पुलिस की बर्बरता से हम सभी को फ़र्क़ पड़ना चाहिए, भले ही निजी तौर पर हमारे साथ ऐसा न हुआ हो. ये हमारी व्यवस्था का ऐसा हिस्सा बन चुका है, जिसे बदलना चाहिए और पूरी ताक़त से मिलकर ज़ाहिर की गई जनभावना ही ऐसा कर सकती है.
एक वैश्विक महामारी और लॉकडाउन के बीच हजारों अमेरिकी मिनेसोटा में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरोध में शहरों की सड़कों पर उतर आए हैं. सोशल डिस्टेंसिंग और होम क्वारंटीन के नियमों की परवाह किए बगैर वे- काले, गोरे, एशियाई और अन्य- पुलिस के नस्लभेद, जो अमेरिका में किसी रोग से कम कम नहीं है, के खिलाफ अपने गुस्से और आक्रोश को व्यक्त करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर चल पड़े.
मिनीपोलिस में एक अफ्रीकी-अमेरिकी सुरक्षा गार्ड फ्लॉयड की मौत उसे गिरफ्तार करते वक्त हो गई, जब एक पुलिसकर्मी ने अपने घुटने से उसका गर्दन दबा दिया. एक हट्टे-कट्टे पुलिस वाले के कुछ मिनटों तक फ्लॉयड की गर्दन पर घुटनों के बल बैठे हुए वीडियो ने सोशल मीडिया पर लोगों को काफी आक्रोशित कर दिया, जिसमें फ्लॉयड को यह कहते भी सुना जा सकता है कि वह सांस नहीं ले पा रहा है.
ख़बरों के मुताबिक़ चार पुलिस अधिकारियों ने कार में सवार फ्लॉयड को रोका था. उनका दावा है कि उसने ‘गिरफ्तारी का विरोध’ करने की कोशिश की थी. फ्लॉयड के गर्दन पर घुटने के बल पर बैठे पुलिस वाले को गिरफ्तार कर लिया गया है और उस पर हत्या का मामला दर्ज किया गया है.
तीन अन्य जो इस घटनाक्रम के दौरान वहां मौजूद थे और जिन्होंने यह सब होते हुए देखा, उन पर अभी तक आरोप निर्धारित नहीं किया गया है, हालांकि उन्हें बर्खास्त कर दिया गया है.
अमेरिका में काफी व्यापक पैमाने पर संपत्ति की लूटपाट और आगजनी हुई है और विरोध प्रदर्शनों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस की हिंसा की खबरें आई हैं. मीडिया में दंगाकालीन विशेष परिधान पहने हुए, डरे हुए चेहरे वाले पुलिसकर्मियों की तस्वीरों की भरमार है और खबरों के मुताबिक मिनीपोलिस ने दंगों पर काबू पाने के लिए नेशनल गार्ड की मदद ली है.
फ्लॉयड की हत्या ने अमेरिकी के विभिन्न हिस्सों में पुलिस द्वारा अफ्रीकी अमेरिकियों के खिलाफ प्रणालीबद्ध और गैर-आनुपातिक हिंसा को लेकर एक फिर से एक नई बहस को जन्म दे दिया है. आई कांट ब्रीद [#Ican’tbreathe] का हैशटैग सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है. इसी बीच राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ ट्वीट करके उन्हें ठग कहा और उन पर गोली दागने की धमकी दी.
भारत में हम सब पुलिस द्वारा बेवजह पिटाई, हिरासत में होने वाली मौतों और राज्य की खुलेआम हिंसा को लेकर राजनेताओं की उदासीनता से वाकिफ हैं. हाल के समय में नागरिकों के खिलाफ पुलिस की हिंसा की कई घटनाएं कैमरे पर कैद हुई हैं और उनका प्रसार हुआ है.
ये सोशल मीडिया पर गुस्से को जन्म देती हैं. जॉर्ज फ्लॉयड के साथ जिस तरह का बर्ताव किया गया, उससे मिलती-जुलती घटनाएं भारत में काफी आम हैं. लेकिन फिर भी भारत में होने वाली प्रतिक्रिया काफी अलग है.
पुलिस की विद्वेषपूर्ण बर्बरता, जो अक्सर सांप्रदायिक प्रकृति की होती है, हमें सड़कों पर उतारने के लिए काफी नहीं होती हैं. जबकि अमेरिका के प्रमुख शहरों में हजारों लोग सड़कों पर आ गए हैं, भारत में एक पुलिस वाले द्वारा एक लाचार व्यक्ति की बेवजह पिटाई पूरे भारत को झकझोर नहीं पाती. कोई भी सार्वजनिक तौर पर इसका विरोध नहीं करता.
इसका अच्छा उदाहरण दिल्ली हिंसा के दौरान सामने आया एक पुलिस वाले द्वारा चार मुस्लिम युवकों की पिटाई का वीडियो है. इनमें से एक फैजान की बाद में मौत हो गई. यह एक दिल पिघला देने वाला वीडियो था, लेकिन ऐसे अन्य वीडियो की तरह, थोड़ी देर ट्विटर और फेसबुक पर रहने के बाद यह लोगों के जेहन से उतर गया.
अमेरिका जैसे प्रदर्शन में दिखाई दे रहे हैं, वैसे प्रदर्शनों की बात तो दूर रही, इसने किसी राष्ट्रीय आक्रोश को जन्म नहीं दिया. भारत में पुलिस वाला- चाहे वह कॉन्स्टेबल हो या अधिकारी- खुद अपने आप में कानून है. अंजाम से डरे बगैर लोगों की पिटाई करना यहां आम बात है.
कोई बड़ा अधिकारी उससे सवाल नहीं पूछेगा. कोई राजनेता उससे जवाब मांगने वाला नहीं है और नागरिक भी इसे स्वीकार कर लेंगे. वास्तव में कई भारतीय पुलिस से सहमत होंगे, यहां तक कि उनके आचरण की तारीफ करेंगे.
पुलिस की बर्बरता भले अमेरिका में बड़ा मसला हो, लेकिन भारत में यह कोई मुद्दा ही नहीं है. हालांकि अमेरिकी शहरों में पुलिस विभागों की सफाई की कोशिशें कोई अंतर लाने में नाकाम रही हैं, मगर इस बात की गुंजाइश काफी कम है कि आम जनता हिरासत में एक व्यक्ति की हत्या की तारीफ करेगी.
1980 के दशक में, ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ अपराधियों को कानून के हवाले करने की जगह उनको मौत के घाट उतार देने के कारण मुंबई के हीरो बन गए. एनकाउंटरों में संदिग्ध नक्सलियों को, खासकर शहरी केंद्रों में गोली मारने की खबर नागरिकों को परेशान नहीं करती है.
मध्यप्रदेश पुलिस द्वारा ‘जेल से भागनेवाले’ सिमी के आठ संदिग्ध सदस्यों को गोली मारने की घटना, जो संभवतः एक फर्जी एनकाउंटर था, ने गंभीर सवाल पैदा किए, मगर राज्य के गृहमंत्री ने इसकी प्रशंसा की. लोकप्रिय संस्कृति भी इसमें अपनी भूमिका निभाती है.
भारतीय फिल्मों को पुलिस हिरासत में संदिग्धों को यंत्रणा देते दिखाने में कोई झिझक नहीं होती, बल्कि वे इसका समर्थन करते दिखते हैं, जबकि नियम इसके खिलाफ है. यह इतनी आसानी से हॉलीवुड की फिल्मों में नहीं दिखाई देगा, भले ही वास्तविक जीवन में ऐसा निश्चित तौर पर हो रहा हो.
मध्यवर्ग खासतौर पर शहरों में रहने वाले मध्यवर्ग को पुलिस का जो अनुभव है वह गरीब या अल्पसंख्यक को होने वाले अनुभव से अलग है. एक जान-पहचान और पहुंच रखने वाला नागरिक शायद ही कभी एक शत्रुतापूर्ण पुलिस वाले का सामना करेगा, जबकि निचले आर्थिक तबके से आने वाले व्यक्ति का यह अनुभव नहीं है.
इसलिए मध्यवर्ग का निकलकर सड़कों पर आने का कोई कारण नहीं है और अगर गरीब ऐसा करते हैं- जैसा कि हमने शहरों से गांवों की ओर बड़े पैमाने के सामूहिक प्रवास के दौरान देखा- तो उन्हें पीटा जाएगा.
पुलिस की ज्यादती को अमेरिका में बड़े तफसील से प्रकाशित किया जा रहा है और ऐसा करने वालों में मुख्यधारा के अखबार भी हैं. भारतीय टेलीविजन ने प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही करार दिया होता, जैसा कि हमने नगारिकता (संशोधन) अधिनियम विरोधी आंदोलन के दौरान देखा.
अगर सीएए विरोधी विरोध प्रदर्शनों को एक मिसाल माना जाए, तो युवा भारतीयों का चीजों को देखने का तरीका अलग नजर आता है. अमेरिका में भी प्रदर्शनकारियों में युवाओं- जिनमें काले, गोरे, लैटिन और अन्य शामिल हैं- का बोलबाला है.
सीएए पारित किए जाने को एक ऐसे मुद्दे के तौर पर देखा गया, जो मुसलमानों को ही नहीं हर किसी को प्रभावित करेगा. इसी तरह से पुलिस की बर्बरता से हम सबको फर्क पड़ना चाहिए, भले निजी तौर पर हमारा इससे सामना न हुआ हो. ये हमारी व्यवस्था की ऐसी चीजें हैं, जिसे बदलना चाहिए और सिर्फ मिलकर और पूरी ताकत से जाहिर की गई जनभावना ही ऐसा कर सकती है.
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