बोधघाट पनबिजली परियोजना: जंगल उजाड़कर जंगल के कल्याण की बात

बीते दिनों केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा दंतेवाड़ा के पास इंद्रावती नदी पर प्रस्तावित पनबिजली परियोजना को पर्यावरणीय मंज़ूरी दी है. हालांकि इसके लिए चिह्नित ज़मीन पर वन्य प्रदेश और आदिवासियों की रिहाइश होने के चलते इसके उद्देश्य पर सवाल उठ रहे हैं.

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इंद्रावती नदी. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स\CC-BY-2.0)

बीते दिनों केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा दंतेवाड़ा के पास इंद्रावती नदी पर प्रस्तावित पनबिजली परियोजना को पर्यावरणीय मंज़ूरी दी है. हालांकि इसके लिए चिह्नित ज़मीन पर वन्य प्रदेश और आदिवासियों की रिहाइश होने के चलते इसके उद्देश्य पर सवाल उठ रहे हैं.

इंद्रावती नदी. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स\CC-BY-2.0)
इंद्रावती नदी. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स\CC-BY-2.0)

केंद्र की भाजपा सरकार ने हाल ही में छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल नीत कांग्रेस सरकार द्वारा प्रस्तावित बोधघाट पनबिजली परियोजना को पर्यावरण संबंधी सैद्धांतिक मंजूरी देकर लाखों आदिवासियों, नायाब जंगल और बस्तर के बचे-खुचे जल संसाधनों के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया है.

भूपेश बघेल आदिवासियों को टाटा द्वारा छोड़ी जमीन सौंपने, उनकी फसल के मुनासिब दाम दिलाने, पर्यावरण और आदिवासियों के अस्तित्व की रक्षा के नाम पर विधानसभा चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बने हैं, क्या अब वे आदिवासियों की उससे हजारों गुना ज्यादा जमीन, उनकी जीवनरेखा इंद्रावती नदी, आदिवासी संस्कृति और बेशकीमती जंगल से महरूम करके पनबिजली बनाएंगे?

राज्य के सालाना बजट में वित्तीय प्रावधान और परियोजना की बुनियादी संभाव्यता रिपोर्ट पर केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय की मुहर लगवाने की मुख्यमंत्री की कार्रवाई तो कम से कम यही जता रही है.

विडंबना यह है कि जिस बोधघाट पनबिजली परियोजना से तीन लाख, 66 हजार हेक्टेयर भूमि की सिंचाई का सपना देश को दिखाया जा रहा है उसमें से ज्यादातर भूभाग पर तो हरे-भरे जंगल, लहलहाते इमली, साल, सागौन, बीजा, साजा, आंवला, हरड़, बहेड़ा, सल्फी, महुआ,मैदा छाल आदि दुर्लभ प्रजातियों के बेशकीमती प्राकृतिक पेड़, लताएं, कंद-मूल, जड़ी-बूटियां और उनके बीच पीढ़ियों से बसे उनके रक्षक आदिवासियों के गांव हैं.

तो क्या सिंचाई सुविधा और पनबिजली बनाने के बाद छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार का इरादा इन जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों का सफाया करके उनसे खाली हुई जमीन पर खेत और बस्तियां बसाने का है?

यदि यही मंशा है तो क्या यह देश पर जलवायु परिवर्तन की खतरनाक चुनौती के बीच सुप्रीम कोर्ट द्वारा संरक्षित जंगलों के एक भी पेड़ पर कुल्हाड़ी नहीं चलाने संबंंधी आदेश का सरेआम उल्लंघन नहीं होगा?

आखिर बस्तर में पानी और बिजली की ऐसी क्या किल्लत हो गई कि 1994 में पर्यावरणीय तबाही के मद्देनजर कांग्रेस की सरकारों द्वारा रद्द की गई बोधघाट पनबिजली परियोजना को उसी दल के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल आनन-फानन सिरे चढ़ाने पर उतारू हैं?

कोरोना महामारी की अपूर्व मुसीबत की इस घड़ी में जब पूरा देश अपने घरों में सिमटा है तब आदिवासियों को उजाड़ने और देश के प्राचीनतम नैसर्गिक जंगल को तबाह करने की तैयारी सीधे निहित स्वार्थ की बू मार रही है.

उस पर तुर्रा ये कि बस्तर के बहुसंख्यक लाखों गोंड और माड़िया आदिवासियों को विस्थापित करने वाली इस पनबिजली और सिंचाई परियोजना से नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर जिलों में सिंचाई और अन्य सुविधाएं जुटाकर आदिवासियों को खुशहाल बनाने का सपना दिखाया जा रहा है!

बस्तर में इंद्रावती नदी पर बोधघाट पनबिजली और सिंचाई परियोजना को नए रूप में सरकारी निकाय छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी लिमिटेड द्वारा बनाए जाने का प्रस्ताव है जबकि 1979 में इसे बांगड़ ब्रदर्स नामक निजी कंपनी को सौपा गया था.

उस जमाने में बना पुल और आंशिक चैनल आज भी है मगर स्थानीय विरोध के दबाव में इसे 1994 में रद्द कर दिया गया था. नई परियोजना में 13,783 हेक्टेयर जमीन खपेगी जिसमें 45 फीसदी जमीन पर नायाब जंगल तथा 20 फीसदी पर आदिवासी आबाद हैं.

परियोजना पर 22,653 करोड़ रुपये लागत आएगी. यह लागत दंतेवाड़ा के पौराणिक बारसुर गांव में बनने वाले बांध और झील तथा उसके चैनल भर से संबंधित है.

ताज्जुब ये है कि इस लागत में बेशकीमती पेड़ों-बांस के जंगलों, जड़ी-बूटियों, कंदमूल, आदिवासी विस्थापन और उनकी जमीन तथा सांस्कृतिक नुकसान का कोई वित्तीय आकलन शामिल नहीं है.

परियोजना में 125 मेगावाट की चार टर्बाइन लगाने का प्रस्ताव है जिससे सामान्यत: 300 मेगावाट बिजली का निरंतर उत्पादन किया जाएगा.

इतना ही नहीं विस्तृत पनबिजली परियोजना के तहत कुटरू- एक और दो, नुगुर-एक और दो तथा भोपालपटनम और इंचम्पल्ली में भी टर्बाइन लगाने की योजना है.

यह आशंका है कि इतनी विसाल पनबिजली परियोजना बस्तर में अंतत: इंद्रावती नदी का समूचा डूब क्षेत्र निगल जाएगी जिससे वे विसाल और सरसब्ज जंगल तथा लाखों वन्य जीव प्यासे रह जाएंगे, जो उसी से सिंचित तथा पोषित होते हैं.

परियोजना के तहत 855 मीटर लंबा मुख्य बांध बनेगा तथा 500 मीटर और 365 मीटर लंबे उसके सहायक बांध बनेंगे. साथ ही टर्बाइन लगे बिजलीघर, सब स्टेशन, पानी का बहाव बढ़ाने संबंधी सुरंग, पानी की झील, स्विच यार्ड, सैकड़ों किलोमीटर लंबी सड़क, पुल तथा बिजली वितरण केबल लाइन बनाए जाएंगे.

जाहिर है कि इंद्रावती पर प्रस्तावित इन छह पनबिजली परियोजनाओं से इंद्रावती बाघ अभ्यारण, इंदिरा उद्यान वन भैंसा अभ्यारण, भैरमगढ़ वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र ही नहीं महाराष्ट्र में कोपला-कोलामरखा वन्य जीव संरक्षण क्षेत्र आदि का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा.

बोधघाट पनबिजली परियोजना की तैयारी तो 1965-66 में ही हो गई थी पर इसे इंदिरा गांधी के तीसरे शासनकाल 1980-84 के बीच परवान चढ़ाने पर जोर दिया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह बड़ी सक्रियता से बस्तर की जीवनरेखा इंद्रावती नदी को बांधने में लग गए.

वैसे इससे पहले मोरारजी भाई देसाई प्रधानमंत्री रहते हुए 1979 में इसकी बुनियाद भी रख चुके थे यानी हरेक दल की सरकार इसमें कोई न कोई खासियत देख रही थी और बेजुबां आदिवासियों की किसी को चिंता नहीं थी.

बहरहाल ये बताना जरूरी है कि इस योजना से भले शहरी लोगों को भर- भर बिजली मिले और जमकर सिंचाई भी हो जाती, जिसकी कम से कम बस्तर को जरूरत ही नहीं है.

बस्तर पर कुदरत खुद ही इतनी मेहरबान है कि आदिवासियों की जमीन बेहद उपजाऊ है और उसमें बिना खास जतन के वे भरपूर खुशबूदार जैविक धान,सब्जियां आदि उगा लेते हैं.

प्रकृति की कृपा से ही छत्तीसगढ़ को धान का भंडार कहा जाता है. इस लिए बोधघाट पनबिजली परियोजना से आदिवासियों और जंगल के कल्याण की बात बेमानी है.

इस विवादास्पद परियोजना पर करीब 55 साल पहले जब चर्चा शुरू हुई उसी दौरान मार्च 1966 में बस्तर नरेश ओर आदिवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव सरकारी बलों की गोली से मारे गए थे.

जाहिर है कि इस सघन आदिवासी इलाके में घुसपैठ का वही माकूल मौका था. इस परियोजना को केंद्रीय योजना आयोग की हरी झंडी पहले ही मिल चुकी थी, बस वन संरक्षण कानून के तहत मामला अटका हुआ था.

मध्य प्रदेश सरकार इसे अपनी नाक का सवाल बनाए बैठी थी. पर मामला इतना खिंचा कि लोग मान बैठे कि भैंस पानी में जा चुकी. साल 1984 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर फिर सुगबुगाहट शुरू हो गई. अर्जुन सिंह काम पर लग गए.

उसी वक्त बस्तर के पुराने समझदार बाशिंदों ने प्रकृति बचाओ समिति बना ली जिसमें पत्रकार किरीट दोशी, शरद वर्मा,मोहम्मद अली, राजेंद्र बाजपेई तथा सुभाष पांडे जैसे जाने-माने विभिन्न व्यवसायों के लोग थे.

इन्होंने न केवल जनजागरण अभियान चलाया बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका डाली. राजीव गांधी तो 1989 में चुनाव हार गए पर परियोजना में जहां सत्तावानों की दिलचस्पी जारी रही वहीं उसका विरोध भी परवान चढ़ता गया.

जबरदस्त जनविरोध के मद्देनजर केंद्रीय वन और पर्यावरण सचिव टीएन शेषन की सदारत में पर्यावरण अनुमति के लिए समिति बनी. वे लोग मौके पर गए, लोगों से बात की और उनकी प्रतिकूल सिफारिश के बाद परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई.

विश्व बैंक ने अपने हाथ खींच लिए और लंदन के सर्वाइवल इंटरनेशनल ने इसके नामंजूर होने की मुनादी पीट दी. बहुत कम लोगों की जानकारी है कि इस योजना को तब इसलिए बंद किया गया कि इससे बस्तर के हजारों आदिवासी और 5,704 हेक्टेयर बेशकीमती जंगल उजड़ जाता.

इस परियोजना के तहत मध्य प्रदेश शासन ने बस्तर की इंद्रावती नदी पर 1965-66 में पनबिजली पैदा करने वाली छह इकाइयों के निर्माण की घोषणा की थी.

बोधघाट परियोजना इस घोषणा का पहला चरण था. घोषणा के अनुसार डेढ़ करोड़ रुपये की लागत से छह बरस में तैयार होने वाली परियोजना से 500 मेगावाट बिजली पैदा होनी थी. इसके लिए बारसूर गांव से आठ किलोमीटर बोधघाट का बांध बनाया जाना था.

ये इकाइयां 35 वर्ष तक बिजली पैदा करतीं. इसमें शुरू में एक लाख हेक्टेयर कृषि की सिंचाई होती मगर बाद में यह विशुद्ध पनबिजली पैदा करने वाली परियोजना रह गई.

साल 1985 में इस परियोजना की पूरी असलियत सामने आई. इसके अनुसार इंद्रावती नदी पर 1,541 मीटर लंबा और 50 मीटर उंचा बांध बनता. तब इसमें 430 करोड़ रुपये खर्च आता और 107 मेगावाट बिजली पैदा होती.

इस परियोजना में बस्तर की 13,746 हेक्टेयर -लगभग 34365 एकड़- भूमि डूब में आने वाली थी. इस भूमि में 5,704 हेक्टेयर वनाच्छादित भूमि, 4,919 हेक्टेयर निजी भूमि और 3,123 हेक्टेयर राजस्व भूमि थी.

परियोजना से कुल 42 गांव प्रभावित होते. इनमें 2,45,724 लोग रहते थे जिनकी संख्या आज कई गुना बढ़ चुकी हालांकि विद्युत मंडल ने उनकी संख्या 9,000 ही आंकी थी. इनमें 90 प्रतिशत आदिवासी हैं जो अनेक पुश्त से यहां बसे हुए हैं.

परियोजना को मंजूरी से ये सभी पुश्तैनी निवासी दरबदर हो जाते. डूब में आने वाली 5,704 हेक्टेयर वन भूमि में करीब सैंतीस लाख तैंतीस हजार मिश्रित पेड़, तीस लाख बांस की झाड़ियां और कंदमूल तथा जड़ी बूटियां हैं.

प्रभावित भूमि पर साल, सागौन, साजा, बीजा, शीशम के बेशकीमती इमारती लकड़ी वाले पेड़ों की भरमार है. जड़ी-बूटियों की यहां दुर्लभ किस्में इफरात मिलती हैं. परियोजना को मंजूरी से चिरायता और सर्पगंधा जैसी जड़ी-बूटियों की दुर्लभ प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी.

बस्तर में प्रभावित इलाके में स्थिति आज भी यही है. परियोजना में कुल मिलाकर 53 लाख पेड़ कटने की आशंका है.

बस्तर के जिस नायाब जंगल को उजाड़ कर बोधघाट पनबिजली परियोजना बनाने का प्रस्ताव है वह दुनिया का दूसरा और देश में अव्वल साल का प्राकृतिक जंगल है. इसकी तुलना सैरंध्र घाटी के जंगलों से की जाती है.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

तत्कालीन सैंपल सर्वे के मुताबिक यहां प्रति एकड़ 900 पेड़ रहे. यह जंगल इतना घना रहा कि यहां दोपहर 12 बजे तक भी जंगल को बेधकर सूरज की किरण धरती तक नहीं पहुंच पाती थी.

बारसूर जंगल में वन्य प्राणियों की पहले जैसी भरमार नहीं है पर फिर भी वन्य जीवों की अच्छी तादाद है. यह दुर्लभ प्राणी वन भैंसा अभ्यारण है. जंगल की कटाई से इनका अस्तित्व मिटने का खतरा है.

सबसे बड़ी बात ये कि महज एक चिड़िया मारने पर भी कार्रवाई करने वाली सरकार के कानूनों का क्या इतने बड़े पैमाने पर जंगल कटने से क्या मखौल नहीं उड़ेगा?

जंगलों की कटाई से इस विराट दंडकारण्य में पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है. पिछले कुछ बरसों में पेड़ों की कटाई से बस्तर का पर्यवरण शुष्क हुआ है, बारिश घटी है वहीं भूजल भी नीचे चला गया है.

साल 1974 तक संभाग मुख्यालय जगदलपुर के आसापास घना जंगल था. गर्मी पड़ती ही नहीं थी. बारहों महीने खूब बारिश होती थी. अब जगदलपुर के आसपास सफाचट मैदान हैं और गर्मी खूब पड़ती है.

सरकार की तब भी दलील थी और अब भी यही है कि वह पर्यावरण संतुलन बरकरार रखने को वैकल्पिक वृक्षारोपण किया जाएगा. यह बात दीगर है कि सरकारी वृक्षारोपण हमेशा कागजों में होकर कागजों में कट या जल जाता है और उसके पैसे की बंदरबांट होती है.

यूं भी कृत्रिम जंगल नैसर्गिक वनों का मुकाबला नहीं कर सकते. कृत्रिम वनों के बूते पर्यावरण संतुलन की कोई भी पेशकश कामयाब होने का कोई उदाहरण आजादी के बाद से इस देश ने तो कम से कम नहीं देखा. साल वृक्षों का कृत्रिम रोपण कहीं भी और कभी सफल नहीं हो पाया.

साल 1983 में केंद्रीय पर्यावरण उपमंत्री दिग्विजय सिंह ने लोकसभा में बताया था कि बोधघाट परियोजना के पर्यावरण पर प्रभाव के अध्ययन के लिए विशेषज्ञ दल गठित किया गया था. उस दल की रिपोेर्ट का कोई अता-पता नहीं है.

इसी वजह से उस समय परियोजना को केंद्र सरकार की वर्तमान कार्रवाई की तरह पर्यावरण संबंधी मंजूरी मिल गई थी. उसके बावजूद परियोजना की प्रस्तावित जमीन पर बसे आदिवासियों ने जब ये ठाना कि जान देकर भी जंगल बचाएंगे तो सरकार के कान खड़े हुए.

इसके लिए 42 गांवों की संघर्ष समिति भी बनी थी. उसके अध्यक्ष हर्रा कोडेर गांव के आदिवासी ईश्वर सिंह थे. वे कहते थे कि जमीन और जंगल पुश्तों से उनका है और सरकार उसे कैसे छीन सकती है.

उनके अनुसार उनके पूर्वज वहीं रहे और उसी जमीन में गड़े हुए हैं और वे तथा उनकी भावी पीढ़ियां भी वहीं आखिरी सांस लेंगी.

सरकार तो जाहिर है आदिवासियों को कहीं और बसाने का सुझाव देगी. लेकिन आदिवासियों के सांस्कृतिक विनाश और जंगलों की अक्षम्य बरबादी की भरपाई सरकार कैसे करेगी?

साथ ही आदिवासियों को सरकार कहीं और बसाकर उनके गांवों जैसा स्वाभाविक माहौल भी नहीं दे पाएगी. बस्तर के दूसरे गांवों में भी विस्थापित आदिवासी अलग-थलग बसना पसंद नहीं करेंगे.

यदि इन्हें एक साथ बसाने के लिए कोई नई बस्ती बसी तो उसके लिए भी जंगलों का सफाया करना पड़ेगा जिसे ये कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे.

आदिवासी हमेशा निश्चित व्यवस्था में रहने का आदी है. उसे अपनी रिहाइश के आसपास फलदार-छायादार पेड़ चाहिए, सल्फी पीने के लिए उसके झाड़ चाहिए, पीने को महुए की शराब चाहिए और खाने को सर्गी बोड़ा यानी मशरूम और चापड़ा यानी आम की डाल की लाल चींटियां तथा नदी, तालाब, पहाड़ चाहिए.

सरकार क्या एक साथ ये प्राकृतिक नियामतें उन्हें उपलब्ध करा पाएगी? उस पर हजारों हेक्टेयर जंगल में पीढ़ियों से स्थापित आदिवासियों देवी-देवों का क्या होगा? क्या इससे आदिवासियों की आस्था पर आघात नहीं लगेगा?

सरकार उन्हें कितनी भी सुविधा दे दे मगर स्वाभाविक प्राकृतिक जीवन के उपादान उनके लिए कैसे जुटाएगी? आर्थिक दृष्टि से बोधघाट परियोजना फायदेमंद नहीं हो सकती.

5,704 हेक्टेयर वन भूमि में 150 फुट से ज्यादा लंबे और 1,000 सेंटीमीटर से अधिक व्यास वाले साल के नायाब पेड़ हैं. उनकी उम्र 450 साल से अधिक है.

यहां 1 55,000 घन मीटर इमारती लकड़ी और 2,20,000 घनमीटर बांस है. इसकी कीमत तब करीब 30 करोड़ रुपये आंकी जाती थी जो आज अरबों में है.

कंदमूल फल और जड़ी बूटियों का वित्तीय आकलन तो असंभव है. इस क्षेत्र में करीब 53 लाख पेड़ हैं. प्रति पेड़ मूल्य तब 5,000 रुपये था जिसके हिसाब से तभी 26 अरब रुपये मूल्य के प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान हो रहा था जिसकी कीमत आज खरबों रुपये है.

सरकार चाहे तो इमारती लकड़ी बेचकर यह घाटा पाट सकती है पर यही पेड़ तब से अब तक सौ गुना से भी अधिक फायदा दे चुके.

कृषि विश्वविद्यालय कोलकाता के प्रोफेसर टीएम दास और वन अनुसंधान संस्थान देहरादून के प्रोफेसर एलएन माथुर के अनुसार एक जीवित पेड़ अप्रत्यक्ष रूप में एक अरब पचास हजार रुपये के बराबर लाभ देता है जबकि उसे काटने पर महज 5,000 रुपये की इमारती लकड़ी ही हासिल होती है.

यह भी 1986 की बात है और आज तो उस गुणवत्ता की लकड़ी मिलना ही मुहाल हैं. कार्बन फुटप्रिंट घटाने के इस जमाने में इतने सारे पेड़ों को मारने, प्राकृतिक, मानवीय और पर्यावरण संबंधी नुकसान करने वाली पनबिजली परियोजना बनाने का क्या तुक है जबकि छत्तीसगढ़ बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर ही नहीं सरप्लस राज्य है.

तब फिर नेता क्यों महज 300 मेगावाट बिजली बनाने के लिए बस्तर के सनातन जंगलों और आदिवासी संस्कृति तथा प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने और लाखों आदिवासियों को उजाड़ने पर आमादा हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)