अरुंधति रॉय आज के भारत के सीमांत पर उपज रही कल्पनाओं, हसरतों, प्रतिरोधों और गरिमा से जीने की ललक को इस नये उपन्यास में उकेरने का प्रयास करती हैं.
अरुंधति रॉय चाहतीं तो कहीं अच्छी जगह ‘सेटल’ हो जातीं. उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे उन लोगों की हमकदम बन गईं जिनके सेटलमेंट या बस्तियों को नर्मदा का पानी बहा ले जाने वाला था. उन्होंने बड़े बांधों और परमाणु बमों की मुख़ालफ़त की और उन लोगों की नाराज़गी मोल ले ली जो भारत को विकास की बुलंदियों पर पहुंचते हुए देखना चाहते हैं. इसके लिए परमाणु ऊर्जा, बम और बांध ज़रूरी हैं. उन्होंने बस्तर के जंगलों की यात्रा की और भूमकाल पर लिखा.
अरुंधति रॉय ने जगह-जगह भाषण दिए जिसकी विषय वस्तु से भारतीय राज्य को दिक्कत महसूस हुई. यह दिक्कत कई अन्य लोगों को भी महसूस हुई. अभी हाल ही में बेहतरीन अभिनेता और भाजपा के सांसद परेश रावल ने कहा कि उन्हें मिलिट्री जीप की बोनट पर बांधकर घुमाना चाहिए था.
कोई कह सकता है कि एक पुरस्कृत लेखिका के साथ इस व्यवहार की अपेक्षा ठीक नहीं है. लेकिन जो लोग अरुंधति रॉय को जानते हैं, उन्हें परेश रावल के इस बयान पर अचरज नहीं हुआ. अरुंधति रॉय अपने लेखन से परेश रावल और उनके साथियों की वैचारिक दुनिया को बिखेरने का काम करती रहती हैं.
वास्तव में धर्म और राज्य की संरचना के भीतर मनुष्य की नियति पर संत, गवैये, दरवेश, कवि, नाटककार, वैज्ञानिक और उपन्यासकार लगातार लिखते रहे हैं. उन्होंने लिखकर, गाकर, भाषण देकर ईश्वर, बादशाह और उसके कारिंदों की बनाई हुई दुनिया में दख़लंदाज़ी की है.
ईश्वर के बारे में मुझे ज़्यादा नहीं पता, लेकिन बादशाहों को उनकी बात नागवार गुजरती रही है. बादशाह औरंगजेब भी था और उसे सरमद की बात नागवार गुज़री थी. उसने सरमद के लिए मौत की सज़ा मुक़र्रर की. सरमद की बातें औरंगजेब के समय के रूढ़िवादी तबक़ों को भी नागवार गुज़र रही थीं. उन्होंने बादशाह को उकसाया और उसे उसका फ़र्ज़ याद दिलाया.
अरुंधति रॉय का उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री आॅफ अटमोस्ट हैपीनेस’ पुरानी दिल्ली की बसाहटों में शुरू होता है जहां सूफी संत सरमद की दरगाह है. उपन्यास शुरू में ही अपने पाठक को बताता है कि सरमद यहूदी आर्मीनियाई सौदागर था जो अपने महबूब से मिलने की हसरत लिए फारस से दिल्ली आया था. उसके महबूब का नाम अभय चंद था.
समलैंगिक सरमद ने इस्लाम का त्याग कर दिया तो उसे मौत की सज़ा दी गई. लेकिन क्या करें दिल्ली की जनता की उस याददाश्त का जिसने उसे शहीद का दर्ज़ा दे दिया और उसकी मजार पर मन्नत की पुर्जियां बांधने लगी. यह एक प्रकार से बादशाह के हुक़्म के ख़िलाफ़ उसकी रियाया की फितनागिरी या सबवर्जन था. जनता ऐसा हमेशा करती रहती है. उसने तब भी ऐसा किया था.
उपन्यास की कहानी हकीम मुलाक़ात अली और उनकी बीबी जहांनारा बेगम से शुरू होती है. शायरी के शौकीन और चंगेज खां के वंशज हकीम मुलाक़ात अली को लगता था कि शायरी करना और हिकमत का काम एक दूसरे से जुदा नहीं है.
उन्हें लगता था कि शायरी से इलाज संभव है लेकिन उनकी बीबी ने जब आफ़ताब को जन्म दिया और उनकी संतान ‘वह’ से ‘वह’ हो गई तो उन्हें अपने इल्म से विश्वास उठ गया. उनकी संतान न तो स्त्री थी और न पुरुष. वह हिजड़ा थी/था. उपन्यास के इस बेहद तनावूर्ण वातावरण में हजरत सरमद आ खड़े होते हैं- जहांनारा बेगम को सांत्वना देने के लिए. यह उपन्यास उन्हें समर्पित ही है जिन्हें सांत्वना नहीं दी जा सकती है- द अनकंसोल्ड.
अरुंधति रॉय लिखती हैं, ‘हजरत सरमद की दरगाह पर बैठी जहांनारा बेगम अपने आंसुओं को रोक न सकीं. यह मेरा बेटा है आफताब, उसने हज़रत सरमद से फुसफुसाकर कहा. मैं उसे यहां तुम्हारे पास लाई हूं. उसकी देखभाल करो और मुझे सिखा दो कि मैं उसे कैसे मुहब्बत करूं. हजरत सरमद ने ऐसा ही किया.’ जहांनारा बेगम को सांत्वना मिल जाती है. वह अपनी संतान से मुहब्बत करना सीख जाती हैं.
इस उपन्यास में अरुंधति रॉय प्रेम करने की सांस्कृतिक निर्मितियों को शीशा दिखाती है. लोग बेहद निजी क्षणों में स्त्री और पुरुष के रूप में प्यार करते हैं. वे अपनी संतान को ‘मेरी रानी बिटिया’ या ‘मेरा राजा बेटा’ कहकर दुलार करते हैं, प्यार करते हैं. लेकिन जो इस जीव वैज्ञानिक खांचे में नहीं समाता, उसका क्या? उसे कौन प्यार करेगा? ऐसे लोग अपनी एक ‘दुनिया’ बना लेते हैं. आफताब एक दिन अंजुम बन जाती है. और वह पुरानी दिल्ली में हिजड़ों की दुनिया ‘ख्वाबगाह’ में शामिल हो जाती है. अब वह चमकीले कपड़े और चूडियां पहन सकती है जिसकी हसरत उसके बचपन से थी.
उपन्यास के अंत में जब जैनब सद्दाम से विवाह कर लेती है तो अंजुम और उसके नामालूम दोस्त उसे लेकर हजरत सरमद की दरगाह पर जाते हैं और यहां उपन्यास का शीर्षक खुल जाता है. यहां सरमद को बेपनाह ख़ुशी देने वाला (हज़रत ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस), शोकसंतप्त और नामालूम लोगों को सांत्वना देने वाला संत, ईश्वर में विश्वास करने वालों के बीच ईशनिंदक और ईशनिंदकों के बीच ईश्वर में विश्वास करने वाला बताया गया है.
वास्तव में यहां भी अपने पूर्ववर्ती उपन्यास की तरह वे क्षुद्र चरित्रों के द्वारा एक बड़ी कहानी के बिखरे टुकड़ों को आपस में सी देने का प्रयास करती हैं. आख़िर दुनिया में कहानीकार करता भी क्या है? वह शोकसंतप्त और नामालूम लोगों के जीवन में मुस्कराहटें लाना चाहता है.
यह नामालूम और शोकसंतप्त लोग दिल्ली में हैं. वे कश्मीर और गोदावरी के तट पर, गुजरात के अहमदाबद और ऊना और भारत के अंदरूनी घने जंगलों में हैं. वे दिल्ली के कालेजों में नाटक करने वाले और एक दूसरे पर फ़िदा हो जाने वाले रईस लड़के हैं तो एक कुल गोत्र विहीन लड़की तिलोत्तमा भी है.
तिलोत्तमा के किरदार के माध्यम से यह उपन्यास कश्मीर के विक्षुब्ध वर्तमान में प्रवेश करता है. जहां पर अमरीक सिंह है जो अत्याचारी भी है और डरा हुआ शिकार भी. उसकी जांच रिपोर्ट उसे ‘पोस्ट ट्रामेटिक डिसआर्डर’ का रोगी बता देती है. वह विदेशों में राजनीतिक कैदी होने की मांग करता फिर रहा है. उसे लगता है कि उस पर अत्याचार किया जाएगा. वह सितम की इंतेहा जानता है.
कश्मीर के बारे में जो लोक प्रचलित ख़ूबसूरत शब्द राष्ट्रीय पापुलर मीडिया में छाए रहते हैं, उसके विपरीत अरुंधति रॉय हिंसा, अत्याचार, दमन और प्रेम की सर्वथा नई शब्दावली लाती हैं. पहले तो यह सब पढ़ने में बचकाना लग सकता है कि ए फॉर एपल की तरह वे ए फॉर आज़ादी/आर्मी/अल्लाह/अमेरिका/ एके 47, बी फार बीएसएफ़/बॉडी/ब्लास्ट, …ज़ेड फॉर ज़ुल्म/ ज़ेड प्लस सिक्योरिटी… के बारे में क्यों बताती हैं लेकिन अंग्रेज़ी वर्णमाला के छब्बीसों अक्षर से मिलकर बनने वाले शब्द कश्मीर के बारे में पाठक को बहुत कुछ बता जाते हैं.
मनोहर मट्टू भी आज़ादी चाहते हैं और इस कश्मीरी पंडित को उस दिन नोबेल पुरस्कार मिलने जैसी ख़ुशी मिलती है जब उनके दोस्त अज़ीज़ मोहम्मद बताते हैं कि उनका नाम तो पुलिस की गोपनीय फ़ाइल में है और उन पर निगहबानी की जा रही है. एक दिन मनोहर मट्टू को गोली मार दी गई.
बहुविकल्पीय सवालों वाली परीक्षाओं के लिए विख्यात देश भारत में रॉय अपने पाठकों से एक बहु विकल्पीय सवाल पूछ लेती हैं: मट्टू को गोली क्यों मारी गई? क्योंकि वह हिंदू थे. क्योंकि वह आज़ादी चाहते थे. क्योंकि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था. उपर्युक्त में से कोई नहीं. उपर्युक्त में से सब. यह उपन्यास इस प्रकार से कश्मीर की संश्लिष्ट सच्चाइयों के बीच आपको लाकर छोड़ देता है.
इस उपन्यास की काफ़ी आलोचना की जा रही है. ढेर सारे आख्यान एक दूसरे में उलझा दिए गए हैं. यह भी कहा जा रहा है कि यह उपन्यास पोलिटिकली ओवरलोडेड है. अपने एक से अधिक साक्षात्कारों में ख़ुद उपन्यासकार ने कहा है कि किसी भी समय को बनाने वाली सच्चाइयों के संवेदनशील बरताव से ही कोई कथा साहित्य उपजता है. वे आज के भारत के सीमांत पर उपज रही कल्पनाओं, हसरतों, प्रतिरोधों और गरिमा से जीने की ललक को इस उपन्यास में ले आती हैं.
इस उपन्यास में ‘गुजरात का लल्ला’ के बारे में इतना ज़्यादा लिखा गया है कि यह राजदारी की बात नहीं रह जाती है कि यह सब कुछ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में कहा जा रहा है. हो सकता है कि उनके संपादक ने इस तरह के ढेर सारे विवरणों को इस उपन्यास से निकलने के लिए कहा हो और अरुंधति रॉय ने इन्कार कर दिया हो.
यह मैं केवल तुक्का लगा रहा हूं लेकिन किसी भी उपन्यासकार की तरह उन्हें पता है कि बरसों बाद या क्या पता शताब्दियों बाद यह उपन्यास इतिहास का कोई विद्यार्थी पढ़े और जिन पाठों को इतिहास की किताबों से निकाल दिया गया हो, वे किसी उपन्यास के पन्नों में टूटी-बिखरी इबारतों की तरह फैले हों.
इसी प्रकार कई स्पष्ट राजनीतिक विवरण इस उपन्यास को राजनीति के एक लोकप्रिय पाठ में तब्दील करते हैं. घने जंगलों में स्थित स्कूलों में चलने वाले टार्चर कैंपों के विवरण हों या महिलाओं के साथ पुलिस के सिपाहियों का सामूहिक बलात्कार- यह सब अपने प्रत्येक संभव स्वर में उपन्यास को राजनीतिक रंगमंच में बदल देते हैं. अरुंधति रॉय यही चाहती भी हैं. इसी कारण अनुपम खेर को उनसे दिक्कत है!
अरुंधति रॉय की भाषा:
अरुंधति रॉय ने ‘द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ में एक भाषा सिरजी थी जिससे उनके पाठक मंत्रमुग्ध थे. अगर इसमें वे ‘द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ वाली औपन्यासिक भाषा की खोज में हैं तो यह उपन्यास उनको निराश करेगा. यदि वे इस उपन्यास के वितान को ध्यान में रखेंगे तो वे अपने आपको ऐसी भाषा के बीच पाएंगे जहां प्रार्थना, प्यार और नफ़रत की अलग-अलग भाषा और बुनावट है.
पेड़ों, गलियों, फूलों, पक्षियों के बारे में लिखते समय अरुंधति रॉय कमाल की कशीदाकारी करती हैं. वे महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले किसिम-किसिम के कपड़ों के लिए किसिम-किसिम की भाषा ईजाद करती हैं. उर्दू, कश्मीरी और पुरानी दिल्ली के टकसाली शब्द, हिजड़ों की अंदरूनी दुनिया में प्रचलित ‘फ़ारसी’ के शब्द इस उपन्यास में नगीने की तरह चमकते हैं:
गली में मरियल आवाज़ गूंज रही थी और लग रहा था कि कहीं दूर से आ रही हो. वह अपनी गोद में सोये हुए बच्चे को लिए हुए एक कोने बैठ गई और देख रही थी कि क्या हिंदू क्या मुस्लिम इक्का दुक्का आ रहे थे और वे मकबरे के चारों और लगी झांकी में लाल धागा गंठिया देते, लाल चूड़ी और काग़ज़ की पुर्जियां बांध देते और सरमद की ओर हसरत भरी निगाह से देखते कि इससे उनकी दिक्कतें ख़तम हो जाएंगी.