सरकार कह रही है कि यह राजनीति का समय नहीं, लेकिन वह ख़ुद क्या कर रही है

मुख्य विपक्षी दल के सवाल करने को उसकी क्षुद्रता बताया जा रहा है. 20 सैनिकों के मारे जाने के बाद कहा गया कि बिहार रेजीमेंट के जवानों ने शहादत दी, यह बिहार के लोगों के लिए गर्व की बात है. अन्य राज्यों के जवान भी मारे गए, उनका नाम अलग से क्यों नहीं? सिर्फ बिहार का नाम क्यों? क्या यह क्षुद्रता नहीं?

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19 जून को सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

मुख्य विपक्षी दल के सवाल करने को उसकी क्षुद्रता बताया जा रहा है. 20 सैनिकों के मारे जाने के बाद कहा गया कि बिहार रेजीमेंट के जवानों ने शहादत दी, यह बिहार के लोगों के लिए गर्व की बात है. अन्य राज्यों के जवान भी मारे गए, उनका नाम अलग से क्यों नहीं? सिर्फ बिहार का नाम क्यों? क्या यह क्षुद्रता नहीं?

19 जून को सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)
19 जून को सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

विपक्ष से परिपक्वता की उम्मीद की जा रही है. उसके साथ कहा जा रहा है कि वह बड़प्पन दिखलाए, क्षुद्र बर्ताव न करे.

राहुल गांधी के तंजिया ट्वीट को उनका छोटापन कहा जा रहा है. उन्हें मशविरा दिया जा रहा है कि यह वक्त व्यंग्य करने, सरकार का मजाक उड़ाने का नहीं है.

मुख्य विपक्षी दल के सवाल करने को ही उसकी क्षुद्रता बताया जा रहा है. कोई नहीं कह रहा कि असल क्षुद्रता इस प्रचार में है कि विपक्षी दल और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच कोई गुप्त समझौता है.

20 सैनिकों के मारे जाने के बाद कहा गया कि बिहार रेजीमेंट के जवानों ने शहादत दी, यह बिहार के लोगों के लिए गर्व की बात है. यह परले दर्जे की क्षुद्रता है कि इन मौतों का बिहार चुनाव के लिए इस्तेमाल किया जाए.

ओडिशा,तेलंगाना, झारखंड, छत्तीसगढ़ के जवान भी मारे गए हैं, उनका नाम अलग से क्यों नहीं? क्यों सिर्फ बिहार का नाम?

क्या यह क्षुद्रता नहीं? वैसे ही जैसे पुलवामा में सुरक्षाबल के सदस्यों की मौत का निर्लज्ज चुनावी इस्तेमाल क्षुद्रता के अलावा और कुछ न था.

कोई यह नहीं कह रहा कि राष्ट्रीय जनता दल और आम आदमी पार्टी को सर्वदलीय बैठक से बाहर रखना क्षुद्रता थी और कुछ नहीं.

आखिर ये दोनों भी तो भारत की जनता के एक बड़े हिस्से की प्रतिनिधि हैं? भारत के बारे में चिंता करने का हक किसे है, यह क्या सरकार तय करेगी?

क्या यह आश्चर्य की बात है कि इनको स्वाभाविक माना जा रहा है?  इन पर कहीं से वैसी संपादकीय टिप्पणी नहीं आई जैसी राहुल गांधी पर फौरन कर डाली गई है.

आगे लिखने के पहले यह लेखक स्पष्ट करना चाहता है कि उसका उत्तेजनापूर्ण प्रतिक्रियाओं, मजाक, खिल्ली उड़ाने, फब्ती कसने की जबान पर कतई भरोसा नहीं.

राहुल गांधी इस मामले में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के स्तर पर न उतर जाएं, यही उनकी राजनीति के लिए उचित है.

लेकिन जो ’55 करोड़ की गर्लफ्रेंड’ और एक महिला राजनेता के लिए ‘जर्सी गाय’ जैसे फूहड़ जुमलों को चुनावी प्रचार की स्वीकृत भाषा मानते हैं, वे ‘सुरेंदर और सरेंडर’ के खेल से तिलमिला उठे हैं, तो इसका कारण भाषा का स्तर नहीं है, बल्कि यह कि उनकी जबान और कोई कैसे इस्तेमाल कर सकता है!

‘इस राष्ट्रीय संकट की घड़ी में, जब दुश्मन देश की सीमा पर खड़ा है, पूरे देश को एक स्वर में बात करनी चाहिए,’ इस मांग से शायद ही किसी को ऐतराज हो.

लेकिन यह सवाल किया ही जाएगा कि क्या सरकार सबसे अपने स्वर में ही बोलने की मांग कर रही है या वह भी अपना स्वर बदलने को तैयार है? यानी क्या वह अन्य स्वरों को कान देने को राजी है?

अगर ऐसा नहीं है तो फिर जो मांग है वह यह कि सब चुप हो जाएं. यह कतई परिपक्वता नहीं है और न यह देशहित में है कि सरकार की इस मांग के आगे होंठ सिल लिए जाएं.

दुर्भाग्य से राष्ट्र हों या देश, वे लोगों से ज्यादा अपनी सरहदों से ही पहचाने जाते हैं. सरहद या सीमा का उल्लंघन देश की देह की मर्यादा का उल्लंघन माना जाता है.

यह भौगोलिकता को राष्ट्रवाद की बुनियाद मानने वालों का ख़याल है. इसलिए ‘इंच-इंच जमीन के लिए हजार-हजार जान कुर्बान’ का नारा इतना सहज और वाजिब जान पड़ता है.

राष्ट्रीय सुरक्षा का मतलब सीमाओं की रक्षा हो जाता है. जिनका राष्ट्रवाद इस समझ और इस भाषा से निर्मित हो रहा हो, उनसे अगर सीमा के उल्लंघन को लेकर सवाल किया जाए, तो उनके बिदकने का कोई औचित्य नहीं है.

यह सवाल किया ही जाएगा और उसके लिए और कोई बेहतर वक्त नहीं आएगा कि चीन और भारत के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय हिस्से में चीनी और भारतीय सैनिकों में हाथापाई हुई या चीनी हिस्से में?

प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक में जो कहा उसी से यह सवाल पैदा हुआ है. उन्होंने जो कहा वह हिंदी का बहुत सीधा वाक्य था और उसकी व्याख्या की जरूरत भी नहीं थी.

‘न कोई वहां हमारी सीमा में घुसा था और न घुस आया है और नहीं कोई घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है.’

यह उन्होंने तब कहा जब गलवान घाटी में 20 भारतीय फौजी मारे जा चुके थे और कुछ के चीन के गिरफ्त में होने को खबर आम हो चुकी थी.

सरकार चाहती न थी कि यह सब कुछ जनता को मालूम हो. लेकिन भले ही वह प्रायः सारे मीडिया तंत्र को काबू कर चुकी हो, ईमानदार और साहसी लोगों की अभी भी कमी नहीं है, जो खुद को देश की जनता और सत्य से प्रतिबद्ध मानते हैं न कि सरकार के वफादार.

उनकी वजह से यह खबर हमें मिली कि नियंत्रण रेखा की आस-पास अब पूर्व स्थिति नहीं रह गई है. चीन कोई 50 किलोमीटर आगे आ गया है. उसने अस्थायी ढांचे खड़े कर लिए हैं.

यह पूर्व सैन्य अधिकारियों ने सेना में अपने सूत्रों से मालूम करके बतलाया. सरकार इनकार करती रही. जब इन खबरों का और विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी के सवालों का दबाव बढ़ता गया, तब जाकर रक्षा मंत्री ने माना कि चीनी भारी संख्या में वहां आ गए हैं.

‘आ गए हैं’ से मालूम होता है कि आना कोई आक्रामक क्रिया नहीं है. लेकिन तुरंत ही मालूम हो गया कि वाक्य यह होना चाहिए था कि वे चढ़ आए हैं.

यानी आना संयोग न था, योजनापूर्वक हमले की तैयारी थी. फिर कोई असमंजस, कोई दुविधा नहीं रह गई. भारतीय सैनिकों की मौत को छिपाया नहीं जा सकता था.

और विपक्ष ने वह पूछा जो उसे इस राष्ट्र राज्य की परिकल्पना के भीतर पूछना ही था: चीनी तैयारी की खबर हमें क्यों नहीं थी? क्या हमारा खुफिया तंत्र कमजोर पड़ गया है?

तनाव और हिंसक स्थिति में हमारे सैनिक निहत्थे क्यों थे? क्या हमारे सैनिकों को असुरक्षित हालत में जान-बूझकर डाला गया या यह वहां के नेतृत्व की गलती थी. अगर कोई सीमा में घुसा नहीं तो फिर ये मौतें हुई कैसे?

फिर प्रधानमंत्री के बयान का हवाला देकर ही क्यों चीन दावा कर रहा है कि उनके बयान से साबित होता है कि चीन ने सीमा का अतिक्रमण नहीं किया, कि वास्तव में भारत के सैनिक उसकी सीमा में घुस गए थे जिसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी, कि चीनी फौज को अपनी भूमि की रक्षा करनी ही थी.

चीन के मुताबिक, चीन भी तो वही कह रहा है जो भारत के प्रधानमंत्री ने कहा कि न तो वह भारत की सीमा में घुसा था, न उसके भीतर अभी है, भारतीय पोस्ट के उसके कब्जे में होने की बात ही फिर कहां उठती है!

चीन के बयान के बाद यह सवाल तो होना ही था कि क्या प्रधानमंत्री ने अपने बयान से देश के नक्शे में तरमीम (संशोधन) कर डाली है? दूसरे शब्दों में, क्या चीन के दावे के आगे आत्मसमर्पण कर दिया गया है?

आरोप लगाया जा रहा है कि इस तरह के सवाल गैर जिम्मेदाराना हैं, वे युद्धोन्माद पैदा करते हैं जबकि इस कठिन कोरोना काल में हमें पूरा ध्यान एकजुट होकर देश को इस महासंक्रमण से बचाने में लगाना चाहिए.

हमारे संसाधन दूसरी दिशा में न लगें, यह सावधानी बरतनी चाहिए. युद्धोन्माद गलत ही नहीं मूर्खता है, यह तब मालूम पड़ा जब एक बड़े और अधिक ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से सामना हुआ.

वरना कमजोरी के वक्त वह देश के लिए पुष्टिकारक माना जा रहा था. चुनाव पोस्टर पर भी ‘घुसकर मारेंगे’ का सड़कछाप धमकी छापी जा रही थी और कोई ऐतराज न था.

लेकिन यह भी बताना चाहिए कि यह सब ही मिलकर उस राष्ट्रवाद का निर्माण करते हैं जो देश में अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राष्ट्रविरोधी ठहराकर उन पर हमले को ही बहादुरी मानता है.

युद्ध लड़ना बुद्धिमानी नहीं है. गोला-बारूद से ज्यादा सूझबूझ, जानकारी, दिमागी ताकत और जीवट की दरकार है. बड़बोलापन आपके समर्थकों को नशे में डाल सकता है, लेकिन उससे आती है बेहोशी और बेपरवाही जिसका नतीजा हमारे सामने है.

कूटनीति एक व्यक्ति का आत्मप्रचार नहीं है. अपनी सूरत के लिए देश-देश में आईने टंगवा देना राष्ट्रप्रेम नहीं, आत्ममुग्धता है.

चीन के प्रमुख का मुखौटा जब आपने अपने देशवासियों को पहना दिया तो उसने आपके भीतर के लिजलिजेपन को पहचान लिया.

कूटनीति में दूसरे देशों में प्रचार सभाएं नहीं की जातीं. उनसे नेता के चाहने वालों में, जो हीनताग्रंथि के शिकार हैं, गलतफहमी पैदा की जा सकती है लेकिन वे उन देशों में आपके देश के प्रति शुभेच्छा नहीं बढ़ातीं.

सरकार कह रही है और हमारे बहुत से उदार हृदय मित्र भी कह रहे हैं कि यह राजनीति का समय नहीं. यह एकजुट होने का वक्त है. लेकिन सरकार इस समय भी राजनीति कर रही है.

बिहार रेजीमेंट का इस्तेमाल, इसी घड़ी में दिल्ली में मुसलमानों, छात्रों और बुद्धिजीवियों पर दंडात्मक कार्रवाई, कश्मीर में एक के बाद एक दमनात्मक फरमान, ये उस राष्ट्र्वादी राजनीति के पुर्जे हैं, जो पिछले 6 साल से भारतीय सरकार की नीति है.

देश बुरी तरह विभाजित कर दिया गया है और उसमें सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है. देश के लोगों का हौसला सरकार तोड़ रही है, वह उनकी जबान खींचे ले रही है और उन पर चाबुक चला रही है.

इस वक्त इस जनता से जो यह कहता है कि यह वक्त सरकार की आलोचना का नहीं, सरकार के पीछे लामबंदी का है, वह राजद्रोही नहीं, जनद्रोही अवश्य है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)