सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी तय समय पर आरोप-पत्र दायर नहीं किए जाने पर एक आरोपी को ज़मानत देने से इनकार करने के मद्रास हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए की.
नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि कोरोना वायरस से निपटने के लिए लागू किए गए लॉकडाउन की तुलना आपातकाल से नहीं की जा सकती.
अदालत ने कहा कि निर्धारित समय में आरोप-पत्र दाखिल नहीं किए जाने पर आरोपी को जमानत मिलना उसका अपरिहार्य अधिकार है.
दरअसल अदालत ने यह टिप्पणी तय समय पर आरोप-पत्र दायर नहीं किए जाने पर एक आरोपी को जमानत देने से इनकार करने के मद्रास हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए की.
जस्टिस अशोक भूषण की अगुवाई में पीठ ने कहा कि मद्रास हाईकोर्ट का यह मानना स्पष्ट रूप से गलत और कानून के अनुरूप नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान लागू प्रतिबंधों की वजह से आरोपी को जमानत का अधिकार नहीं है.
पीठ ने कहा, ‘हम हाईकोर्ट के इस आदेश से कतई सहमत नहीं है. इस तरह की घोषणा से जीने के अधिकार और निजी स्वंतत्रता के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता है.’
अदालत ने वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा की उस दलील को स्वीकार कर दिया कि लॉकडाउन के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से याचिका, सूट और अपील दायर करने की समयसीमा बढ़ाने का फैसला पुलिस को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-167 के तहत आरोप-पत्र दाखिल करने पर लागू नहीं होता.
पीठ ने तय समयसीमा (60 या 90 दिन) के भीतर आरोप-पत्र दायर नहीं करने के आधार पर आरोपी को जमानत देने का निर्णय लिया और 10,000 रुपये के निजी मुचलके पर आरोपी की जमानत याचिका स्वीकार कर ली.
बता दें कि इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने आपातकाल (1976) के दौरान एडीएम जबलपुर मामले का भी उल्लेख किया.
पांच न्यायाधीशों की पीठ ने एडीएम जबलपुर मामले में 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाया था कि केवल अनुच्छेद 21 में जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकारों की बात की गई है और इसे निलंबित किए जाने पर सभी अधिकार छिन जाते हैं.
अदालत ने इस फैसले को प्रतिगामी (रिग्रेसिव) बताते हुए कहा कि कानून की तय प्रक्रिया के बिना जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार छीना नहीं जा सकता.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)