जम्मू कश्मीर सरकार ने 2001 से 2016 के बीच कथित फ़र्ज़ी एनकाउंटर, बलात्कार, हिरासत में मौत जैसे 50 मामलों में आरोपित सेना के जवानों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के लिए केंद्र सरकार से इजाज़त मांगी थी, जिसे स्वीकृति नहीं मिली. आरटीआई के तहत इसकी वजह जानने के लिए किए गए आवेदन के जवाब में केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा है कि वह सेना से जुड़े दस्तावेज़ों के निरीक्षण का आदेश नहीं दे सकता.
नई दिल्ली: केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने जम्मू कश्मीर में कथित फर्जी एनकाउंटर, बलात्कार, हिरासत में मौत, नागरिकों की हत्या जैसे मामलों में केंद्र सरकार द्वारा आरोपी सेना के जवानों के खिलाफ कार्रवाई की इजाजत न देने से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से मना करने के फैसले को बरकरार रखा है.
आयोग ने कहा कि राज्य की जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए इन दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है. हालांकि सीआईसी ने कार्रवाई करने की इजाजत देने से मना करते हुए रक्षा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आदेशों को सार्वजनिक करने को कहा है.
जम्मू कश्मीर सरकार ने 2001 से 2016 के बीच ऐसे 50 मामलों में आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए केंद्र सरकार से इजाजत मांगी थी. जम्मू कश्मीर में अफ्सपा कानून के तहत सेना को तैनात किया है और इस कानून के तहत किसी जवान पर कार्रवाई करने से पहले राज्य को केंद्र से इजाजत मांगनी होती है.
इसे लेकर केंद्रीय रक्षा मंत्रालय ने एक जनवरी 2018 को राज्यसभा में बताया कि 50 में से 47 मामलों में कार्रवाई करने के अनुरोध को खारिज कर दिया गया है. केंद्र ने कहा कि मुकदमा चलाने की अनुमति देने के लिए प्रथमदृष्टया पर्याप्त सबूत नहीं थे.
इन 47 मामलों में से 16 मामलों में नागरिकों की हत्या के आरोप थे, दो मामलों में बलात्कार के आरोप थे, 10 मामलों में सुरक्षा गतिविधि के दौरान मौत, तीन मामलों में हिरासत में मौत, दो मामलों में टॉर्चर या बर्बर तरीके से पीटना, तीन मामलों में अगवा और हत्या, सात मामलों में व्यक्ति को गायब करने, एक मामले में फर्जी एनकाउंटर और दो मामलों में चोरी और छेड़खानी के आरोप थे.
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के एक्सेस टू इन्फॉर्मेशन प्रोग्राम के प्रमुख वेंकटेश नायक ने फरवरी 2018 में आरटीआई एक्ट के तहत एक आवेदन दायर कर रक्षा मंत्रालय से इन मामलों में आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करने से मना करने के लिए अपनाई गई स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी), मानदंड और साक्ष्यों का आकलन करने वाले स्टैंडर्ड की प्रति मांगी थी.
इसके अलावा नायक ने इस संबंध में फैसला लेने वाले अंतिम अथॉरिटी का पद और सभी 47 मामलों से जुड़े फाइलों का निरीक्षण करने की इजाजत मांगी थी.
कुछ दिन बाद रक्षा मंत्रालय ने इस आरटीआई आवेदन को भारतीय सेना को ट्रांसफर कर दिया और दोनों विभागों ने मांगी गई सूचना के संबंध में कोई भी जानकारी देने से मना कर दिया. इसके कारण अगस्त 2018 में ये मामला केंद्रीय सूचना आयोग पहुंचा.
सीआईसी में सुनवाई के दौरान रक्षा मंत्रालय के केंद्रीय जन सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) ने स्पष्ट किया कि मुकदमा चलाने से जुड़े सभी दस्तावेज सेना मुख्यालय की कस्टडी में हैं.
इसे लेकर बीते पांच जून को सीआईसी द्वारा जारी किए गए आदेश में कहा गया कि आयोग ऐसे मामलों से जुड़े दस्तावेजों का निरीक्षण करने का आदेश नहीं दे सकता है. हालांकि केंद्रीय सूचना आयोग ने भारतीय सेना के सीपीआईओ को कहा कि वे 17.03.2020 को आयोग द्वारा इसी मामले में जारी किए गए अंतरिम आदेश में उनके द्वारा सौंपे गए जवाब की प्रति आवेदनकर्ता को दी जाए.
इसके अलावा आयोग ने कहा कि यदि रक्षा मंत्रालय का ये दावा है कि जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा भेजे गए मामलों में आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई के संबंध में उनके द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया, एसओपी से जुड़े कोई आधिकारिक दस्तावेज नहीं है, तो वे आयोग के सामने हलफनामा दायर कर इन बातों को उसमें शामिल करें.
वहीं सीआईसी ने रक्षा मंत्रालय को कहा कि आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने से मना करते हुए जम्मू कश्मीर सरकार को भेजे गए पत्राचार की प्रति आरटीआई आवेदनकर्ता को दी जाए.
हालांकि 47 मामलों से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से इनकार करते हुए सीआईसी ने भारतीय सेना की इस दलील को स्वीकार किया कि सेना के संचालन के विस्तृत पहलुओं का खुलासा भविष्य के कार्यों को प्रभावित करेगा.
आयोग ने कहा कि आर्मी ऑपरेशन के विवरणों का खुलासा सशस्त्र बलों की सुरक्षा और रणनीतिक तैयारियों को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा, जो राज्य के प्रवासियों के लिए महत्वपूर्ण है. सीआईसी ने कहा कि ये काफी संवेदनशील मामला है और इसका प्रभाव राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर के चारो-ओर पड़ता है, इसके चलते मीडिया ट्रायल भी हो सकता है जो कि ऐसी जानकारी का खुलासा करने से रोकता है.
आयोग ने कहा, ‘कुल मिलाकर ये घटनाएं अंतरराष्ट्रीय असर के साथ-साथ राज्य में अशांति की स्थिति को और बढ़ा सकती हैं और उनके घाव को और गहरा कर सकती हैं. ये निर्विवाद है कि राज्य का व्यापक जनहित कथित पीड़ितों के हित से बड़ा है.’