकारियों और धर्मगुरुओं ने ट्रम्प की सख्त आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने चर्च का गलत इस्तेमाल किया.
शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने इसलिए कार्रवाई की ताकि राष्ट्रपति एक सुंदर तस्वीर खिंचवा सकें, इस बात की चारों तरफ और चर्च के नेतृत्व के द्वारा आलोचना हो रही है. उन सबने मारे गए व्यक्ति के साथ एकजुटता व्यक्त की और विरोध प्रदर्शनों के प्रति भी समर्थन जताया.
हम याद कर लें कि ये राष्ट्र्व्यापी प्रदर्शन सिर्फ एक व्यक्ति की ‘मौत’ के बाद किए जा रहे हैं. वह भी एक काले अफ्रीकी अमेरिकी की ‘मौत’ के खिलाफ. हिंदी मीडिया अब तक इस मौत को हत्या नहीं कह पाया है. लेकिन प्रदर्शनकारी अमेरिकी इस मौत को मौत नहीं, बल्कि हत्या कह रहे हैं.
वे इसे सिर्फ एक पुलिस अधिकारी की निजी क्रूरता का नतीजा बता भर नहीं रहे, वे इसे अमेरिकी दिमाग में गहरे जड़ जमाए बैठी नस्लवादी हिंसा का नतीजा बता रहे हैं. यह घृणा और हिंसा संरचनात्मक है. यह एक ‘बुरे’ पुलिस अधिकारी तक सीमित नहीं है. यह सिर्फ पुलिस तंत्र में सुधार का मामला नहीं है.
अमेरिकी प्रतिष्ठान हमेशा ही ‘अमेरिकी जीवन पद्धति’ की शान बघारता है और धमकी देता है कि जो भी इसे चुनौती देगा, वह उसे नहीं छोड़ेगा. वह पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटता है, एक के बाद दूसरे मुल्क को इसका सबक सिखलाने का हक जताता है, लेकिन अपने गिरेबान में झांकने को उसे वक्त नहीं मिलता.
वह जनतंत्र और समानता का उपदेशक है, लेकिन खुद इन उसूलों को धता बताकर जीता जाता है.
पिछले एक हफ्ते से सिर्फ एक ‘दुर्भाग्यपूर्ण मौत’ नहीं, बल्कि इस ‘अमेरिकी जीवन पद्धति’ के खिलाफ अमेरिका के हर कोने में कैलिफोर्निया से लेकर पेंसिलविनिया तक, फिलाडेल्फिया, अटलांटा, लॉस वेगास, न्यूयॉर्क, न्यू हेवेन, डेनवर समेत तकरीबन 140 शहरों में प्रदर्शन दूसरे हफ्ते भी जारी हैं.
इन सारे प्रदर्शनों का नारा है- ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ यानी काली जिंदगियां मायने रखती हैं. वे सफेद लोगों के पूर्वाग्रहों और उनकी अपनी श्रेष्ठता के अहंकार की हिंसा का शिकार होने को मजबूर नहीं.
अमेरिकी जीवन पद्धति का मतलब यही है कि हमेशा ही एक काले जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन कोई एक सफेद पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन अपने घुटनों से दबाना मुनासिब बर्ताव समझेगा.
कोई एक गोरी औरत एक काले व्यक्ति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना अपना हक समझेगी जो उससे सिर्फ अपने कुत्ते को पट्टा पहनाने के लिए कह रहा हो क्योंकि उस कुत्ते से उसे डर लग रहा है. गोरे लोग अपने इलाके में दौड़ लगा रहे किसी काले आदमी को गोली मार दें क्योंकि उन्हें उससे डर लगा रहा था, जो उनके लिए अत्यंत स्वाभाविक माना जाता है.
आखिर बेचारे एक गोरे आदमी को दौड़ लगाता हुआ एक काला व्यक्ति हमलावर जान ही पड़ सकता है और वह इस डर के चलते अगर उस पर गोली चला दे तो वह आत्मरक्षा है, हत्या नहीं! यह ‘स्वाभाविक’ भय और पूर्वाग्रह नस्लवाद है. यह अमेरिकी जीवन पद्धति को परिभाषित करता है, लेकिन छिपा हुआ रहता है.
सवाल सिर्फ इसका नहीं है कि कैसे गोरे पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन एक गरीब काले जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन को अपने घुटने से दबाता जाता है, पूरे नौ मिनट तक और आप देख सकते हैं कि वह फ्लॉयड की घुटी हुई चीख ‘मैं सांस नहीं ले पा रहा’ सुनते हुए जब वह यह कर रहा है तो उसका चेहरा भावहीन है.
यह पेशेवराना निर्विकारता नहीं है, यह कालों के खिलाफ मन में जमी हुई हिंसा है. यह एक व्यक्ति तक सीमित अपवाद इसलिए नहीं है कि तीन और गोरे पुलिस अधिकारी अपने साथी को ऐसा करने देने के लिए घेरा बनाकर खड़े थे.
सवाल सिर्फ इस हत्या का भी नहीं है. यह पूछा जा रहा है कि आखिर इस महामारी के दौर में जॉर्ज फ्लॉयड को सिर्फ बीस डॉलर की ‘धोखाधड़ी’ के लिए गिरफ्तार करना पुलिस को क्यों जरूरी लगा? उसे खूब मालूम था कि यह गरीबी की बेबसी थी कोई जुर्म नहीं! यह गिरफ्तारी ही क्यों?
इसलिए अमेरिका में जो क्रोध सड़कों पर फूट पड़ा है वह भीतर ही भीतर उबल रहा लावा है- क्यों इस महामारी में ज्यादातर मौतें काले अफ्रीकी अमेरिकियों की हुई हैं? क्यों नर्स उनमें बीमारी के लक्षणों पर भरोसा नहीं कर रहीं और क्यों उन्हें अस्पताल में दाखिल नहीं किया जा रहा, क्यों यह मान लिया गया है कि संक्रमित होने के लिए और अपनी मौतों के लिए वे ही जिम्मेदार हैं?
न्यूयॉर्क में शारीरिक दूरी के नियम का पालन करवाने और कोरोना वायरस से जुड़े कायदों को लागू करने के नाम पर हुई गिरफ्तारियों में 93% संख्या कालों की है! यह सब संयोग नहीं नस्लवाद है जो अनिवार्यतः कालों के खिलाफ है.
इसका मतलब है संरचनात्मक गैर बराबरी- सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संसाधनों के मामले में उनके साथ भेदभाव और उन्हें कमतर इंसान और इसलिए कमतर अमेरिकी मानना. इसका मतलब यही है कि अमेरिकी राज्य न सिर्फ इस अन्याय को रोक नहीं पा रहा, बल्कि वह इसमें शामिल है.
उसकी सारी पद्धतियां इस अन्याय को अदृश्य करके एक सार्वजनिक नियम बनाने के लिए लगातार काम करती रहती हैं. अमेरिकी जीवन पद्धति का पारिभाषिक तत्व यही है. अमेरिका में हो रहा विरोध इसके खिलाफ है.
इस पद्धति को बदलना ही चाहिए, यह मांग इस विरोध प्रदर्शन की है.प्रायः तो वह शांतिपूर्ण है, लेकिन तोड़फोड़ हुई है, आगजनी और लूटपाट भी हुई है, लेकिन इसे हिंसा कहकर इस विरोध प्रदर्शन को बदनाम करने के पहले यह सोचना चाहिए कि जो हिंसा रोजाना, नियमित रूप से काली आबादी झेलती आ रही है, उन दोनों में क्या तुलना है?
हिंसा किसी भी विरोध प्रदर्शन की वैधता खत्म कर देने का बहाना बना ली जाती है. उसे असहनीय बताया जाता है और उसको रोकने की मजबूरी जाहिर की जाती है क्योंकि सामान्य जीवन का अधिकार सबको है.
कहा जाता है कि विरोध करने का हक जरूर आपको है, लेकिन दूसरों के जीवन को बाधित करने का अधिकार आपका नहीं. राज्य इस सामान्यता को बहाल करने के लिए विरोध करने वालों के खिलाफ हिंसा को फिर जायज ठहराता है.
विरोध प्रदर्शन लेकिन इसी सामान्यता और शांति को विचलित करने के लिए किया जाता है. उससे यह कहना कि वह अव्यवस्था न पैदा करे, जीवन को हस्बेमामूल चलने दे और सिर्फ अपनी बात कहे, सार्वजनिक रूप से दर्ज कराए एक धोखे की बात है.
विरोध इस व्यवस्था के ही खिलाफ तो है- क्यों वह पीड़ा, अपमान, भेदभाव और हिंसा सिर्फ एक आबादी के हिस्से है, क्यों सिर्फ वही बेचैन है और क्यों यह दूसरों को उस सीमा तक व्यग्र नहीं करती कि वे इस व्यवस्था के अंत की बात करें?
जब विरोध होता है तो व्यवस्था की ओर से उपदेश दिया जाता है कि संवाद की स्थितियां बनानी चाहिए. यह बोझ भी प्रदर्शनकारियों पर ही डाल दिया जाता है कि वे संवाद कायम करें. लेकिन वे तो यही चाहते रहे हैं न कि उनसे बराबरी का बर्ताव किया जाए?
लेकिन यह समानता वायवीय इच्छा मात्र नहीं. इसके लिए व्यवस्था की औपचारिक प्रक्रियाओं को जवाबदेही से काम करना होता है. संवाद की याद व्यवस्था को कब आती है?
भगत सिंह और उनके साथियों ने जब असेंबली में बम फेंका, तो मोतीलाल नेहरू ने उसकी बिना शर्त निंदा करने से इनकार कर दिया. इस पर लॉर्ड इरविन ने उनकी आलोचना की. कहा कि हिंसा नहीं, तर्क और संवाद श्रेय है.
जवाहरलाल नेहरू ने इरविन को जवाब देते हुए पूछा कि ब्रिटिश हुकूमत क्या भारत में तर्क और संवाद के बल पर टिकी हुई है? क्या उसकी फौज भारतीय जनता से तर्क और संवाद करने के लिए यहां रखी गई है?
क्या शोषण तर्क और संवाद के सहारे चलता है? जो शोषण करता है मेरे श्रम और संसाधन का, वह मुझसे तर्क करके यह करता है? फिर यह समाप्त कैसे होगा?
अन्याय है यह, यह शांतिपूर्ण ढर्रे पर चल रही व्यवस्था को बताना और उसे खत्म करने को राजी करना आसान नहीं है. यह बताने में अन्याय सहने वालों का ही खून बहता है और फिर व्यवस्था ही चिल्लाती है, ‘अरे खून!’
इसलिए संवाद अपने आप नहीं होता. उसके लिए किसी न किसी तरह का तनाव पैदा करना पड़ता है जिससे उबरने के लिए रास्ते तलाशे जाते हैं. व्यवस्था को पहले दमन ही रास्ता सूझता है और जब वह सफल नहीं होता तो बहुत बाध्यता में संवाद किया जाता है.
प्रतिरोध की कविताएं सुंदर होती हैं, लेकिन प्रतिरोध का सौंदर्य सुकून देने वाला नहीं होता, वह भीषण का ही सौंदर्य होता है. उससे आपको अपना रिश्ता बनाना पड़ता है. आपका रिश्ता क्या दर्शक का है, भले ही सहानुभूतिशील दर्शक का या भागीदार का है?
क्या आप सिर्फ उसका विश्लेषण करते हैं सुरक्षित दूरी के साथ या उसकी आंच भी आपको लगती है? वक्त का भी सवाल है? क्या विरोध करने वालों को इस महासंक्रमण की फिक्र नहीं करनी चाहिए थी? क्या उन्हें अपने संकीर्ण सामुदायिक स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक देश के स्वास्थ्य की चिंता नहीं करनी चाहिए थी?
ये सारे सवाल किए जाते हैं प्रतिरोध को गैर जिम्मेदार ठहराने के लिए. यह भी कहा जाता है कि विरोध से अराजकता फैलती है, लेकिन आरोप लगाते समय लोग भूल जाते हैं कि जो विरोध करने को बाध्य हुए हैं, उनके जीवन में अराजकता के अलावा शायद ही कुछ है. शांति, सुख, सम्मान उनके लिए नियम नहीं हैं, संयोग हैं.
पुलिस वाले के घुटने के नीचे नियमतः एक काली गर्दन ही होगी, सफेद नहीं. गलतफहमी में पड़ोसी प्रायः एक काले को ही मार डालेंगे और गरीबी उन्हीं की नियति होगी. किसी एक ओबामा के राष्ट्रपति होने का अर्थ यह नहीं कि अमेरिका का नेतृत्व करने का कालों का अधिकार स्वाभाविक मान लिया गया है.
समाज में एक अदृश्य संकट के कारण ही विरोध सड़क पर आता है. वह विरोध संकट पैदा करने के लिए ही किया जाता है, इसमें कोई दुराव-छिपाव की बात नहीं.
विरोध की कार्रवाई पर इस तरह का इल्जाम लगाने वालों को मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 1963 के बर्मिंघम के विरोध प्रदशनों के संदर्भ में कहा, ‘आप बर्मिंघम के विरोध प्रदर्शनों की निंदा करते हैं, लेकिन मुझे कहते दुख होता है कि आपके वक्तव्य में उन स्थितियों को लेकर उतनी ही चिंता नहीं जाहिर की गई है… यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि शहर के गोरे सत्ता तंत्र ने नीग्रो समुदाय के सामने और कोई रास्ता नहीं छोड़ा.
‘लीफलेट’ में लिखे अपने एक लेख में प्रतीक पटनायक ने इस प्रसंग में डॉक्टर किंग को उद्धृत किया है, ‘आप पूछ सकते हैं, ‘सीधी कार्रवाई क्यों? क्यों धरने, जुलूस वगैरह? संवाद की आपकी बात बिलकुल दुरुस्त है. बल्कि इस सीधी कार्रवाई का मकसद यही है. हमारी इस सीधी कार्रवाई का उद्देश्य है इतनी संकटपूर्ण स्थिति पैदा करना कि वह संवाद के लिए दरवाजा खोल डाले. बहुत ज्यादा ही वक्त तक हमारे प्यारे साउथलैंड को संवाद की जगह एकालाप में जीने के त्रासद प्रयास ने दबा रखा है.’
डॉक्टर किंग गिरफ्तार कर लिए गए थे. आखिरकार उनकी हत्या ही हुई. न्याय आधारित शांति की मांग का जवाब प्रायः शांतिपूर्ण नहीं होता. आज अमेरिका में जो विरोध का ज्वार उठा है उसका एक सिरा इतिहास में 1963 और न जाने कितने और ऐसे काल बिंदुओं से जुड़ा है!
यह जरूर जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के खिलाफ है, लेकिन यह उस तंत्र के विरुद्ध है जिसका प्रतिनिधि डेरेक चाउविन है. वे पुलिस अधिकारी जो इन विरोध प्रदर्शनों के साथ हैं, जो उनके प्रति नरमी बरत रहे हैं और अनेक जनप्रतिनिधि भी जानते हैं कि यह सब कुछ सतही होगा अगर श्वेत श्रेष्ठता के अहंकार का स्वभाव न बदले और समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक मायने न दिए जाएं.
क्या यह अंत में नहीं कहना चाहिए कि अमेरिका में चल रहा विरोध प्रदर्शन भारतवासियों के लिए आईना है और चुनौती भी!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)